श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी77. शचीमाता और गौरहरि
इतना सुनने पर माता को कितना अपार दु:ख हुआ होगा, इसे किस कवि की निर्जीव लेखनी व्यक्त करने में समर्थ हो सकती है? माता के नेत्रों से निरन्तर अश्रु निकल रहे थे। वे उस सूखे हुए मुख को तर करते हुए माता के वस्त्रों को भिगोने लगे। रोते-रोते माता ने कहा- ‘बेटा! तुझको जाने के लिये मना करूँ, तो तू मानेगा नहीं। इसलिये मेरी यही प्रार्थना है कि मेरे लिये थोड़ा विष खरीदकर और रखता जा। मेरे आगे-पीछे कोई भी तो नहीं है। तेरे पीछे से मैं मरने के लिये विष किससे मंगाऊंगी? बेचारी विष्णुप्रिया अभी बिलकुल अबोध बालिका है। उसे अभी संसार का कुछ पता ही नहीं। उसने आज तक एक पैसे की भी कोई चीज नहीं खरीदी। यदि उसे ही विष लेने भुजूं तो हाल तो वह जा ही नहीं सकती। चली भी जाय तो कोई उसे अबोध बालिका समझकर देगा नहीं। ये जो इतने भक्त यहाँ आते हैं, ये सब तेरे ही कारण आया करते हैं। तू चला जायगा तो फिर ये बेचारे क्यों आवेंगे? मेरे सूने घर का तू ही एकमात्र दीपक है, तेरे रहने से अंधेरे में भी मेरा घर आलोकित होता रहता है। तू अब मुझे आधी सुलगती ही हुई छोड़कर जा रहा है। जा बेटा! खुशी से जा। किंतु मैंने तुझे नौ महीने गर्भ में रखा है, इसी नाते से मेरा इतना काम तो कर जा। मुझ दु:खिनी का विष के सिवा दूसरा कोई और आश्रय भी तो नहीं। गंगा जी में कूदकर भी प्राण गंवाये जा सकते हैं; किंतु बहुत सम्भव है कोई दयालु पुरुष मुझे उसमें से निकाल ले। इसलिये घर के भीतर ही रहने वाली मुझ आश्रयहीना दु:खिनी का विष ही एकमात्र सहारा है।’ यह कहते-कहते वृद्धा माता बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ी। प्रभु ने अपने हाथों से अपनी दु:खिनी माता को उठाया और सम्पूर्ण शरीर में लगी हुई उसकी धूलि को अपने वस्त्र से पोंछा और माता को धैर्य बंधाते हुए वे कहने लगे- ‘माता! तुमने मुझे गर्भ में धारण किया है। मेरे मल-मूत्र साफ किये हैं, मुझे खिला-पिलाकर और पढा़-लिखाकर इतना बड़ा किया है। तुम्हारे ऋण से मैं किस प्रकार उऋण हो सकता हूँ? |