श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी74. नवानुराग और गोपी-भाव
कभी राधा-भाव में भावित होकर रुदन करने लगते, कभी एकान्त में अपने कोमल कपोल को हथेली पर रखकर अन्यमनस्क भाव से अश्रु ही बहाते रहते। कभी राधा-भाव में आप कहने लगते- ‘हे कृष्ण! तुम इतने निष्ठुर हो, मैं नहीं जानती थी। मैं रास में तुम्हारी मीठी-मीठी बातों से छली गयी। मुझ भोली-भाली अबला को तुम इस प्रकार धोखा दोगे, इसका मुझे क्या पता था? हाय! मेरी बुद्धिपर तब न जाने क्यों पत्थर पड़ गये के मैं तुम्हारी उन मीठी-मीठी बातों में आ गयी। कहाँ तुम अखिल ऐश्वर्य के स्वामी और कहाँ मैं एक वन में रहने वाले ग्वाल की लड़की। तुमसे अनजान में स्नेह किया। हा प्राणनाथ! ये प्राण तो तुम्हारे ही अर्पण हो चुके हैं। ये तो सदा तुम्हारे ही साथ रहेंगे, फिर यह शरीर चाहे कहीं भी पड़ा रहे। प्यारे! तुम कोमल हृदय के हो, सरस हो, सरस हो, सुन्दर हो, फिर तुम मेरे लिये कठोर हृदय के निष्ठुर और वक्र स्वभाव वाले क्यों बन गये हो? मुझे इस प्रकार की विरह-वेदना पहुँचाने में तुम्हें क्या मजा मिलता है?’ इस प्रकार घंटों प्रलाप करते रहते! कभी अक्रूर वृन्दावन में श्रीकृष्ण को लेने के लिये आये हैं और गोपियाँ भगवान के विरह में रुदन कर रही हैं। इसी भाव को स्मरण करके आप गोपी-भाव से कहने लगते- ‘हाय देव! तूने क्या किया? हमारे प्राणप्यारे, हमारे सम्पूर्ण व्रज के दुलारे मनमोहन को तू हमसे पृथक क्यों कर रहा है? ओ निर्दयी विधाता! तेरी इस खोटी बुद्धि को बार-बार धिक्कार है, जो तू इस प्रकार प्रेमियों का मिलाकर फिर उन्हें विरह-सागर में डुबा-डुबाकर बुरी तरह से तड़पाता रहता है! हाय! प्यारे कृष्ण! अब चले ही जायंगे क्या? क्या अब वह मुरली की मनोहर तान सुनने को न मिलेगी? क्या अब उस पीताम्बर की छटा दिखायी न पड़ेगी? क्या अब मोहन के मनोहर मुख को देखकर हम सम्पूर्ण दिन के दु:ख-संतापों को न भुला सकेंगी? क्या अब कृष्ण हमारे घर में माखन खाने न आवेंगे? क्या अब सांवरे की सलोनी सूरत को देखकर सुख के सागर में आनन्द की डुबकियां न लगा सकेंगी? यह क्रूरकर्मा अक्रूर कहाँ से आ गया? इसका ऐसा उलटा नाम किसने रख दिया। जो हमसे हमारे प्राणप्यारे को अलग करेगा, उसे अक्रूर कौन कह सकता है? वह तो महाक्रूर है या यह सब विधाता की ही क्रूरता है! बेचारे अक्रूर का इसमें क्या दोष?’ ऐसा कह-कहकर वे जोरों से चिल्लाते लगते। कभी श्रीकृष्ण के भाव में होकर गोपों के साथ व्रज की लीलाओं का अनुकरण करने लगते। कभी प्रह्लाद के आवेश में आकर दैत्य-बालकों को शिक्षा देने का अनुकरण करके पास में बैठे हुए भक्तों को भगवन्नाम-स्मरण और कीर्तन का उपदेश करने लगते। कभी ध्रुव का स्मरण करके उन्हीं के भाव में एक पैर से खडे़ होकर तपस्या-सी करने लगते। फिर कभी विरहिणी की दशा का अभिनय करने लगते। एकदम उदास बन जाते। हाथों के नखों से पृथ्वी को कुरेदने लगते। भक्त तो अहिंसा-प्रिय, शान्त और प्राणिमात्र पर दया करने वाले होते हैं। |