- महाभारत उद्योग पर्व में संजययान पर्व के अंतर्गत एकोनत्रिंश अध्याय में 'संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
संजय की बातों का प्रत्युत्तर देते हुए श्रीकृष्ण का उसे धृतराष्ट्र के लिये चेतावनी देना
संजय द्वारा युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताने की बातों का प्रत्युत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- सूत संजय मैं जिस प्रकार पाण्डवों को विनाश से बचाना, उनको ऐश्र्वर्य दिलाना तथा उनका प्रिय करना चाहता हूँ, उसी प्रकार अनेक पुत्रों से युक्त राजा धृतराष्ट्र का भी अभ्युदय चाहता हूँ। सूत मेरी भी सदा यही अभिलाषा है कि दोनों पक्षो-में शांति बनी रहे। ‘कुन्तीकुमारो! कौरवों से संधि करो, उनके प्रति शांत बने रहो', इसके सिवा दूसरी कोई बात मैं पाण्डवों के सामने नहीं कहता हूँ। राजा युधिष्ठिर के मुँह से भी ऐसा ही प्रिय वचन सुनता हूँ और स्वयं भी इसी को ठीक मानता हूँ।
संजय जैसा कि पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने प्रकट किया है, राज्य के प्रश्नों को लेकर दोनों पक्षों में शांति बनी रहे, यह अत्यंत दुष्कर जान पड़ता है। पुत्रों सहित धृतराष्ट्र (इनके स्वरुप) जिस राज्य में आसक्त होकर उसे लेने-की इच्छा करते हैं, उसके लिये इन कौरव-पाण्डवों में कलह कैसे नहीं बढ़ेगा? संजय तुम यह अच्छी तरह जानते हो कि मुझसे और युधिष्ठिर से धर्म का लोप नहीं हो सकता, तो भी जो उत्साहपूर्वक स्वधर्म का पालन करते हैं तथा शास्त्रों में जैसा बताया गया है, उसके अनुसार ही कुटुम्ब (गृहस्थाश्रम) में रहते हैं, उन्हीं पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के धर्मलोप की चर्चा या आशंका तुमने पहले किस आधार पर की है? गृहस्थ आश्रम में रहने की जो शास्त्रोक्त विधि है, उसके होते हुए भी इसके ग्रहण अथवा त्याग के विषय में विदेज्ञ ब्राह्मणों के भिन्न-भिन्न विचार हैं।
कोई तो [2] कर्मयोग के द्वारा ही परलोक में सिद्धि-लाभ होने की बात बताते हैं,[3]दूसरे लोग कर्म को त्यागकर ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि (मोक्ष) का प्रतिपादन करते हैं। विद्वान पुरुष भी इस जगत में भक्ष्य-भोज्य पदार्थों को भोजन किये बिना तृप्त नहीं हो सकता, अतएव विद्वान ब्राह्मण के लिये भी क्षुधानिवृत्ति के लिये भोजन करने का विधान है। जो विद्याएं कर्म का सम्पादन करती हैं, उन्हीं का फल दृष्टि-गोचर होता है, दूसरी विद्याओं का नहीं। विद्या तथा कर्म में भी कर्म का ही फल यहाँ प्रत्यक्ष दिखायी देता है। प्यास से पीड़ित मनुष्य जल पीकर ही शान्त होता है। [4]
संजय ज्ञान का विधान भी कर्म का साथ लेकर ही है; अत: ज्ञान में भी कर्म विद्यमान है। जो कर्म से भिन्न कर्मों के त्याग को श्रेष्ठ मानता है, वह दुर्बल है, उसका कथन व्यर्थ ही है। ये देवता कर्म से ही स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। वायुदेव कर्म को अपनाकर ही सम्पूर्ण जगत में विचरण करते हैं तथा सूर्यदेव आलस्य छोड़कर कर्म द्वारा ही दिन-रात-का विभाग करते हुए प्रतिदिन उदित होते हैं। चन्द्रमा भी आलस्य त्यागकर [5] मास, पक्ष तथा नक्षत्रों का योग प्राप्त करते हैं; इसी प्रकार जात-वेद (अग्निदेव) भी आलस्य रहित होकर प्रजा के लिये कर्म करते हुए ही प्रज्वलित होकर दाह-क्रिया सम्पन्न करते हैं। पृथ्वी देवी भी आलस्य शून्य हो [6] बलपूर्वक विश्व के इस महान भार को ढोती हैं। ये नदियां भी आलस्य छोड़कर [7] सम्पूर्ण प्राणियों को तृप्त करती हुई शीघ्रतापूर्वक जल बहाया करती हैं।[1]
