विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
32. मार्कण्डेय-समास्या
अध्याय : 183
जब कृष्ण और युधिष्ठिर इस प्रकार वार्तालाप कर रहे थे जब ऋषि मार्कण्डेय वहाँ आ उपस्थित हुए। सब लोगों ने उनकी पूजा की और आसन देकर विनय की, ‘‘हे महात्मन, पूर्व काल के राजाओं, ऋषिओं और स्त्री-पुरुषों की पवित्र कथाएँ और सनातन सदाचार हमें सुनाइए।’’ उसी समय नारद भी पाण्डवों से मिलने के लिए वहाँ आये और उन्होंने भी मार्कण्डेय से वैसी ही प्रार्थना की। इसके बाद युधिष्ठिर और मार्कण्डेय के संवाद रूप में 41 अध्यायों और लगभग 2,000 श्लोकों का एक लम्बा प्रकरण आरम्भ होता है, जिसका नाम मार्कण्डेय-समास्या-पर्व है। ‘समास्या’ का अर्थ है बैठक अर्थात ज्ञान चर्चा के लिए एकत्र आसन जमाकर बैठना। काम्यक वन की शीतल छाया में पंच पाण्डव, द्रौपदी, अनेक ब्राह्मण, धौम्य, कृष्ण, सत्यभामा, नारद और मार्कण्डेय का एकत्र जमघट मानो कथाओं के लिए प्रलोभन-भरा आमंत्रण था। कथाओं के इस समूह में पाँच उपाख्यान मुख्य हैं। पहला मार्कण्डेय उपाख्यान, दूसरा धुंधुमार की कथा, तीसरा पतिव्रता उपाख्यान और कौशिक ब्राह्मण के साथ मिथिला के धर्म व्याध का संवाद, चौथा आंगिरस उपाख्यान और पाँचवां स्कन्द-जन्म की विस्तृत कथा। इन कथा-सूत्रों का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जायगा। यह स्पष्ट है कि पंचरात्र भागवतों ने ही इस महाप्रकरण को यहाँ सजाया है। देवर्षि नारद की श्रोता-रूप में उपस्थिति इसका पहला संकेत है। मार्कण्डेय चरित्र में भी नारायण-महिमा ही विशेष रूप से कही गई है। धुंधुमार की कथा को अन्त में स्वयं ग्रन्थकार ने विष्णु का समनुकीर्तन कहा है।[1] कौशिक ब्राह्मण और धर्म व्याध का संवाद भागवत धर्म के नीतिमय दृष्टिकोण का परिचायक है। अन्त में स्कन्द जन्म की कथा मथुरा के आसपास विकसित होने वाले धार्मिक इतिहास का महत्त्वपूर्ण प्रकरण है, जिसमें कितने ही स्थानीय छुटभैयों, देवताओं और अनेक मातृकाओं की पूजा एवं शिव और अग्नि की पूजा को एक ही धार्मिक कटाह में चढ़ाकर-पूजा का चरु तैयार किया गया है। यह समन्वयात्मक प्रक्रिया भी मथुरा के भागवत-धर्म के प्रभाव से सम्पन्न हुई। वस्तुतः मार्कण्डेय समास्या पर्व उत्तरी भारत में प्रतिपन्न होने वाली धार्मिक और समाजिक क्रान्ति के नाना सूत्रों को जोड़कर विरचित हुआ है। यवन-शक-कुषाण-कालीन मथुरा के इतिहास की विचित्र पृष्टभूमि में भागवत धर्म का उदय भारतीयता की विजय थी। इसके द्वारा पुनः स्वदेशी समाज-व्यवस्था और संस्कृति की स्थापना हुई। मार्कण्डेय-युधिष्ठिर प्रसंग में आगे स्पष्ट कहा गया है कि शक-यवनों के बार-बार आक्रमण से समाज व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी।[2] उसे पुनः स्थापित करना आवश्यक था। इतिहास से विदित है कि पुश्यमित्र शुंग के समय में ऐसा प्रयत्न किया गया और पुनः कुषाणोत्तर काल में वही प्रक्रिया हुई। ब्राह्मण और भारतीय संस्कृति ये दोनों शब्द उस समय पर्यायवाची हो गए थे। समाज की धर्म-व्यवस्था, यज्ञ-याग की प्रक्रिया और शिक्षा के लिए ब्राह्मणों की पुनः प्रतिष्ठा समाज की अनिवार्य आवश्यकता थी। उस काल की राष्ट्रीयकरण पद्धति में ब्राह्मणों का जो योग था, उसकी छाया साहित्य में अनेक स्थलों पर मिलती है। महाभारत का यह प्रकरण भी उसी का अंग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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