श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी52. प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि
एक दिन प्रभु भावावेश में आकर जोरों से ‘हा पुण्डरीक विद्यानिधि’, ‘ओ मेरे बाप विद्यानिधि’ कहकर जोरों से रुदन करने लगे। ‘पुण्डरीक’, ‘पुण्डरीक’ कहते-कहते वे अधीर हो उठे और बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। भक्त आपस में एक-दूसरे की ओर देखने लगे। सभी को विस्मय हुआ। पहले तो भक्तों ने समझा ‘पुण्डरीक’ कहने से प्रभु का अभिप्राय श्रीकृष्ण से ही है, फिर जब पुण्डरीक के साथ विद्यानिधि पद पर ध्यान दिया, तब उन्होंने अनुमान लगाया हो-न-हो इस नाम के कोई भक्त हैं। बहुत सोचने पर भी नवद्वीप में ‘पुण्डरीक विद्यानिधि’ नाम के किसी वैष्णव भक्त का स्मरण उन लोगों को नहीं आया। थोड़ी देर के अनन्तर जब प्रभु की मूर्छा भंग हुई तो भक्तों ने नम्रतापूर्वक पूछा- ‘प्रभु जिनका नाम ले-लेकर जोरों से रुदन कर रहे थे, वे भाग्यवान पुण्डरीक विद्यानिधि कौन परम भागवत महाशय हैं?’ प्रभु ने गम्भीरता के साथ कहा- ‘वे एक परम प्रच्छन्न वैष्णव भक्त हैं, आप लोग उन्हें देखकर नहीं जान सकते कि ये वैष्णव हैं, उनके बाह्य आचार-विचार प्रायः सांसारिक विषयी पुरुषों के-से हैं। वे चटगाँव निवासी एक परम कुलीन ब्राह्मण हैं, उनका एक घर शान्तिपुर में भी है, गंगासेवन के निमित्त वे कभी-कभी चटगाँव से शान्तिपुर में भी आ जाते हैं, वे मेरे अत्यन्त ही प्रिय भक्त हैं। वे मेरे आन्तरिक सुहृद् हैं। उनके दर्शन के बिना मैं अधीर हूँ। वह कौन-सा सुदिवस होगा जब मैं उन्हें प्रेम से आलिंगन करके रुदन करूँगा? प्रभु की ऐसी बात सुनकर सभी को परम प्रसन्नता हुई और सब-के-सब पुण्डरीक विद्यानिधि के दर्शन के लिये परम उत्सुकता प्रकट करने लगे। सबने अनुमान लगा लिया कि जब प्रभु उनके लिये इस प्रकार रुदन करते हैं, तो वे शीघ्र ही नवद्वीप में आने वाले हैं। प्रभु के स्मरण करने पर अपने घर में ठहर ही कौन सकता है, इसीलिये सब भक्त विद्यानिधि के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। |