जिन्होंने देवताओं में श्रेष्ठ स्थान पाने की इच्छा से तन्द्रारहित होकर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किया था, वे महातेजस्वी बल-सूदन इन्द्र भी आलस्य छोड़कर [8] मेघगर्जना द्वारा आकाश तथा दिशाओं को गुंजाते हुए समय-समय पर वर्षा करते हैं। इन्द्र ने सुख तथा मन को प्रिय लगने वाली वस्तुओं का त्याग करके सत्कर्म के बल से ही देवताओं में ऊंची स्थिति प्राप्त की। उन्होंने सावधान होकर सत्य, धर्म, इन्द्रिय-संयम, सहिष्णुता, समदर्शिता तथा सबको प्रिय लगने वाले उत्तम बर्ताव का पालन किया था। इन समस्त सद्गुणों का सेवन करने के कारण ही इन्द्र को देव सम्राट का श्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है।[9]
इसी प्रकार बृहस्पतिजी ने भी नियमपूर्वक समाहित एवं संयतचित्त होकर सुख का परित्याग करके समस्त इन्द्रियों को अपने वश में रखते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था। इसी सत्कर्म के प्रभाव से उन्होंने देवगुरु का सम्मानित पद प्राप्त किया है। आकाश के सारे नक्षत्र सत्कर्म के ही प्रभाव से परलोक में प्रकाशित हो रहे हैं। रुद्र, आदित्य, बसु तथा विश्वदेवगण भी कर्मबल से ही महत्त्व को प्राप्त हुए हैं। सूत! यमराज, विश्रवा के पुत्र कुबेर, गन्धर्व, यक्ष तथा अप्सराएं भी अपने-अपने कर्मों के प्रभाव से ही स्वर्ग में विराजमान हैं। ब्रह्मज्ञान तथा ब्रह्मचर्य कर्म का सेवन करने वाले महर्षि भी कर्मबल से ही परलोक में प्रकाशमान हो रहे हैं।
संजय! तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व तथा सम्पूर्ण लोकों के इस सुप्रसिद्ध धर्म को जानते हो। तुम ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ ज्ञानी हो, तो भी तुम कौरवों की स्वार्थ सिद्धि के लिये क्यों बाग्जाल फैला रहे हो? राजा युधिष्ठिर का वेद-शास्त्रों के साथ स्वाध्याय के रूप में सदा सम्बन्ध बना रहता है। इसी प्रकार अश्वमेध तथा राजसूय आदि यज्ञों से भी इनका सदा लगाव है। ये धनुष और कवच से भी संयुक्त हैं। हाथी-घोडे़ आदि वाहनों, रथों और अस्त्र-शस्त्रों की भी इनके पास कमी नहीं है। ये कुन्तीपुत्र यदि कौरवों का वध किये बिना ही अपने राज्य की प्राप्ति का कोई दूसरा उपाय जान लेंगे, तो भीमसेन के आग्रहपूर्वक आर्य पुरुषों के द्वारा आचरित सद्व्यहार में लगाकर धर्म रक्षारूप पुण्य का ही सम्पादन करेंगे, तुम ऐसा (भली-भाँति) समझ लो। पाण्डव अपने बाप-दादों के कर्म-क्षात्रधर्म (युद्ध आदि) में प्रवृत्त हो यथाशक्ति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए यदि दैववश मृत्यु को भी प्राप्त हो जायं तो इनकी वह मृत्यु उत्तम ही मानी जायगी। यदि तुम शान्ति धारण करना ही ठीक समझते हो तो बताओ, युद्ध में प्रवृत्त होन से राजाओं के धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है या युद्ध छोड़कर भाग जाने से?
