श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी157. महात्मा हरिदास जी का गोलोकगमन
दोपहर हो चुका था, प्रभु का सेवक गोविन्द नित्य की भाँति महाप्रसाद लेकर हरिदास के पास पहुँचा। रोज वह हरिदास जी को आसन पर बैठे हुए नाम-जप करते पाता था। उसदिन उसने देखा हरिदास जी सामने के तख्त पर आँख बंद किये हुए लेट रहे हैं। उनके श्रीमुख से आप ही आप निकल रहा था- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। गोविन्द ने धीर से कहा- हरिदास ! उठो, आज कैसे सुस्ती में पड़े हो।’ कुछ सम्भ्रम के साथ चौंककर आँखें खोलते हुए भर्राई आवाज में हरिदास जी ने पूछा- ‘कौन?’ गोविन्द ने कहा- ‘कोई नहीं, मैं हूँ गोविन्द। क्यों क्या हाल है? पड़े कैसे हो? प्रसाद लाया हूँ, ला प्रसाद पा लो।’ कुछ क्षीण स्वर में हरिदास जी ने कहा- ‘प्रसाद लाये हो? प्रसाद कैसे पाऊँ?’ गोविन्द ने कुछ ममता के स्वर में कहा- ‘क्यों, क्यों, बात क्या है, बताओं तो सही। तबीयत तो अच्छी है न?’ हरिदास जी ने फिर उसी प्रकार विषण्णतायुक्त वाणी में कहा- ‘हाँ, तबीयत अच्छी है, किन्तु आज नाम जप की संख्या पूरी नहीं हुई। बिना संख्या पूरी किये प्रसाद कैसे पाऊँ? तुम ले आये हो तो अब प्रसाद का अपमान करते भी नहीं बनता।’ यह कहकर उन्होंने प्रसाद को प्रणाम किया और उसमें से एक कण लेकर मुख में डाल लियो। गोविन्द चला गया, उसने सब हाल महाप्रभु से जाकर कहा। दूसरे दिन सदा की भाँति समुद्रस्नान करके प्रभु हरिदास जी के आश्रम में गये। उस समय भी हरिदास जी जमीन पर पड़े झपकी ले रहे थे। पास में ही मिट्टी के करवे में जल भरा रखा था। आज आश्रम सदा की भाँति झाड़ा-बुहारा नहीं गया था। इधर-उधर कूड़ा पड़ा था, मक्खियाँ भिनक रही थीं प्रभु ने आवाज देकर पूछा- 'हरिदास जी ! तबीयत कैसी है? शरीर तो स्वस्थ है न? हरिदास जी ने चौंककर प्रभु को प्रणाम किया और क्षीण स्वर में कहा-‘शरीर तो स्वस्थ है। मन स्वस्थ नहीं है।’ प्रभु ने पूछा- ‘क्यों मन को क्या क्लेश है, किस बात की चिंता है?’ उसी प्रकार दीनता के स्वर में हरिदास जी ने कहा- ‘यही चिन्ता है प्रभो ! कि नाम की संख्या अब पूरी नहीं होती।’ प्रभु ने ममता के स्वर में कुछ बात पर जोर देते हुए कहा- ‘देखो, अब तुम इतने वृद्ध हो गये हो। बहुत हठ ठीक नहीं होती। नाम की संख्या कुछ कम कर दो। तुम्हारे लिये क्या संख्या और क्या जप? तुम तो नित्यसिद्ध पुरुष हो, तुम्हारे सभी कार्य केवल लोकशिक्षा के निमित्त होते हैं।’ |