विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना

महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 134वें अध्याय में 'विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करने' का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

विदुला द्वारा अपने पुत्र को युद्ध के लिये समझाना

विदुला बोली- संजय! यदि तू इस दशा में पौरुष को छोड़ देने की इच्छा करता है तो शीघ्र ही नीच पुरुषों के मार्ग पर जा पहुँचेगा। जो क्षत्रिय अपने जीवन के लोभ से यथाशक्ति पराक्रम प्रकट करके अपने तेज का परिचय नहीं देता है, उसे सब लोग चोर मानते हैं। जैसे मरन्नासन पुरुष को कोई भी दवा लागू नहीं होती, उसी प्रकार ये युक्तियुक्त, गुणकारी और सार्थक वचन भी तेरे हृदय तक पहुँच नहीं पाते हैं। यह कितने दु:ख की बात है। देख, सिंधुराज की प्रजा उससे संतुष्ट नहीं है, तथापि तेरी दुर्बलता के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो उदासीन बैठी हुई है और सिन्धुराज पर विपत्तियों के आने की बाट जोह रही है। दूसरे राजा भी तेरा पुरुषार्थ देखकर इधर-उधर से विशेष चेष्टापूर्वक सहायक साधनों की वृद्धि करके सिन्धुराज के शत्रु हो सकते हैं। तू उन सबके साथ मैत्री करके यथासमय अपने शत्रु सिन्धुराज पर विपत्ति आने की प्रतीक्षा करता हुआ पर्वतों की दुर्गम गुफा में विचरता रह, क्योंकि यह सिन्धुराज कोई अजर, अमर तो है नहीं। तेरा नाम तो संजय है, परंतु तुझ में इस नाम के अनुसार गुण मैं नहीं देख रही हूँ। बेटा! युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर, व्यर्थ संजय नाम न धारण कर। जब तू बालक था, उस समय एक उत्तम दृष्टिवाले, परम बुद्धिमानी ब्राह्मण ने तेरे विषय में कहा था कि ‘यह महान संकट में पड़कर भी पुन: वृद्धि को प्राप्त होगा।’ उस ब्राह्मण कि बात को याद करके मैं यह आशा करती हूँ कि तेरी विजय होगी। तात! इसलिए मैं बार-बार तुझसे कहती हूँ और कहती रहूँगी। जिसके प्रयोजन की सिद्धि होने पर उससे संबंध रखने वाले दूसरे लोग भी संतुष्ट एवं उन्नति को प्राप्त होते हैं, नीति मार्ग पर चलकर अर्थसिद्धि के लिए प्रयत्न करने वाले उस पुरुष को निश्चय ही अपने अभीष्ट की सिद्धि होती है।

संजय! युद्ध से हमारे पूर्वजों का अथवा मेरा कोई लाभ हो या हानि, युद्ध करना क्षत्रियों का धर्म है, ऐसा समझकर उसी में मन लगा, युद्ध बंद न कर। जहाँ आज के लिए और कल सबेरे के लिए भी भोजन दिखाई नहीं देता, उससे बढ़कर महान पापपूर्ण कोई दूसरी अवस्था नहीं है, ऐसा शंबरासुर का कथन है। जिसका नाम दरिद्रता है, उसे पति और पुत्र के वध से भी अधिक दु:खदायक बताया गया है। दरिद्रता मृत्यु का समानार्थक शब्द है। मैं उच्चकुल में उत्पन्न हो हंसी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर में आई और इस राज्य की स्वामिनी, समस्त कल्याणमय साधनों से सम्पन्न तथा पतिदेव के परम आदर की पात्र हुई। पूर्वकाल में मेरे सुहृदों ने जब मुझे सगे संबंधियों के बीच बहुमूल्य हार एवं आभूषणों से विभूषित तथा परम सुंदर स्वच्छ वस्त्रों से आच्छादित देखा, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। संजय! अब जिस समय तू मुझे और अपनी पत्नी को चिंता के कारण अत्यंत दुर्बल देखेगा, उस समय तुझे जीवित रहने की इच्छा नहीं होगी। जब सेवा का काम करने वाले दास, भरण-पोषण पाने वाले कुटुंबी, आचार्य, ऋत्विक और पुरोहित जीविका के अभाव में हमें छोड़कर जाने लगेंगे, उस समय उन्हें देखकर तुझे जीवन-धारण का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देगा।[1]