क्षत्रिय-धर्म का विचार करते हुए तुम जो कुछ भी कहोगे, मैं तुम्हारी वही बात सुनने को उद्यत हूँ। संजय! तुम पहले ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के विभाग तथा उनमें से प्रत्येक वर्ण के अपने-अपने कर्म का देख लो। फिर पाण्डवों के वर्तमान कर्म पर दृष्टिपात करो; तत्पश्चात जैसा तुम्हारा विचार हो, उसके अनुसार इनकी प्रशंसा अथवा निन्दा करना। ब्राह्मण अध्ययन, यज्ञ एवं दान करे तथा प्रधान-प्रधान तीथों की यात्रा करे, शिष्यों को पढा़वे और यजमानों को यज्ञ करावे अथवा शास्त्रविहित प्रतिग्रह (दान) स्वीकार करे। इसी प्रकार क्षत्रिय स्वाध्याय, यज्ञ और दान करे। किसी से किसी भी वस्तु की याचना न करे। वह न तो दूसरों का यज्ञ करावे और न अध्यापन का ही कार्य करे; यही धर्मशास्त्रों में क्षत्रियों का प्राचीन धर्म बताया गया है। इसके सिवा क्षत्रिय धर्म के अनुसार सावधान रहकर प्रजा जनों की रक्षा करे, दान दे, यज्ञ करे, सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करके विवाह करे और पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ गृहस्थाश्रम में रहे। इस प्रकार वह धर्मात्मा क्षत्रिय धर्म एवं पुण्य का सम्पादन करके अपनी इच्छा अनुसार ब्रह्मलोक को जाता है। वैश्व अध्ययन करके कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार द्वारा धनोपार्जन करते हुए सावधानी के साथ उसकी रक्षा करे। ब्राह्मणों और क्षत्रियों का प्रिय करते हुए धर्मशील एवं पुण्यात्मा होकर वह गृहस्थाश्रम में निवास करे।[9]
शूद्र ब्राह्मणों की सेवा तथा वन्दना करे, वेदों का स्वाध्याय न करे। उसके लिये यज्ञ का भी निषेध है। वह सदा उपयोगी और आलस्यरहित होकर अपने कल्याण के लिये चेष्ठा करे। इस प्रकार शूद्रों का प्राचीन धर्म बताया गया है। राजा सावधानी के साथ इन सब वर्णों का पालन करते हुए ही इन्हें अपने-अपने धर्म में लगाये। वह कामभोग में आसक्त न होकर समस्त प्रजाओं के साथ समानभाव से बर्ताव करे और पापपूर्ण इच्छाओं का कदापि अनुसरण न करे।[10]
यदि राजा को यह ज्ञात हो जाय कि उसके राज्य में कोई सर्वधर्मसम्पन्न श्रेष्ठ पुरुष निवास करता है तो वह उसी को प्रजा के गुण-दोष का निरिक्षण करने के लिये नियु्क्त करे तथा उसके द्वारा पता लगाये कि मेरे राज्य में कोई पापकर्म करने वाला तो नहीं है। जब कोई क्रूर मनुष्य दूसरे की धन-सम्पत्ति में लालच रखकर उसे ले लेने की इच्छा करता है और विधाता के कोप से (परपीडन के लिये) सेना-संग्रह करने लगता है, उस समय राजाओं में युद्ध का अवसर उपस्थित होता है। इस युद्ध के लिये ही कवच, अस्त्र-शस्त्र और धनुष का आविष्कार हुआ है। स्वयं देवराज इन्द्र ने ऐसे लुटेरों का वध करने के लिये कवच, अस्त्र-शस्त्र और धनुष का आविष्कार किया है। (राजाओं को) लुटेरों का वध करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। संजय! कौरवों में यह लुटेरेपन का दोष तीव्ररूप से प्रकट हो गया है, जो अच्छा नहीं है। वे अधर्म के तो पूरे पण्डित हैं; परंतु धर्म की बात बिल्कुल नहीं जानते।
राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के साथ मिलकर सहसा पाण्डवों के धर्मत: प्राप्त उनक पैतृक राज्य का अपहरण करने को उतारू हो गये हैं। अन्य समस्त कौरव भी उन्हीं का अनुसरण कर रहे हैं। वे प्राचीन राजधर्म की ओर नहीं देखते हैं। चोर छिपा रहकर धन चुरा ले जाय अथवा सामने आकर डाका डाले, दोनों ही दशाओं में वे चोर-डाकू निन्दा के ही पात्र होते हैं। संजय! तुम्हीं कहो, धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधन और उन चोर-डाकुओं में क्या अंतर है? दुर्योधन क्रोध के वशीभूत होकर उसके अनुसार चलने वाला है और वह लोभ से राज्य को ले लेना चाहता है। इसे वह धर्म मान रहा है; परंतु वह तो पाण्डवों का भाग है, जो कौरवों के यहाँ धरोहर के रूप में रखा गया है। संजय हमारे उस भाग को हमसे शत्रुता रखने वाले कौरव कैसे ले सकते हैं?[10]
सूत इस राज्य भाग की प्राप्ति के लिये युद्ध करते हुए हम लोगों का वध हो जाय तो वह भी हमारे लिये स्पृहणीय ही है। बाप-दादों का राज्य पराये राज्य की अपेक्षा श्रेष्ठ है। संजय! तुम राजाओं की मण्डली में राजाओं के इन प्राचीन धर्मों का कौरवों के समक्ष वर्णन करना। दुर्योधन ने जिन्हें युद्ध के लिये बुलवाया है, वे मूर्ख राजा बल के मद से मोहित होकर मौत के फंदे में फंस गये हैं। संजय! भरी सभा में कौरवों ने जो यह अत्यन्त पापपूर्ण कर्म किया था, उनके इस दुराचार पर दृष्टि डालो। पाण्डवों की प्यारी पत्नी यशस्विनी द्रौपदी जो शील और सदाचार से सम्पन्न है, रजस्वला-अवस्था में सभा के भीतर लायी जा रही थी, परंतु भीष्म आदि प्रधान कौरवों ने भी उसकी ओर से उपेक्षा दिखायी। यदि बालक से लेकर बूढ़े तक सभी कौरव उस समय दु:शासन को रोक देते तो राजा धृतराष्ट्र मेरा अत्यंत प्रिय कार्य करते तथा उनके पुत्रों का भी प्रिय मनोरथ सिद्ध हो जाता। दु:शासन मर्यादा के विपरीत द्रौपदी को सभा के भीतर श्र्वशुरजनों के समक्ष घसीट ले गया। द्रौपदी ने वहाँ जाकर कातर-भाव से चारों ओर करूणदृष्टि डाली, परंतु उसने वहाँ विदुरजी के सिवा और किसी को अपना रक्षक नहीं पाया।[11]
उस समय सभा में बहुत-से भूपाल एकत्रित थे, परंतु अपनी कायरता के कारण वे उस अन्याय का प्रतिवाद न कर सके। एकमात्र विदुरजी ने अपना धर्म समझकर मन्दबुद्धि दुर्योधन से धर्मानुकूल वचन कहकर उसके अन्याय का विरोध किया। संजय! द्यूतसभा में जो अन्याय हुआ था, उसे भुलाकर तुम पाण्डुनंदन युधिष्ठिर को धर्म का उपदेश देना चाहते हो। द्रौपदी ने उस दिन सभा में जाकर अत्यंत दुष्कर और पवित्र कार्य किया कि उसने पाण्डवों तथा अपने को महान संकट से बचा लिया; ठीक उसी तरह,जैसे नौका समुद्र की अगाध जलराशि में डूबने से बचा लेती है। उस सभा में कृष्णा श्र्वशुरजनों के समीप खड़ी थी, तो भी सूतपुत्र कर्ण ने उसे अपमानित करते हुए कहा-‘याज्ञर्सोन! अब तेरे लिये दूसरी गति नहीं है, तू दासी बनकर दुर्योधन के महल में चली जा। पाण्डव जूए में अपने को हार चूके हैं, अत: अब वे तेरे पति नहीं रहे। भाविनि! अब तू किसी दूसरे को अपना पति वरण कर ले’।
संजय! [12] जूए के समय जितने और जैसे निन्दनीय वचन कहे गये थे, वे सब तुम्हें ज्ञात हैं, तथापि इस बिगड़े हुए कार्य को बनाने के लिये मैं स्वयं हस्तिनापुर चलना चाहता हूँ। यदि पाण्डवों का स्वार्थ नष्ट किये बिना ही मैं कौरवों के साथ इनकी संधि कराने में सफल हो सका तो मेरे द्वारा यह परम पवित्र और महान अभ्युदय का कार्य सम्पन्न हो जायगा तथा कौरव भी मौत के फंदे से छूट जायंगे। मैं वहाँ जाकर शुक्रनीति के अनुसार धर्म और अर्थ से युक्त ऐसी बातें कहूंगा, जो हिंसावृत्ति को दबाने वाली होंगी। क्या धृतराष्ट्र के पुत्र मेरी उन बातों पर विचार करेंगे? क्या कौरवगण अपने सामने उपस्थित होने पर मेरा सम्मान करेंगे?[13]
