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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 89-153
यमुना के पश्चिमी तट से कुरुक्षेत्र तक का प्रदेश प्राचीन काल से ही बहुत पवित्र माना जाता था। यमुना, सरस्वती, कुरुक्षेत्र इन प्रदशों के साथ आर्य जाति का पुराना सम्बन्ध था। इस विषय में पुराणों की अनुश्रुति बहुत प्रकाश डालती है। अतएव तीर्थयात्रा-पर्व की तीर्थ-परिक्रमाओं में यात्रा के सूत्र बाहर की ओर फैलकर बार-बार फिर कुरुक्षेत्र की ओर सिमटता हुआ दिखाई पड़ता है। मान्धाता के यज्ञ
यमुना के तट पर मान्धाता के अनेक यज्ञ किये थे। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी सम्राट थे। उन्होंने कृतयुग में एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ किये। इन यज्ञों की विशेषता यज्ञों में दी हुई भूरि दक्षिणाएं थीं। ‘भूरि दक्षिणा’ शब्द यज्ञ की परिभाषा में विशेष अर्थ रखता था। ऋत्विजों के अतिरिक्त यज्ञ के अवसर पर और जितने भी ब्राह्मण एवं पात्र एकत्र होते थे, उन सबको उन्मुक्त भाव से बांटी जाने वाली दक्षिणाएं ‘भूरि दक्षिणा’ कहलाती थीं। आज भी विवाह समय अग्नि-साक्षिक कर्म कराने वालों के अतिरिक्त अन्य उपस्थित बहुसंख्यक ब्राह्मणों और अन्य लोगों को जो दक्षिणा बांटी जाती है, उसे ‘भूर’ या ‘बूर’ कहते हैं। वस्तुतः समस्त जनपद की समृद्धि और प्राज्यकाम जनता की तुष्टि के लिए यज्ञ प्राचीनकाल की एक प्रभावशाली युक्ति था। जनपद के भीतर दूर-दूर तक फैले हुए जन-समूह के मानस को नए उत्साह, नई प्रेरणा, नए संगठन और नए उत्थान के विधान में लाने का साधन यज्ञ था। वसन्त और शरद् की सस्य-सम्पत्ति से भरे हुए कोष्ठागार प्रति वर्ष नए-नए यज्ञों के लिए मानों जनता का आवाहन करते थे। इस प्रकार जनपदीय भू-सन्निवेश के युगों में यज्ञ जनता के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन थे। यज्ञ-वेदियों को ‘धिष्ण्य’ कहा गया है। से वेदियां प्रायः नदियों के तटों के साथ-साथ आर्य भू-सन्निवेश का विस्तार करती हुई बढ़ती जाती थीं: नदियाँ यज्ञ-वेदियों की माता या धात्री थीं। ‘ब्रह्माण-ग्रन्थों’ के अनुसार दौःषन्ति भरत ने यमुना के किनारे 78 और गंगा के तटों पर 55 अश्वमेध यज्ञ किये थे।[2] शतपथ के इसी प्रकरण में भरत द्वारा सर्व-पृथ्वी-विजय के प्रसंग में एक संहस्र से अधिक अश्वमेध यज्ञों का उल्लेख है। लगभग उसी स्वर में मान्धाता के यज्ञों की संख्या भी एक सहस्र कही गई है।[3] मान्धाता ने अपने दक्षिणावान ऋतुओं में प्रज्वलित अग्नि से चतुरन्त पृथ्वी का छा लिया। इसके फलस्वरूप उन्हें इन्द्र का अर्धासन प्राप्त हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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