श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी77. शचीमाता और गौरहरि
अहो विधतस्तव न क्वचिद्दया भक्तों के मुख से निमाई के संन्यास की बात सुनकर माता के शोक का पारावार नहीं रहा। वह भूली-सी, भटकी-सी, किंकर्तव्यविमूढा-सी होकर चारों ओर देखने लगी। कभी आगे देखती, कभी पीछे को निहारती, कभी आकाश की ही ओर देखने लगती। मानो माता दिशा-विदिशाओं से सहायता की भिक्षा माँग रही है। लोगों के मुख से इस बात को सुनकर दु:खिनी माता का धैर्य एकदम जाता रहा। वह विलखती हुई, रोती हुई, पुत्र-वियोगरूपी दावानल से झुलसी हुई-सी महाप्रभु के पास पहुँची और बड़ी ही कातरता के साथ कलेजे की कसक को अपनी मर्माहत वाणी से प्रकट करती हुई कहने लगी- ‘बेटा निमाई! मैं जो कुछ सुन रही हूँ वह सब कहाँ तक ठीक है?’ पुत्र-वियोग को अशुभ समझने वाली माता के मुख से वह दारुण बात स्वयं ही न निकली। उसने गोलमाल तरह से ही उस बात को पूछा। कुछ अन्यमनस्क भाव से प्रभु ने पूछा- ‘कौन-सी बात?’ हाय! उस समय माता का हृदय स्थान-स्थान से फटने लगा। वह अपने मुख से वह हृदय को हिला देने वाली बात कैसे कहती? कड़ा जी करके उसने कहा- ‘बेटा! कैसे कहूँ, इस दु:खिनी विधवा के ही भाग्य में न जाने विधाता ने सम्पूर्ण आपत्तियाँ लिख दी हैं क्या? मेरे कलेजे का बड़ा टुकड़ा विश्वरूप घर छोड़कर चला गया और मुझे मर्माहत बनाकर आज तक नहीं लौटा। तेरे पिता बीच में ही धोखा दे गये। उस भयंकर पति-वियोगरूपी पहाड़-से दु:ख को भी मैंने केवल तेरा ही मुख देखकर सहन किया। तेरे कमल के समान खिले हुए मुख को देखकर मैं सभी विपत्तियों को भूल जाती। मुझे जब कभी दु:ख होता तो तुझसे छिपकर रोती। तेरे सामने इसलिये खुलकर नहीं रोती थी कि मेरे रुदन से तेरा चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख कहीं म्लान न हो जाय। मैं तेरे मुख पर म्लानता नहीं देख सकती! दु:ख-दावानल में जलती हुई इस अनाश्रिता दु:खिनी का तेरा चन्द्रमा के समान शीतल मुख ही एकमात्र आश्रय था। उसी की शीतलता में मैं अपने तापों को शांत कर लेती। अब भक्तों के मुख से सुन रही हूँ कि तू भी मुझे धोखा देकर जाना चाहता है। बेटा! क्या यह बात ठीक है?’ माता की ऐसी करुणापूर्ण कातर वाणी को सुनकर प्रभु ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे डबडबाई आँखों से पृथ्वी की ओर देखने लगी। उनके चेहरे पर म्लानता आ गयी। वे भावी वियोगजन्य दु:ख के कारण कुछ विषण्ण-से हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अरे ओ निर्दयी विधाता! तुझे तनिक-सी भी दया नहीं। तू बड़ी ही कठोर प्रकृति का है। पहले तो तू सम्पूर्ण प्राणियों को प्रेमभाव से और स्नेहसम्बन्ध में बांधकर एकत्रित कर देता है और जब ठीक प्रेम के उपभोग का समय आता है तभी उन्हें एक-दूसरे से पृथक कर देता है। इससे तेरा वह व्यवहार अबोध बालकों के समान है। (मालूम पड़ता है तूने किसी से स्नेह करना सीखा ही नहीं।) श्रीमद्भा. 10/39/19