युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना

महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 72वें अध्याय में 'युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना' की कथा हैं, जो इस प्रकार है[1]-

पाण्डवों तथा अन्य राजाओं का श्रीकृष्ण के पास जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! इधर संजय के चले जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने भीमसेन, अर्जुन, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, विराट, द्रुपद तथा केकयदेशीय महारथियों के पास जाकर कहा- ‘हम लोग शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के पास चलकर उनसे कौरव सभा में जाने के लिये प्रार्थना करें। वे वहाँ जाकर ऐसा प्रयत्न करें, जिससे हमें भीष्‍म, द्रोण, बुद्धिमान बाह्लीक तथा अन्य कुरुव‍ंशियों के साथ रणक्षेत्र में युद्ध न करना पड़े।। यही हमारा पहला ध्‍येय है और यही हमारे लिये परम कल्याण की बात है। राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर भगवान श्रीकृष्‍ण के समीप गये। उस समय शत्रुओं के लिये दु:सह प्रतीत होने वाले वे सभी नरश्रेष्‍ठ सभासद भूपालगण पाण्‍डवों के साथ श्रीकृष्‍ण के नि‍कट उसी प्रकार गये, जैसे देवता इन्द्र के पास जाते हैं।

युधिष्ठिर द्वारा कृष्ण से निवेदन करना

समस्त यदुवं‍शियों में श्रेष्‍ठ दशार्हकुलनन्दन जनार्दन श्रीकृष्‍ण के पास पहुँचकर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा-मित्रवत्सल श्रीकृष्‍ण! मित्रों की सहायता के लिये यही उपयुक्त अवसर आया है। मैं आपके सिवा दूसरे किसी को ऐसा नहीं देखता, जो इस विपत्ति से हम लोगों का उद्धार करे। आप माधव की शरण में आकर हम सब लोग निर्भय हो गये हैं और व्यर्थ ही घमंड दिखाने वाले धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन तथा उसके मन्त्रियों को हम स्वयं युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। शत्रुदमन! जैसे आप वृष्णि वंशियों की सब प्रकार की आपत्तियों से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आपको पाण्‍डवों की भी रक्षा करनी चाहिये। प्रभों! इस महान भय से आप हमारी रक्षा कीजिये। श्री भगवान बोले- महाबाहो! यह मैं आपकी सेवा-के लिये सर्वदा प्रस्तुत हूँ। आप जो कुछ कहना चाहते हों, कहें। भारत! आप जो-जो कहेंगे, वह सब कार्य मैं निश्‍चय ही पूर्ण करूंगा।

युधिष्ठिर का दुख प्रकट करना

युधिष्ठिर ने कहा- श्रीकृष्‍ण! पुत्रों सहित राजा धृतराष्‍ट्र क्या करना चाहते हैं, यह सब तो आपने सुन ही लिया। संजय ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह धृतराष्‍ट्र का ही मत है। संजय धृतराष्‍ट्र का अभिन्नस्वरूप होकर आया था। उसने उन्हीं के मनोभाव को प्रकाशित किया है। दूत संजय ने स्वामी की कही हुई बात को ही दोहराया है क्योंकि यदि वह उसके विपरीत कुछ कहता तो वध के योग्य माना जाता। राजा धृतराष्‍ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है। उनके मन में पाप बस गया है। अत: वे अपने-अनुरूप व्यवहार न करके राज्य दिये बिना ही हमारे साथ संधि का मार्ग ढूंढ़ रहे हैं। प्रभो! हम तो यही समझकर कि धृतराष्‍ट्र अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहेंगे, उन्हीं की आज्ञा से बारह वर्ष वन में रहे और एक वर्ष अज्ञातवास किया। श्रीकृष्‍ण! हमने अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं की है इस बात को हमारे साथ रहने वाले सभी ब्राह्मण जानते हैं। परंतु राजा धृतराष्‍ट्र तो लोभ में डूबे हुए हैं। वे अपने धर्म की ओर नहीं देखते हैं। पुत्रों में आसक्त होकर सदा उन्हीं के अधीन रहने के कारण वे अपने मूर्ख पुत्र दुर्योधन की ही आज्ञा का अनुसरण करते हैं।[1] जनार्दन उनका लोभ इतना बढ़ गया है कि वे दुर्योधन की ही हां-में-हां मिलाते हैं और अपना ही प्रिय कार्य करते हुए हमारे साथ मिथ्‍या व्यवहार कर रहे हैं। जनार्दन! इससे बढ़कर महान दु:ख की बात और क्या हो सकती है कि मैं अपनी माता तथा मित्रों का भी अच्छी तरह भरण-पोषण तक नहीं कर स‍कता। मधुसूदन! यद्यपि काशी, चेदि, पांचाल और मत्स्यदेश के वीर हमारे सहायक हैं और आप हम लोगों के रक्षक और स्वामी हैं आप लोगों की सहायता से हम सारा राज्य ले सकते हैं तथापि मैंने केवल पांच ही गांव मांगे थे। गोविन्द! मैंने धृतराष्‍ट्र से यही कहा था कि तात! आप हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और अन्तिम पांचवां कोई-सा भी गांव जिसे आप देना चाहें, दे दें। इस प्रकार हमारे लिये पांच गांव या नगर दे दें, जिनमें हम पांचों भाई एक साथ मिलकर रह सकें और हमारे कारण भरतवंशियों का नाश न हो। परंतु दुष्‍टात्मा दुर्योधन सब पर अपना ही अधिकार मानकर उन पांच गांवों को भी देने की बात नहीं स्वीकार कर रहा है। इससे बढ़कर कष्‍ट की बात और क्या हो सकती है?[2]

