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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 154-170
यहीं पर एक छोटा-सा उल्लेख यह आता है कि पाण्डव शिविर में बलराम जी पधारे। सबने उनका सम्मान किया, तब उन्होंने का, “सर्व क्षत्रिय मुझे कालपक्व दिखाई पड़ते हैं। भारी युद्ध होगा। मैंने कृष्ण से बहुत कहा कि दोनों अपने सम्बन्धी हैं, दोनों में समान वृत्ति रखो। जैसे पाण्डव हमारे हैं, वैसे ही दुर्योधन भी, पर उन्होंने मेरी बात न मानी। भीम और दुर्योधन दोनों गदा युद्ध में मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरी एक-सी प्रीति है। मैं अपनी आंखों से कौरवों का नाश होते नहीं देख सकता, इसलिए सरस्वती तट के तीर्थों की यात्रा करने चला जाऊंगा।” इसी अवसर पर महापराक्रमी रुक्मी ने, जिसे अपने तेज के कारण महेन्द्र-विजय धनुष प्राप्त हुआ था, पाण्डवों को अपनी सहायता अर्पित की, पर रुक्मिणी के विवाह के समय की पुरानी बात याद करके पाण्डवों ने कहा, “हमें तुम्हारी सहायता नहीं चाहिए।” विचित्र बात है कि रुक्मी के वैसा ही प्रस्ताव करने पर दुर्योधन ने भी उसे पक्ष में न लिया और वह लौट गया। उलूक का दूत बनकर पाण्डवों के पास आना
दुर्योधन के मन में पाण्डवों के विरुद्ध जो विष भरा हुआ था, उसमें एक ताजी लहर आई। उसने उन्हें चिढ़ाने के लिए उलूक को दूत बनाकर भेजा और एकदम मुंहफट होकर पाण्डवों को चिढ़ाने के वाक्य कहे, “तुम लोग अब तक व्यर्थ बकवास करते थे, अब कुछ करके दिखाओ। अरे, मुण्डे[1], पेटू भीम, तू सभा में दुःशासन का रक्त पीने की डींग हांकता था। अब कुछ करके दिखा। कुएं की मेढक की तरह तू नहीं जानता कि मेरी सेना कितनी है? अरे अर्जुन, तेरे रोते-कलपते भी मैं तेरह वर्ष तक राज्य भोगता रहा। फिर तुझे मारकर वैसा ही करूंगा। तेरा वह गाण्डीव कहाँ गया? हज़ार कृष्ण भी आ जायं तो क्या मैं डरने वाला हूं?” दूत द्वारा उसके ऐसे वाग्बाण सुनकर पाण्डव छटपटाने लगे और सांप की तरह क्रोधित हो एक-दूसरे का मुंह देखने लगे, पर कृष्ण का सन्तुलन वैसा ही रहा। उन्होंने कहा, “हे उलूक, जाओ। सुयोधन से कहना कि हमने तुम्हारा कथन सुना और अर्थ भी समझ लिया। तुमने जो मुझपर कटाक्ष किया है, वह भी अनुचित है, मैं युद्ध नहीं करूंगा। मुझे पाण्डवों ने केवल सारथी चुना है, तू डर न कर। यदि तू आकाश में उड़ जाय या धरती में समा जाय तो भी तुझे सबसे पहले प्रतिदिन अर्जुन का रथ सामने दिखाई पड़ेगा।[2] इसके बाद दुर्योधन के पूछने पर भीष्म ने अपनी ओर शत्रु की सेना के महारथी, रथी और अर्थरथी योद्धाओं का वर्णन किया[3] और अंत में कहा कि जितने राजा हैं, मैं सबसे लडूंगा, केवल शिखण्डी से नहीं। दुर्योधन के कारण पूछने पर अम्बा का उपाख्यान सुनाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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