श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी120. पुरी में भक्तों के साथ आनन्द विहार
इस प्रकार आठ दिनों तक आनन्द के साथ निवास करने के अनन्तर अब जगन्नाथ की ‘उलटी रथ यात्रा’ का समय आया। भगवान अब सुन्दराचल को छोड़कर नीलाचल पधारेंगे। इसलिये सेवकवृन्द भगवान को रथ पर चढ़ाने का प्रयत्न करने लगे। भगवान को दयितागण पट्टडोरियों में बाँधकर रथ पर चढ़ाते हैं। उस समय भगवान को रथ पर चढ़ाते समय उनकी एक ‘पट्टडोरी’ टूट गयी। इस पर प्रभु को बड़ा दु:ख हुआ और कुलीन ग्राम निवासी श्रीरामानन्द और सत्यराज खाँसे आप कहने लगे- ‘आप लोग समर्थ हो, धनी हो। धन का सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वह भगवान की सेवा-पूजा मे व्यय हो। इस काम को आप अपने जिम्मे ले लें। प्रतिवर्ष अपने यहाँ से भगवान की सुन्दर सी मजबूत पट्टडोरी बनाकर रथोत्सव के समय साथ लाया करें।’ इन दोनों धनी भक्तों ने प्रभु की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने भाग्य की सराहना की। उसके दूसरे साल से वे प्रतिवर्ष भगवान को पट्टाडोरी बनवाकर अपने साथ लाते थे। भगवान की ‘पाण्डुविजय’ अर्थात रथारोहणपूजा हो जाने पर रथ श्रीजगन्नाथ जी की ओर चला, महाप्रभु भी भक्तों के सहित संकीर्तन करते हुए रथ के आगे-आगे चले। भगवान के मन्दिर में विराजमान होने पर और उनके दर्शन करके महाप्रभु अपने स्थान पर आ गये और भक्तों के सहित प्रसाद पाकर उन्होंने विश्राम किया। गौड़ीय भक्त बारी बारी से नित्यप्रति प्रभु को अपने यहाँ भिक्षा कराते थे। महाप्रभु भी प्रेम के साथ सभी भक्तों के यहाँ भिक्षा करते और उनसे घर द्वार, कुटुम्ब परिवार के सम्बन्ध में विविध प्रकार के प्रश्न पूछते। इसी प्रकार श्रावण बीतने पर जन्माष्टमी आयी। महाप्रभु ने भक्तों के सहित धूम धाम से जन्माष्टमी का महोत्सव मनाया। नन्दोत्सव के दिन अपने गौड़ीय भक्तरुपी ग्वालबालों को साथ लेकर नन्दोत्सव लीला की। उसमें उत्कल देशीय भक्त तथा मन्दिर के कर्मचारी भी सम्मिलित थे। कानाई खूटिया और जगन्नाथ माइति क्रमश: नन्द-यशोदा बने। महाप्रभु स्वयं युवक गोप के वेश में लाठी हाथ में लेकर नृत्य करने लगे। महाप्रभु की लाठी फिराने की चातुरी को देखकर सभी दर्शक विस्मित हो गये। महाराज प्रतापरुद्र जी ने उस समय प्रभु की भावावेशावस्था में ही उनके सिर पर एक बहुमुल्य वस्त्र और जगन्नाथ जी का प्रसाद बांध दिया। प्रभु के सभी साथी ग्वाल-बाल किलकारियाँ मारकर नृत्य करने लगे। जो भक्त नन्द यशोदा बने थे, उन्होंने सचमुच अपने अपने घरों में घुसकर अपना सब धन ब्राह्मण तथा अभ्यागतों को लुटा दिया, इससे महाप्रभु को परम प्रसन्नता हुई। इस प्रकार उस दिन की वह लीला बड़े ही आनन्द के साथ समाप्त हुई। जन्माष्टमी बीतने पर विजयादशमी का उत्सव आया। उसमें महाप्रभु स्वयं महावीर हनुमान बने और भक्तों को रीछ वानर बनाकर रावण पर विजय लाभ करने चले। महाप्रभु के सहवास का समय किसी को मालूम न पड़ा कि वह कब समाप्त हो गया। सभी अपने अपने घर तथा परिवार वालों को एकदम भूल गये थे। उन सबका चित्त श्रीजगन्नाथ जी में तथा महाप्रभु के चरणों में लगा रहता था। अब महाप्रभु ने भक्तों को अपने अपने घर लौट आने की आज्ञा दी। इस बात को सुनते ही मानो छोटे छोटे कोमल वृक्षों पर तुषार गिर पड़ा हो, उसी प्रकार का दु:ख उन सब भक्तों को हुआ। |