श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी157. महात्मा हरिदास जी का गोलोकगमन
हरिदास जी ने कहा- ‘प्रभो ! अब उतना जप होता ही नहीं, स्वतः ही कम हो गया है। हाँ, मुझे आपके श्री चरणों में एक निवेदन करना था।’ प्रभु पास में ही एक आसन खींचकर बैठ गये और प्यार से कहने लगे- ‘कहो, क्या कहना चाहते हो? अत्यन्त ही दीनता के साथ हरिदास जी ने कहा- आपके लक्षणों से मुझे प्रतीत हो गया है कि आप शीघ्र ही लीलासंवरण करना चाहते हैं। प्रभो ! मेरी श्री चरणों में यही अन्तिम प्रार्थना है कि यह दुःख प्रद दृश्य मुझे अपनी आँखों से देखना न पड़े। प्रभो ! मेरा हृदय फट जायगा। मैं इस प्रकार हृदय फटकर मृत्यु नहीं चाहता। मेरी तो मनोकामना यही है कि नेत्रों के सामने आपकी मनमोहिनी मूरत हो, हृदय में आपके सुन्दर सुवर्णवर्ण की सलोनी सूरत हो, जिह्वा पर मधुरातिमधुर श्रीकृष्ण-चैतन्य यह त्रैलोक्यपावन नाम हो और आपके चारु चरित्रों का चिन्तन करते-करते मैं इस नश्वर शरीर को त्याग करूँ। यही मेरी साध है, यह मोर उत्कट अभिलाषा है। आप स्वतन्त्र ईश्वर हैं, सब कुछ करने में समर्थ हैं। इस भिक्षा को तो आप मुझे अवश्य ही दे दें।’ प्रभु ने डबडबायी आँखों से कहा- ‘ठाकुर हरिदास ! मालूम पड़ता है, अब तुम लीलासंवरण करना चाहते हो। देखो, यह बात ठीक नहीं। पुरी मेें मेरा और कौन है, तुम्हारी ही संगति से तो यहाँ पड़ा हुआ हूँ। हम तुम साथ ही रहे, साथ ही संकीर्तन किया, अब तुम मुझे अकेला छोड़कर जाओगे, यह ठीक नहीं है।’ धीरे-धीरे खिसककर प्रभु के पैरों में मस्तक रगड़ते हुए हरिदास कहने लगे- ‘प्रभो ! ऐसी बात फिर कभी अपने श्री मुख से न निकालें। मेरा जन्म म्लेच्छकुल में हुआ। जन्म का अनाथ, अनपढ़ और अनाश्रित, संसार से तिरस्कृत और श्री हीन कर्मों के कारण अत्यन्त ही अधम, तिसपर भी आपने मुझे अपनाया; नरक से लेकर स्वर्ग में बिठाया। बड़े-बड़े श्रोत्रिय, ब्राह्मणों से सम्मान कराया, त्रैलोक्यपावन पुरुषोत्त क्षेत्र का देवदुर्लभ वास प्रदान किया। प्रभो ! दीन हीन कंगाल को रंक से चक्रवर्ती बना दिया, यह आप की ही सामर्थ्य है। आप करनी न करनी सभी कुछ कर सकते हैं। आपकी महिमा का पार कौन पा सकता है? मेरी प्रार्थना को स्वीकार कीजिये और मुझे अपने मनोवांछित वरदान को दीजिये।’ प्रभु ने गदगद कण्ठ से कहा- ‘हरिदास ! तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध करने की भला सामर्थ्य ही किसकी है? जिसमें तुम्हें सुख हो, वही करो।’ |