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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
मोक्षधर्म पर्व में कितने ही ऊंचे विषयों का अवलोकन हम कर चुके हैं, जिनका धरातल काफी कसा हुआ था। किन्तु पिछले कुछ अध्यायों में हमें सामग्री की शिथिलता दिखाई पड़ी थी। अब हम एक ऐसे प्रकरण की व्याख्या करने जा रहे हैं, जो महाभारत तो क्या सारे भारतीय वाङ्मय में अपना अनन्य स्थान रखता है। इस प्रसंग का नाम नारायणी पर्व है। इसमें 19 अध्याय[1] और एक सहस्र श्लोक हैं। यह किसी महान कवि की रचना है। इसकी विलक्षणता यह है कि इसमें भारत के नारायणीय धर्म और सासानी ईरान के पहलवी धर्म, इन दोनों का विचित्र समन्वय किया गया है। यह प्रकरण किसी ऐसे प्रज्ञाशील व्यक्ति ने ईसा की प्रथम तीन शतियों में संग्रहीत किया जब ईरानी धर्म के देवता और उसके सिद्धान्त घर-घर में व्याप्त हो गये थे। यह पर्व बहुत उद्धृत किया गया है, किन्तु उसका ठीक मर्म पहले कभी नहीं समझा गया। अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के गोहाटी अधिवेशन के सभापति के भाषण में पहली बार हमने इन अर्थों का कुछ संकेत किया था। कल्पना कीजिये कि मध्यप्रदेश, बदरीनाथ और श्वेतद्वीप- ये नारायणीय धर्म के तीन केन्द्र थे। नारद मध्यप्रदेश से बदरीनाथ गये। वहाँ उन्होंने तप करते हुए नर-नारायण से एकान्तिन धर्म के विषय में पूछा जो नारायणीय धर्म की एक शाखा थी। उन्होंने नारद को श्वेतद्वीप में जाने की सलाह दी। एकान्तिन धर्म क्या था? वैसे तो वैष्णवों के कई भेद थे, जैसे पांचरात्र? वैखानस, एकान्तिन, सात्वत, भागवत और वैष्णव। पर धीरे-धीरे इनकी विभाजक रेखाएं मन्द हो गईं और सभी भागवत कहलाने लगे। बाण ने हर्षचरित में पांचरात्र, भागवत, वैखानस और सात्वत का पृथक उल्लेख किया है। इनमें सात्वत चर्तुव्यूह के, एकान्तिन नर-नारायण के, पांचरात्र चक्रपुरुष के, वैखानस गृहस्थ जीवन के बाद वानप्रस्थ आश्रम को मानते थे। एकान्तिन नर-नारायण ऋषि के अनुयायी थे और नर का अन्तभवि नारायण में मानते थे। यही उनकी एकान्तिन संज्ञा का कारण था। नारद जी बदरीनाथ के पास गन्धमादन पर्वत पर गये, जहाँ नर-नारायण नामक चोटियों पर ये दो ऋषि तपस्या कर रहे थे। नारद जी ने वहाँ पहुँचकर जिन लोगों से भेंट की, उन लोगों का वर्णन ठीक ईरानी धर्म के दस्तूरों पर घटित होता है। वह किसी प्रकार भारतीय नहीं है। उनकी यह विशेषता इस प्रकरण में लगभग पांच-छह बार लिखी गई है। एक ही प्रकार के वर्णन को कई तरह संपुटित करके पांच-छह बार दुहराया गया है। महाभारत की यह जानी पहचानी शैली (जक्स्टा पोजिशन) थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 321-338
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