श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी74. नवानुराग और गोपी-भाव
बेचारे भक्त भोली-भाली माता की इन सीधी-सरल मातृस्नेह से सनी हुई बातों को सुनकर हंसने लगते। वे मन-ही-मन कहते- ‘जगत की चिकित्सा तो ये करते हैं, इनकी चिकित्सा कौन कर सकता है? इनके रोग की दवा तो आज तक किसी वैद्य ने बनायी ही नहीं और न कोई संसारी वैद्य बना ही सकता है। इनकी ये ही जानते हैं! साँवलिया ही इनकी नाड़ी पकडे़गा तब ये हंसने लगेंगे।’ वे माता को भाँति-भाँति से समझाते, किंतु माता की समझ में एक भी बात नहीं आती। वह सदा अधीर-सी बनी रहतीं। एक दिन महाप्रभु भावावेश में जोरों से ‘गोपी-गोपी’ कहकर रुदन कर रहे थे। वे गोपी-भाव में ऐसे विभोर हुए कि उनके मुख से ‘गोपी-गापी’ इस शब्द के अतिरिक्त कोई दूसरा शब्द निकलता ही नहीं था। उसी समय एक प्रतिष्ठित छात्र इनके समीप इनके दर्शन के लिये आये। वे महाप्रभु के साथ कुछ काल तक पड़े भी थे। वैसे तो शास्त्रीय विद्या में पूर्ण पारंगत पण्डित समझे जाते थे, किंतु भक्ति-भाव में कोरे थे। प्रेम-मार्ग का उन्हें पता नहीं था। प्रभु तो उस समय बाह्य-ज्ञान-शून्य थे, उन्हें भावावेश में पता ही नहीं था कि कौन हमारे पास आया और हमारे पास से उठ गया। उन विद्याभिमानी छात्र ने महाप्रभु की ऐसी अवस्था देखकर कुछ गर्वित भाव से कहा- ‘पण्डित होकर आप यह क्या अशास्त्रीय व्यवहार कर रहे हैं?’ ‘गोपी-गोपी’ कहने से क्या लाभ? कृष्ण-कृष्ण कहो, जिससे उद्धार हो और शास्त्र की मर्यादा भी भंग न हो।’ महाप्रभु को उस समय कुछ भी पता नहीं था कि यह कौन है। भावावेश में उन्होंने यही समझा कि यह भी कोई उद्धव के समान श्याम सुन्दर का सखा है और हमें धोखे में डालने के लिये आया है। इससे प्रभु को उसके ऊपर क्रोध आ गया और एक बड़ा-सा बांस लेकर उसके पीछे मारने के लिये दौडे़। विद्याभिमानी छात्र महाशय अपना सभी शास्त्रीय ज्ञान भूल गये और अपनी जान बचाकर वहाँ से भागे। |