- भीष्म जी दुर्योधन को पांडव पक्ष के योद्धाओं से अवगत कराते हुए पाँचों पांडवों, द्रुपद, राजा विराट व अन्य राजाओं के बल एवं शौर्य का वर्णन करते हैं और अब पुन: वह पांडवों की सेना के रथी, महारथी, एवं अतिरथियों आदि का वर्णन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में रथातिरथसंख्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 171 व 172 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
भीष्म द्वारा पाण्डव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
भीष्म जी कहते हैं- राजन! भरतनन्दन! पांचालराज द्रुपद का पुत्र शिखण्डी शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाला है, मैं उसे युधिष्ठिर की सेना का एक प्रमुख रथी मानता हूँ। भारत! वह तुम्हारी सेना में प्रवेश करके अपने पूर्व अपयश का नाश तथा उत्तम सुयश का विस्तार करता हुआ बड़े उत्साह से युद्ध करेगा। उसके साथ पांचालों और प्रभद्रकों की बहुत बड़ी सेना है। वह उन रथियों के समूह द्वारा युद्ध में महान कर्म कर दिखायेगा। भारत! जो पाण्डवों की सम्पूर्ण सेना का सेनापति है, वह द्रोणाचार्य का महारथी शिष्य धृष्टद्युम्न मेरे विचार से अतिरथी है। जैसे प्रलयकाल में पिनाकधारी भगवान रुद्र कुपित होकर प्रजा का संहार करते हैं, उसी प्रकार यह संग्राम में शत्रुओं का संहार करता हुआ युद्ध करेगा। इसके पास रथियों की जो देवसेना के समान विशाल सेना है, उसकी संख्या बहुत होने के कारण युद्ध प्रेमी सैनिक रणक्षेत्र में उसे समुद्र के समान बताते हैं। राजेन्द्र! धृष्टद्युम्न का पुत्र क्षत्रधर्मा मेरी समझ में अभी अर्धरथी है। बाल्यावस्था होने के कारण उसने अस्त्र-विद्या में अधिक परिश्रम नहीं किया है। शिशुपाल का वीर पुत्र महाधनुर्धर चेदिराज धृष्टकेतु पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर का सम्बन्धी एवं महारथी है। भारत! यह शौर्यसम्पन्न चेदिराज अपने पुत्र के साथ आकर महारथियों के लिये सहज साध्य महान पराक्रम कर दिखायेगा। राजेन्द्र! शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाला क्षत्रिय धर्म परायण क्षत्रदेव मेरे मत में पाण्डव-सेना का एक श्रेष्ठ रथी है। जयन्त, अमितौजा और महारथी सत्यजित- ये सभी पांचाल शिरोमणि महामनस्वी भरे हुए गजराजों की भाँति समरभूमि में युद्ध करेंगे। पाण्डवों के लिये महान पराक्रम करने वाले बलवान शूरवीर अज और भोज दोनों महारथी हैं। वे सम्पूर्ण शक्ति लगाकर युद्ध करेंगे और अपने पुरुषार्थ का परिचय देंगे।
राजेन्द्र! शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाले, विचित्र योद्धा, युद्धकाल में निपुण और दृढ़ पराक्रमी जो पांच भाई केकयराजकुमार हैं, वे सभी उदार रथी माने गये हैं। उन सबकी ध्वजा लाल रंग की है। सुकुमार, काशिक, नील, सूर्यदत्त, शंख और मदिराश्व नामक ये सभी योद्धा उदार रथी हैं। युद्ध ही इन सबका शौर्यसूचक चिह्न है। मैं इन सभी को सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता और महामनस्वी मानता हूँ। महाराज! वार्धक्षेमि को मैं महारथी मानता हूँ तथा राजा चित्रायुध मेरे विचार से श्रेष्ठ रथी हैं। चित्रायुध संग्राम में शोभा पाने वाले तथा अर्जुन के भक्त हैं। चेकितान और सत्यधृति- ये दो पुरुषसिंह पाण्डव सेना के महारथी हैं। मैं इन्हें रथियों में श्रेष्ठ मानता हूँ। भरतनन्दन! महाराज! व्याघ्रदत्त और चन्द्रसेन- ये दो नरेश भी मेरे मत में पाण्डव सेना श्रेष्ठ रथी हैं, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! राजा सेनाबिन्दु का दूसरा नाम क्रोधहन्ता भी है। प्रभो! वे भगवान कृष्ण तथा भीमसेन के समान पराक्रमी माने जाते हैं। वे समरांगण में तुम्हारे सैनिकों के साथ पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध करेंगे। तुम मुझको, आचार्य द्रोण को तथा कृपाचार्य का जैसा समझते हो, युद्ध में दूसरे वीरों से स्पर्धा रखने वाले तथा बहुत ही फूर्ती के साथ अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करने वाले प्रशंसनीय एवं उत्तम रथी नरश्रेष्ठ काशिराज को भी तुम्हें वैसा ही मानना चाहिये। मेरी दृष्टि में शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले काशिराज साधारण अवस्था में एक रथी समझना चाहिये; परंतु जिस समय ये युद्ध में पराक्रम प्रकट करने लगते हैं उस समय इन्हें रथियों के बराबर मानना चाहिये। द्रुपद का तरुण पुत्र सत्यजित सदा युद्ध की स्पृहा रखने वाला है। वह धृष्टद्युम्न के समान ही अतिरथी का पद प्राप्त कर चुका है। वह पाण्डवों के यशोविस्तार की इच्छा रखकर युद्ध में महान कर्म करेगा। पाण्डव पक्ष के धुरंधर वीर महापराक्रमी पाण्डयराज भी एक अन्य महारथी हैं। ये पाण्डवों के प्रति अनुराग रखने वाले और शूरवीर हैं। इनका धनुष महान और सुदृढ़ है। ये पाण्डव सेना के सम्माननीय महारथी हैं। कौरवश्रेष्ठ! राजा श्रेणिमान और वसुदान– ये दोनों वीर अतिरथी माने गये हैं। ये शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने में समर्थ हैं।[1]
