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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 20-28
44. संजययान
तब धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, “हे संजय, सुनते हैं, पाण्डव उपप्लव में आ गए हैं। उन्हें सम्मान के साथ स्वस्ति कहना और उनकी कुशल पूछना एवं और समयानुकूल जो समझो, कहना।” यहाँ धृतराष्ट्र ने संजय को बहुत सीमित अधिकार देकर केवल रामा-रामी करने के लिए भेजा था। बात में रत्ती भर भी जान न थी, पर संजय अनुभवी थे। उपप्लव में जाकर उन्होंने मीठे शब्दों में दोनों ओर की कुशल का लंबा लेखा-जोखा दिया और कहा, “एक बात मुझे रात में धृतराष्ट्र ने जो बुलाकर कही थी, उसे भी सुन लो।” धृतराष्ट्र का यह गुप्त संदेश व्यर्थ की लल्लो-चप्पो और धमकी से भरा हुआ था। उसकी ध्वनि यही थी कि युद्ध न करके शान्ति रखो, “वह जीवन भी मृत्यु जैसा है, जिसमें अपने बन्धु बान्धवों का वध करके जीवित रहना पड़े। पाण्डव इतने नीच कभी न होंगे कि निर्धर्म कर्म करने पर उतारू हों।” उसे सुनकर युधिष्ठिर हक्के-बक्के रह गए और कहा, “हे संजय, युद्ध से विरत रहना चाहते हो तो युद्ध भड़काने वाली यह बात क्यों कहते हो? ठीक है, युद्ध से अयुद्ध अच्छा है। यदि अयुद्ध मिलता हो तो कौन युद्ध चाहेगा? कौन ऐसा दैव से अभिशप्त है कि जान-बूझकर युद्ध करेगा? तुम जानते हो कि हमने कितने कष्ट सहे हैं, फिर भी जो पहली स्थिति थी, वह लौट आवे और इन्द्रप्रस्थ का राज्य हमें मिल जावे तो हम शम की नीति का पालन करेंगे।” उत्तर में संजय ने वैराग्य भरे उपदेश का पैंतरा बदला और धर्म की दुहाई देते हुए कहा, “हे युधिष्ठिर, यदि ऐसा ही हो कि कौरव युद्ध के बिना तुम्हें कुछ न देने पर अड़ जायं तो भी मेरी सम्मति है कि तुम्हारे लिए युद्ध से राज्य लेना अच्छा नहीं, अन्धक वृष्णियों के यहाँ जाकर भिक्षावृत्ति करना अच्छा है। जो धर्म करता है, वह महाप्रतापी सविता की तरह चमकता है। यदि धर्म की हानि हो और पृथ्वी ही मिल जाय तो भी दुःख ही है। तुम अश्वमेध और राजसूय कर चुके हो। अब सत्य और आर्जव की सीमा तक पहुँचकर फिर भी इस युद्ध-रूपी पापिष्ठ कर्म को क्यों सोचते हो?” युधिष्ठिर यद्यपि स्वयं धर्म के पक्षपाती थे, किन्तु संजय ने जो धर्म की रट लगाई, उससे वे भी खिन्न हो गए, “हे संजय, यह सच है कि कर्म से धर्म अच्छा है; पर मेरी गर्हा करने के पहले यह भी तो जान लो कि मैं धर्म कर रहा हूँ या अधर्म। जहाँ अधर्म धर्म का रूप बना लेता है वहाँ फिर धर्म अधर्म जैसा दिखाई देने लगता है। मेरी तो वृत्ति ऐसी है कि पृथ्वी के धन को, देवलोक, प्रजापति लोक या ब्रह्मलोक के धन को भी अधर्म से नहीं चाहता।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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