भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
परिशिष्ट
व्यास भारतीय ज्ञान गंगा के भगीरथ हैं। जिस प्रकार इस देव निर्मित देश को किसी पुरायुग में भगीरथ ने अपने उग्र तप से गंगावतरण के द्वारा पवित्र किया था, उसी प्रकार पुराण मुनि वेदव्यास ने भारतीय लोक साहित्य के आदि युग में हिमालय के बदरिकाश्रम में अखण्ड समाधि लगाकर अध्यात्म, धर्मनीति और पुराण की त्रिपथगा गंगा का पहले अपनी आत्मा में साक्षात्कार किया और फिर साहित्यिक साधना के द्वारा देश के आर्य वाङ्मय को उससे पवित्र किया। ज्ञानरूपी हिमवान के उच्च शिखरों पर बहने वाले दिव्य जलों को मानो वेदव्यास भूतल पर ले आये। उन्होंने लोक साहित्य को वेग की प्रेरणा दी। उनके द्वारा पूर्वजों के ज्ञान और चरित्रों से गुम्फित सरस्वती लोक के कंठ में आ विराजी। जिस प्रकार भारत वर्ष की प्राकृतिक सम्पदा का अपरिमित विस्तार है, उसी प्रकार कालक्रम से वेदव्यास की साहित्यिक सृष्टि भी लोक के देश-व्यापी जीवन में अनन्त बनकर समा गई है। एक प्रकार से सारे राष्ट्र का जीवन ही आज व्यास रूपी महान वटवृक्ष की छया के आश्रय में आ गया है। व्यास भारत वर्षीय ज्ञान के सर्वोत्तम प्रतिनिधि बन गये हैं। यदि भारतीय ज्ञान की उपमा एक ऐसे रत्न से दी जाय, जिसकी चमक के सहस्रों पहलू हों, तो व्यास की सतसाहस्त्री संहिता पूरी तरह से उस महार्घ मणि का स्थान ले सकती है- जैसे भगवान समुद्र और हिमवान गिरि दोनों रत्नों की खान हैं, वैसे ही ‘भारत’ भी रत्नों से परिपूर्ण है।[1] व्यास की प्रतिभा की स्तुति में इसके अधिक और क्या कहा जा सकता थाः धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक जीवन के चार पुरुषार्थों से सम्बन्ध रखने वाला जो कुछ ज्ञान महाभारत में है, वही दूसरी जगह है, जो यहाँ नहीं है, वह कहीं और भी न मिलेगा। जीवन चरित
पुराविदों के प्रयत्न करने पर भी व्यास हमारे ऐतिहासिक तिथिक्रम के शिकंजे में पूरी तरह नहीं बान्धे जा सके। विक्रम से तीस शताब्दी पूर्व से लेकर पन्द्रह शताब्दी पूर्व तक के किसी युग में हमारे व्यास का उदय हुआ। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा से लेकर कृष्ण द्वैपायन तक अठारह व्यासों की परम्परा मिलती है। ये मुख्यतः पुराणों के प्रवचनकर्ता रहे होंगे, पर सब पुराणों के सुसमीक्षित संस्करण तैयार न हो जायँ तब तक इस अनुश्रुति का पूरा मूल्य नहीं आंका जा सकता। हाँ, जय नामक उत्तम इतिहास के रचने वाले अमितौजा महामुनि व्यास, जिनका नाम अठारह व्यासों के अन्त में आता है, अवश्य ही हमारे चिरपरिचित वे पुराने मुनि हैं, जो कुरु पाण्डव युग में इस पृथ्वी पर बदरिकाश्रम और हस्तिनापुर के बीच आते-जाते थे। हिमालय के रम्य शिखर पर जहाँ नर-नारायण दो पर्वत हैं, वहाँ भागीरथी के समीप विशाला बदरी नामक स्थान में व्यास ने अपना आश्रम बनाया था। आज भी बदरी नारायण के इस प्रदेश के दर्शन के लिए प्रतिवर्ष सहस्रों यात्री जाते हैं। विशाला बदरी के समीप ही आकाश गंगा है, जहाँ व्यास का चंक्रमण (घूमने का) स्थान था। यह स्थान हरिद्वार से लगभग एक मास की पैदल यात्रा के बाद आता था। उसी हिमवत पृष्ठ पर व्यास का आश्रम था, जिसके कण-कण में दिव्य तप की भावना ओत-प्रोत थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यथा समुद्रो भगवान्यथा हिमवान् गिरिः।
ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते।।
(आदिपर्व 56/27 श्रीसुकथनकर सम्पादित पूना संस्करण) - ↑ (आदिपर्व 56, 33)
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