भीष्म जी कहते हैं- महाराज! भारत! पाण्डव पक्ष में राजा रोचमान महारथी हैं। वे युद्ध में शत्रुसेना के साथ देवताओं के समान पराक्रम दिखाते हुए युद्ध करेंगे। कुन्तिभोजकुमार राजा पुरूजित जो भीमसेन के मामा हैं, वे भी महाधनुर्धर और अत्यन्त बलवान हैं। मैं इन्हें भी अतिरथी मानता हूँ। इनका धनुष महान है। ये अस्त्रविद्या के विद्वान और युद्धकुशल हैं। रथियों में श्रेष्ठ वीर पुरूजित विचित्र युद्ध करने वाले और शक्तिशाली हैं। जैसे इन्द्र दानवों के साथ पराक्रमपूर्वक युद्ध करते हैं, उसी प्रकार ये भी शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। उनके साथ जो सैनिक आये हैं, वे भी युद्ध की कला में निपुण और विख्यात वीर हैं। वीर पुरूजित पाण्डवों के प्रिय एवं हित में तत्पर होकर अपने भान्जों के लिये युद्ध में महान कर्म करेंगे। महाराज! भीमसेन और हिडिम्बा का पुत्र राक्षसराज घटोत्कच बड़ा मायावी है। वह मेरे मत में रथयूथपतियों का भी यूथपति है। उसको युद्ध करना बहुत प्रिय है। तात! वह मायावी राक्षस समरभूमि में उत्साहपूर्वक युद्ध करेगा। उसके साथ जो वीर राक्षस एवं सचिव हैं, वे सब उसी के वश में रहने वाले हैं। ये तथा और भी बहुत-से वीर क्षत्रिय जो विभिन्न जनपदों के स्वामी हैं और जिनमें श्रीकृष्ण का सबसे प्रधान स्थान है पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के लिये यहाँ एकत्र हुए हैं।
राजन! ये महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के मुख्य-मुख्य रथी, अतिरथी और अर्धरथी यहाँ बताये गये हैं। नरेश्वर! देवराज इंद्र के समान तेजस्वी किरीटधारी वीरवर अर्जुन के द्वारा सुरक्षित हुई युधिष्ठिर की भयंकर सेना का ये उपर्युक्त वीर समरागंण में संचालन करेंगे। वीर! मैं तुम्हारी ओर से रणभूमि में उन मायावेत्ता और विजयाभिलाषी पाण्डव वीरों के साथ अपनी विजय अथवा मृत्यु की आकांक्षा लेकर युद्ध करूँगा। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और अर्जुन रथियों में श्रेष्ठ हैं। वे क्रमशः सुदर्शन चक्र और गाण्डीव धनुष धारण करते हैं। वे संध्याकालीन सूर्य और चन्द्रमा की भाँति परस्पर मिलकर जब युद्ध में पधारेंगे, उस समय मैं उनका सामना करूँगा। पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के और भी जो-जो श्रेष्ठ रथी सैनिक हैं, उनका और उनकी सेनाओं का मैं युद्ध के मुहाने पर सामना करूँगा। राजन! इस प्रकार मैंने तुम्हारे इन मुख्य-मुख्य रथियों और अतिरथियों का वर्णन किया है। इनके सिवा, जो कोई अर्धरथी हैं, उनका भी परिचय दिया है। कौरवेन्द्र! इसी प्रकार पाण्डव पक्ष के भी रथी आदि का दिग्दर्शन कराया गया है।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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| धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना
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| दुर्योधन की आत्मप्रशंसा
| कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप
| कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना
| दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन
| विदुर का दम की महिमा बताना
| विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना
| धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना
| धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन
| संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना
| कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन
| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
| कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
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| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
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| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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