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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 129-167
राजधर्म का ही अवान्तर भाग आपद्धर्म प्रकरण है। यहाँ आपद् शब्द पारिभाषिक है। जब राजा शत्रु से घिर कर या हारकर अपना राज्य खो बैठता है, अथवा अपनी प्रजा द्वारा ही पद्च्युत किया जाकर बाहर घूमने लगता है, तो उसके उस संकट को आपद कहते थे। यह ठीक भी था। राजा के लिए इससे बड़ी विपत्ति नहीं हो सकती कि किसी कारणवश उसे अपने राज्य से हाथ धोना पड़े। अतः प्राचीन नीतिविशारदों ने इस स्थिति पर भी विचार किया कि उस स्थिति में राजा को अपने उद्धार के लिए क्या करना चाहिए। इस प्रसंग का सार यह है कि आपद्ग्रस्त राजा को पुनः कोश और सेना का संग्रह करना चाहिए और उनकी सहायता से यथासंभव पुनः अपना राज्य प्राप्त करना चाहिए। इसी को ‘राजधर्मेषु आपद्धर्मेषु आपत्प्रतीकारः’ कहा गया है। आपत्ति से छूटने के लिए यदि कोश और सैनिक बल से युद्ध भी करना पड़े, तो वह भी योग्य है। युधिष्ठिर का प्रश्न आपत्ति का जो चित्र खींचता है, उससे राज्य की असहायता और निर्बलता की पराकाष्ठा सूचित होती है। युधिष्ठिर ने ये बारह बातें कहींः 1. राजा क्षीण हो जाय, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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