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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
7. द्रोण पर्व
अध्याय : 52-60
अर्जुन जब संशप्तक युद्ध से लौटकर शिविर में आये तो अभिमन्यु-वध का समाचार सुनकर उनके दुःख का ठिकाना न रहा। शीघ्र ही उनका वह शोक क्रोध में बदल गया और उन्होंने जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा कर ली। यह समाचार कौरव शिविर में बिजली की तरह दौड़ गया। दुर्योधन और द्रोणाचार्य जयद्रथ की रक्षा के लिए नाना भाँति के उपाय सोचने लगे। अभिमन्यु की मृत्यु से समस्त पाण्डव शिविर अत्यन्त दुःखी हुआ और सबसे अधिक दुःख उसकी माता सुभद्रा को हुआ। वह बहुत विलाप करने लगी। तब कृष्ण ने उसे आश्वासन दिया। यहाँ एक छोटी-सी कथा यह भी दी गई है कि युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए कृष्ण ने अर्जुन को प्रेरित किया वह भगवान शिव की पूजा करे। लिखा है कि अर्जुन स्वप्न में भी शिव के समीप रहे और शिव ने स्वप्न में ही अर्जुन को पाशुपत अस्त्र दिया। अर्जुन द्वारा शिव का स्तोत्र[1] दस श्लोकों का छोटा नमः स्तोत्र है। चतुर्थ्यन्त पदों के साथ जहाँ नमः पद का प्रयोग किया जाय, उसे नमः स्तोत्र कहते थे। यजुर्वेद के शतरुद्रीय स्तोत्र से इस शैली का आरम्भ हुआ था और बाद में अनेक पुराणों में इस प्रकार के स्तोत्र पाये जाते हैं। इसी द्रोणपर्व के अन्त में लगभग 80 श्लोकों का एक बहुत बड़ा और विशिष्ट नवां स्तोत्र है, जिसे व्यास ने अर्जुन को सुनाया था।[2] स्वयं महाभारत के लेखक ने इन दोनों स्तोत्रों को शतरुद्रीय कहा है।[3] अगले दिन प्रातःकाल सब लोग भारी दायित्व के बोझ से आक्रान्त होकर उठे और युधिष्ठिर ने कृष्ण से प्रार्थना की कि अर्जुन की प्रतिज्ञा को आप सफल बनावें और अर्जुन को आशीर्वाद दिया। तब अर्जुन ने कृष्ण के साथ रथ पर बैठकर रण-यात्रा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 57-49-58
- ↑ 173-20-98
- ↑ 57-71, गृणन्तव शतरुद्रियं, 173-201, देव देवस्य ते पार्थ व्याख्यातं सत्रुद्रियं
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