श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी52. प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि
मुकुन्ददत्त के आगमन से प्रसन्नता प्रकट करते हुए पुण्डरीक महाशय कहने लगे- ‘आज तो बड़ा ही शुभ दिन है, जो आपके दर्शन हुए। आप नवद्वीप में ही हैं, इसका मुझे पता तो था, किंतु आपसे अभी तक भेंट नहीं कर सका। आपसे भेंट करने की बात सोच ही रहा था, सो आपने स्वयं ही दर्शन दिये। आपके जो ये साथी हैं, इनका परिचय दीजिये।’ मुकुन्ददत्त ने शिष्टाचार प्रदर्शित करते हुए गदाधर का परिचय दिया- ‘ये परम भागवत वैष्णव हैं। बाल्यकाल से ही संसारी विषयों से एकदम विरक्त हैं, आप मिश्रवंशावतंस पं. माधवजी के सुपुत्र हैं और महाप्रभु के परम कृपापात्र भक्तों में से प्रधान अन्तरंग भक्त हैं।’ गदाधरजी की प्रशंसा सुनकर पुण्डरीक महाशय ने परम प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘आपके कारण इनके भी दर्शन हो गये।’ इतना कहकर विद्यानिधि महाशय मुसकराने लगे। गदाधर तो जन्म से ही विरक्त थे। वे पुण्डरीक महाशय के रहन-सहन और ठाट-बाट को देखकर विस्मित-से हो गये। उन्हें संदेह होने लगा कि ऐसा विषयी मनुष्य किस प्रकार भगवद्भक्त हो सकता है? जो सदा विषय-सेवन में ही निमग्न रहता है, वह भगवद्भक्ति कर ही कैसे सकता है? मुकुन्ददत्त श्रीगदाधर के मनोभाव को ताड़ गये, इसीलिये उन्होंने पुण्डरीक महाशय के भीतरी भावों को प्रकट कराने के निमित्त श्रीमद्भागवत के दो बड़े ही मार्मिक श्लोकों का अपने सुकोमल कण्ठ से स्वर और लय के साथ धीरे-धीरे गायन किया। उनमें परमकृपालु श्रीकृष्ण की अहैतु की कृपा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन है। वे श्लोक सम्पूर्ण भागवत के दो परम उज्ज्वल रत्न समझे जाते हैं। वे श्लोक ये थे- अहो बकी यं स्तनकालकूटं पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रूधिराशना।' मुकुन्ददत्त के मुख से इन श्लोकों को सुनते ही विद्यानिधि महाशय मूर्च्छित होकर शय्या से नीचे गिर पड़े। एक क्षण पहले जो खूब सजे-बजे बैठे हँस रहे थे, दूसरे ही क्षण श्लोक सुनने से उनकी विचित्र हालत हो गयी। उनके शरीर में स्वेद, कम्प, अश्रु, विकृति आदि सभी सात्त्विक विकास एक साथ उदय हो उठे। वे जोरों के साथ रुदन करने लगे। उनके दोनों नेत्रों में से निरन्तर दो जल-धारा-सी बह रही थी। घुँघराले कढ़े हुए केश इधर-उधर बिखर गये। सम्पूर्ण शरीर धूलि-धूसरित-सा हो गया। दोनों हाथों से वे अपने रेशमी वस्त्रों को चीरते हुए जोर-जोर से मुकुन्द से कहने लगे- ‘भैया! फिर पढ़ो, फिर पढ़ो। इस अपने सुमधुर गायन से मेरे कर्णरन्ध्रों में फिर से अमृत-सिंचन कर दो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अहो ! कितने आश्चर्य की बात है, दुष्ट स्वभाववाली पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर, उन्हें मारने की इच्छा से आयी थी और इसी असद्विचार से उसने भगवान को स्तन-पान कराया था। उस ऐसे क्रूर-कर्मवाली को भी प्रभु ने अपनी पालन-पोषण करने वाली माता के समान सद्गति प्रदान की। ऐसे परम कृपालु भगवान को छोड़कर और किसकी शरण में हमलोग जायँ? 3/2/23
- ↑ पूतना लोगों के बालकों को मारने वाली, रुधिर को पीने वाली नीच योनि की राक्षसी थी। वह मारने की इच्छा रखकर स्तन पिलाने से भी सद्गति प्राप्त हो गयी। (अर्थात दुष्टबुद्धि से भगवत-संसर्ग का इतना माहात्म्य है, फिर जो श्रद्धा-बुद्धि से उनका स्मरण-पूजन करते हैं उनका तो कहना ही क्या!) 10/6/35