संजय! यदि ऐसा नहीं हुआ-कौरवों ने इसके विपरीत भाव दिखाया तो समझ लो कि रथपर बैठे हुए अर्जुन और युद्ध के लिये कवच धारण करके तैयार हुए भीमसेन के द्वारा पराजित होकर धृतराष्ट्र के वे सभी पापात्मा पुत्र अपने ही कर्मदोष से दग्ध हो जायंगे। द्यूत के समय जब पाण्डव हार गये थे, तब दुर्योधन ने उनके प्रति बड़ी भयानक और कड़वी बातें कही थीं; अत: सदा सावधान रहनेवाले भीमसेन युद्ध के समय गदा हाथ में लेकर दुर्योधन को उन बातें की याद दिलायेंगे। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है, कर्ण उस वृक्ष का स्कन्ध, शकुनि शाखा और दु:शासन समृद्ध फल-पुष्प हैं। अज्ञानी राजा धृतराष्ट्र ही इसके मूल (जड़) हैं। युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन (उस वृक्ष के) स्कन्ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनंदन नकुल-सहदेव इसके समृद्ध फल-पुष्प हैं। मैं, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं। संजय! पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र एक वन हैं और पाण्डव उस वन में निवास करने वाले व्याघ्र हैं। सिंहों से रक्षित वन नष्ट नहीं होता एवं वन में रहकर सुरक्षित सिंह नष्ट नहीं होता उस वन का उच्छेद न करो। क्योंकि वन से बाहर निकला हुआ व्याघ्र मारा जाता है और बिना व्याघ्र के वन को सब लोग आसानी से काट लेते हैं। अत: व्याघ्र वन की रक्षा करे और वन व्याघ्र की।
संजय धृतराष्ट्र के पुत्र लताओं के समान हैं और पाण्डव शाल-वृक्षों के समान। कोई भी लता किसी महान वृक्ष का आश्रय लिये बिना कभी नहीं बढ़ती है[14] शत्रुओं का दमन करने वाले कुंतीपुत्र धृतराष्ट्र की सेवा करने के लिये भी उद्यत हैं और युद्ध के लिये भी। अब राजा धृतराष्ट्र का जो कर्तव्य हो, उसका पालन करें। विद्वान संजय! धर्म का आचरण करने वाले महात्मा पाण्डव शांति के लिये भी तैयार हैं और युद्ध करने में भी समर्थ हैं। इन दोनों अवस्थाओं को समझकर तुम राजा धृतराष्ट्र से यथार्थ बातें कहना।
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-11
- ↑ गृहस्थाश्रम में रहकर
- ↑ इस प्रकार यद्यपि गृहस्थाश्रम में रहने और संन्यास लेने-का भी शास्त्र द्वारा ही विधान किया गया है, तथापि अन्य आश्रमों में प्राप्त होने वाले ज्ञान की उपलब्धि तो गृहस्थाश्रम में भी हो सकती है, परंतु गृहस्थ-साध्य यज्ञादि पुण्य कर्म आश्रमांतरों में नहीं हो सकते; अत:सम्पूर्ण धर्मों की सिद्धि का स्थान गृहस्थाश्रम ही है।
- ↑ उसे जान-कर नहीं; अत: गृहस्थाश्रम में रहकर सत्कर्म करना ही श्रेष्ठ है
- ↑ कर्म के द्वारा ही
- ↑ कर्म में तत्पर रहकर ही
- ↑ कर्मपरायण हो
- ↑ कर्मपरायण होकर ही
- ↑ 9.0 9.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 12-23
- ↑ 10.0 10.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 24-34
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 35-46
- ↑ कहां तक गिनाऊं
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 47-58
- ↑ अत: पाण्डवों का आश्रय लेकर ही धृतराष्ट्र पुत्र बढ़ सकते हैं
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| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
| दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना
| नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन
| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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