विदुला द्वारा संजय को धर्म का पालन करने के लिये कहना

यदि पहले के समान आज भी मैं तेरे यश कि वृद्धि करने वाले प्रशंसनीय कर्मों को नहीं देखूँगी तो मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी? यदि किसी ब्राह्मण के माँगने पर मैं उसकी अभीष्ट वस्तु के लिए ‘ना’ कह दूँगी तो उसी समय मेरा हृदय विदीर्ण हो जाएगा। आज तक मैंने या मेरे पतिदेव ने किसी ब्राह्मण से ना नहीं की है। हम सदा लोगों के आश्रयदाता रहे हैं, दूसरों के आश्रित कभी नहीं रहे, परंतु अब यदि दूसरे का आश्रय लेकर जीवन धारण करना पड़े तो मैं ऐसे जीवन का परित्याग ही कर दूँगी। बेटा! अपार समुद्र में डूबते हुए हम लोगों को तू पार लगाने वाला हो। नौका विहीन अगाध जलराशि[2] में तू हमारे लिए नौका हो जा। हमारे लिए कोई स्थान नहीं रह गया है, तू स्थान बन जा और हम मृतप्राय हो रहे हैं, तू हमें जीवनदान कर। यदि तुझे जीवन के प्रति अधिक आसक्ति न हो तो तू अपने सभी शत्रुओं को परास्त कर सकता है और यदि इस प्रकार विषादग्रस्त एवं हतोत्साह होकर ऐसी कायरों की सी वृत्ति अपना रहा है तो तुझे इस पापपूर्ण जीविका को त्याग देना चाहिए। एक शत्रु का वध करने से ही शूरवीर पुरुष सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हो जाता है। देवराज इंद्र केवल वृत्रासुर का वध करके ही ‘महेंद्र’ नाम से प्रसिद्ध हो गए। उन्हें रहने के लिए इन्द्र भवन प्राप्त हुआ और वे तीनों लोकों के अधीश्वर हो गए। वीर पुरुष युद्ध में अपना नाम सुनाकर, कवचधारी शत्रुओं को ललकारकर, सेना के अग्रभाग को खदेड़कर अथवा शत्रुपक्ष के किसी श्रेष्ठ पुरुष का वध करके जभी उत्तम युद्ध के द्वारा महान यश को प्राप्त कर लेता है, तभी उसके शत्रु व्यथित होते और उसके सामने मस्तक झुकाते हैं। कायर मनुष्य विवश हो युद्ध में अपने शरीर का त्याग करके युद्धकुशल शूरवीर को सम्पूर्ण मनोरथों की पूर्ति करने वाली अपनी समृद्धियों के द्वारा तृप्त करते हैं। जिसका भयानक रूप से पतन हुआ है, वह राज्य प्राप्त हो जाय या जीवन ही संकट में पड़ जाये, किसी भी दशा में अपने हाथ में आए हुए शत्रु को श्रेष्ठ पुरुष शेष नहीं रहने देते हैं। युद्ध को स्वर्गद्वार के सदृश उत्तम गति अथवा अमृत के सदृश राज्य की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग मानकर तू जलते हुए काठ की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़। राजन! तू युद्ध में शत्रुओं को मार और अपने धर्म का पालन कर।[3]


शत्रुओं का भय बढ़ाने वाले तुझ वीर पुत्र को मैं अत्यंत दीन और कायर के रूप में न देखूँ। मैं तुझे दीन से भी दीन के समान दयनीय अवस्था में पड़ा हुआ तथा शोकमग्न हुए अपने पक्ष के और गर्जन-तर्जन करते हुए शत्रुपक्ष के लोगों से घिरा हुआ नहीं देखना चाहती। तू सौवीर देश की कन्याओं[4] के साथ हर्ष का अनुभव कर। पहले की भाँति अपने धन की अधिकता के लिए गर्व कर। विपत्ति में पड़कर सिंधुदेशीय[5] कन्याओं के वश में न हो जा। तू रूप, यौवन, विद्या और कुलीनता से सम्पन्न है, यशस्वी तथा लोक में विख्यात है। तुझ जैसा वीर पुरुष यदि पराक्रम के अवसर पर डर जाय, भार ढोने के समय बिना नथे हुए बैल के समान बैठा रहे या भाग जाय तो मैं इसे तेरा मरण ही समझती हूँ।[3] यदि मैं यह देखूँ कि तू शत्रु से मीठी-मीठी बातें करता तथा उसके पीछे-पीछे जाता है तो मेरे हृदय में क्या शांति मिलेगी? इस कुल में कभी कोई ऐसा पुरुष नहीं उत्पन्न हुआ, जो दूसरे के पीछे-पीछे चला हो। तात! तू दूसरे का सेवक होकर जीवित रहने के योग्य नहीं है। स्वयं विधाता ने जिसकी सृष्टि की है, प्राचीन और अत्यंत प्राचीन पुरुषों ने जिसका वर्णन किया है, परवर्ती और अतिपरवर्ती सत्पुरुष जिसका वर्णन करेंगे तथा जो चिरंतन एवं अविनाशी है, उस सनातन और उत्तम क्षत्रिय-हृदय को मैं जानती हूँ। इस जगत में जो कोई भी क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है और क्षत्रिय धर्म को जानने वाला है, वह भय से अथवा आजीविका की ओर दृष्टि रखकर भी किसी के सामने नतमस्तक नहीं हो सकता। सदा उद्यम करे, किसी के आगे सिर न झुकावे। उद्यम ही पुरुषार्थ है। असमय में नष्ट भले ही हो जाये, परंतु किसी के आगे नतमस्तक न हो। संजय! महामनस्वी क्षत्रिय मदमत्त हाथी के समान सर्वत्र निर्भय विचरण करे और सदा ब्राह्मणों को तथा धर्म को ही नमस्कार करे। क्षत्रिय ससहाय हो अथवा असहाय, वह अन्य वर्ण के लोगों को काबू में रखता हुआ और समस्त पापियों को दंड देता हुआ जीवनभर वैसा ही उद्यमशील बना रहे।[6]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 134 श्लोक 1-17
  2. महान संकट
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 134 श्लोक 18-33
  4. अपनी पत्नियों
  5. शत्रु देश की
  6. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 134 श्लोक 34-41

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