श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी19. निमाई का अध्ययन के लिये आग्रह
विद्यानाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो पुत्र-स्नेह भी संसार में कितनी विलक्षण वस्तु है? जिस समय माता-पिता का ममत्व पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है, उस समय वे कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान को खो बैठते हैं। बड़े-बड़े पण्डित भी पुत्र-स्नेह के कारण अपने कर्तव्य से च्युत होते हुए देखे गये हैं। भगवान की माया ही विचित्र है, उसका असर मूर्ख-पण्डित सभी पर समानरूप से पड़ता है। पण्डित जगन्नाथ मिश्र स्वयं अच्छे विद्वान थे, कुलीन ब्राह्मण थे, विद्या के महत्त्व को जानते थे, किन्तु विश्वरूप से विछोह से वे अपने कर्तव्य को खो बैठे। सर्वगुण सम्पन्न पुत्र के असमय में धोखा देकर चले जाने के कारण उनके हृदय पर एक भारी चोट लगी। वे इस विछोह का मूल कारण विद्या को ही समझने लगे। उनके हृदय में बार-बार यह प्रश्न उठता था- ‘यदि विश्वरूप इतना अध्ययन न करता, यदि मैं उसे इस प्रकार सर्वदा पढ़ते रहने की छूट न देता, तो सम्भव है मुझे आज यह दिन न देखना पड़ता। इसलिये इनके मन में आया कि अब निमाई को अधिक पढ़ाना-लिखाना नहीं चाहिये। हाय रे! मोह! इधर अब तक तो निमाई कुछ पढ़ते ही लिखते न थे। दिनभर बालकों के साथ उपद्रव मचाते रहना ही इनका प्रधान कार्य था, किन्तु विश्वरूप के गृह त्याग ने के अनन्तर इनका स्वभाव एकदम बदल गया। अब इन्होंने उपद्रव करना बिलकुल छोड़ दिया। अब ये खूब मन लगाकर पढ़ने लगे। दिनभर खूब परिश्रम के साथ पढ़ते और खेलने-कूदने कहीं भी न जाते। माता-पिता के साथ भी अब ये सौम्यता का बर्ताव करने लगे। इस एकदम स्वभाव-परिवर्तन का पिता के ऊपर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। वे सोचने लगे- ‘मुझे जो भय था वही सामने आ उपस्थित हुआ। निमाई भी अब विश्वरूप की भाँति अध्ययन में संलग्न हो गया। इसकी बुद्धि उससे कम तीव्र नहीं है। एक ही दिन में इसने सम्पूर्ण वर्णों की जानकारी कर ली थी, यदि इसे भी अध्ययन के लिये विश्वरूप की भाँति स्वतन्त्रता दे दी जाय तो यह भी हमारे हाथ से जाता रहेगा। यह सोचकर उन्होंने एक दिन निमाई को बुलाया और बड़े प्यार से कहने लगे- ‘बेटा! मैं तुमसे एक बात कहता हूँ, तुम्हें मेरी वह बात चाहे उचित हो या अनुचित माननी ही पड़ेगी।’ निमाई ने नम्रतापूर्वक कहा- ‘पिताजी! आप आज्ञा कीजिये। भला, मैं कभी आपकी आज्ञा को टाल सकता हूँ! आपके कहने से मैं सब कुछ कर सकता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विद्या मनुष्य की अतुलनीय कीर्तिस्वरूपा है, भाग्य क्षय होने पर विद्या ही एकमात्र आश्रयदात्री है। विद्या सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु है, विरह में रति है और मनुष्य के तृतीय नेत्र के समान है। विद्या सत्कार की खानि, कुल की महिमा को बढ़ाने वाली और बिना ही रत्नों के सर्वोत्तम भूषण है। इसलिये सम्पूर्ण विषयों की उपेक्षा करके एक विद्या में ही अधिकार करने का प्रयत्न करना चाहिये। भर्तृ. नी. श. 20