श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी52. प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि
एक दिन चुपचाप पुण्डरीक महाशय नवद्वीप पधारे। किसी को भी उनके आने का पता नहीं चला। बहुत-से भक्तों ने उन्हें देखा भी, किंतु उन्हें देखकर कौन अनुमान लगा सकता था कि ये परम भागवत वैष्णव हैं? भक्तों ने उन्हें कोई सांसारिक धनी-मानी पुरुष ही समझा, इसीलिये भक्त उनके आगमन से अपरिचित ही रहे। पाठकों को मुकुन्द दत्त का नाम स्मरण ही होगा। ये चटगाँव निवासी एक परम भागवत वैष्णव विद्यार्थी थे। इनका कण्ठ बड़ा ही सुमधुर था। अद्वैताचार्य के समीप ये अध्ययन करते थे और उनकी सत्संग-सभा में अपने मनोहर गायन से भक्तों को आनन्दित किया करते थे। जब से प्रभु का प्रकाश हुआ है, तब से वे इन्हीं की शरण में आ गये हैं और प्रभु के साथ मिलकर श्रीकृष्ण-कथा और संकीर्तन में ही सदा संलग्न रहते हैं। विद्यानिधि इनके गाँव के ही थे। दोनों ही समवयस्क तथा परस्पर में एक-दूसरे से भलीभाँति परिचित थे। मुकुन्ददत्त और वासुदेव पण्डित ही विद्यानिधि के भक्तिभाव को जानते थे। प्रभु के परम अन्तरंग भक्त गदाधर से मुकुन्द बड़ा ही स्नेह करते थे। इसलिये एक दिन एकान्त में उनसे बोले- ‘गदाधर! आजकल नवद्वीप में एक परम भागवत वैष्णव ठहरे हुए हैं, चलो, उनके दर्शन कर आवें।’ प्रसन्नता प्रकट करते हुए गदाधर ने कहा- ‘वाह! इससे बढ़कर और अच्छी बात क्या हो सकती है? भगवद्भक्तों के दर्शन तो भगवान के समान ही हैं। अवश्य चलिये, जिनकी आप प्रशंसा करते हैं, वे कोई महान ही भागवत वैष्णव होंगे!’ यह कहकर दोनों मित्र विद्यानिधि के समीप चल दिये। विद्यानिधि नवद्वीप के एक सुन्दर भवन में ठहरे हुए थे। उनका रहने का स्थान खूब साफ था। उसमें एक बहुत ही बढि़या शय्या पड़ी हुई थी, उसके चारों पाये व्याघ्र-मुख की भाँति कई मूल्यवान धातुओं के बने हुए थे, उसके ऊपर बड़ा ही सुकोमल बिस्तर बिछा था। पुण्डरीक महाशय स्नान-ध्यान से निवृत्त होकर उस शय्या पर आधे लेटे हुए थे। उनके विस्तृत ललाट पर सुन्दर सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था, बीच में एक बड़ी ही बढ़िया लाल बिंदी लगी हुई थी। सिर के घुँघराले बाल बढ़िया-बढ़िया सुगन्धित तैल डालकर विचित्र ही भाँति से सजाये हुए थे, कई प्रकार के मसालेदार पान को वे धीरे-धीरे चबा रहे थे, पान की लाली से उनके कोमल पल्लवों के समान दोनों अरुण अधर और भी अधिक लाल हो गये थे। सामने दो पीकदान रखे थे। और भी बहुत-से बहुमूल्य सुन्दर बर्तन इधर-उधर रखे थे। दो नौकर मयूरपिच्छ के कोमल पंखों से उनको हवा कर रहे थे। देखने में बिलकुल राजकुमार-से ही मालूम पड़ते थे। गदाधर को साथ लिये हुए मुकुन्ददत्त उनके समीप पहुँचे और दोनों ही प्रणाम करके उनके बताये हुए सुन्दर आसन पर बैठ गये। |