धन के लोभी मनुष्यों का वर्णन

मनुष्‍य उत्तम कुल में जन्म लेकर और वृद्ध होने पर भी यदि दूसरों के धन को लेना चाहता है तो वह लोभ उसकी विचार शक्ति को नष्‍ट कर देता है। विचार शक्ति नष्‍ट होने पर वह उसकी लज्जा को भी नष्‍ट कर देता है और नष्‍ट हुई लज्जा धर्म को नष्‍ट कर देती है। नष्‍ट हुआ धर्म मनुष्‍य की सम्पत्ति का नाश कर देता है और नष्‍ट हुई सम्पत्ति उस मनुष्‍य का विनाश कर देती है, क्योंकि धन का अभाव ही मनुष्‍य का वध है। श्रीकृष्‍ण! धनहीन पुरुष से उसके भाई-बन्धु, सुहृद् और ब्राह्मण लोग भी उसी प्रकार मुंह मोड़ लेते हैं, जैसे पक्षी पुष्‍प और फल से हीन वृक्ष को छोड़कर उड़ जाते हैं। तात! जैसे पतित मनुष्‍य के नि‍कट से लोग दूर भागते हैं और जैसे मृत शरीर से प्राण निकल जाते हैं, उसी प्रकार मेरे कुटुम्बीजन भी जो मुझसे मुंह मोड़ रहे हैं, यही मेरे लिये मरण है। जहाँ आज और कल सबेरे के लिये भोजन नहीं दिखायी देता, उस दरिद्रता से बढ़कर दूसरी कोई दु:खदायिनी अवस्था नहीं हैं यह शम्बर का कथन हैं। धन को उत्तम धर्म का साधक बताया गया है। धन में सब कुछ प्रतिष्ठित है। संसार में धनी मनुष्‍य ही जीवन धारण करते हैं। जो निर्धन हैं, वे तो मरे हुए के ही समान हैं। जो लोग अपने बल में स्थित होकर किसी मनुष्‍य को धन से वंचित कर देते हैं, वे उसके धर्म, अर्थ और काम को तो नष्‍ट करते ही हैं, उस मनुष्‍य को भी नष्‍ट कर देते हैं। इस निर्धन अवस्था को पाकर कितने ही मनुष्‍यों ने मृत्यु का वरण किया है। कुछ लोग गांव छोड़कर दूसरे गांव में जा बसे हैं, कितने ही जंगलों में चले गये हैं और कितने ही मनुष्‍य प्राण देने के लिये घर से निकल पड़े हैं। कितने लोग पागल हो जाते हैं, बहुत-से शत्रुओं के वश में पड़ जाते हैं और कितने ही मनुष्‍य धन के लिये दूसरों की दासता स्वीकार कर लेते हैं। धन-सम्पत्ति का नाश मनुष्‍य के लिये भारी विपत्ति ही है। वह मृत्यु से भी बढ़कर है, क्योंकि सम्पत्ति ही मनुष्‍य के धर्म और काम की सिद्धि का कारण है।[2]

मनुष्‍य की जो धर्मानुकूल मृत्यु है, वह परलोक के लिये सनातन मार्ग है। सम्पूर्ण प्राणियों में से कोई भी उस मृत्यु का सब ओर से उल्लघंन नहीं कर सकता। श्रीकृष्‍ण! जो जन्म से ही निर्धन रहा है, उसे उस दरिद्रता के कारण उतना कष्‍ट नहीं पहुँचता, जितना कि कल्याणमयी सम्पत्ति को पाकर सुख में ही पले हुए पुरुष को उस सम्पत्ति से वंचित होने पर होता है। यद्यपि वह मनुष्‍य उस समय अपने ही अपराध से भारी संकट में पड़ता है, तथापि वह इसके लिये इन्द्र आदि देवताओं की ही निन्दा करता है अपनो को किसी प्रकार दोष का नहीं देता है। उस समय सम्पूर्ण शास्त्र भी उसके इस संकट को टालने-में समर्थ नहीं होते। वह सेवकों पर कुपित होता और सगे-सम्बन्धियों के दोष देखने लगता है। निर्धन अवस्था में मनुष्‍य को केवल क्रोध आता है, जिससे वह पुन: मोहाच्छत्र हो जाता है, विवेक शक्ति खो बैठता है। मोह के वशीभूत होकर वह क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगता हैं। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत्त होने के कारण वह वर्णसंकर संतानों का पोषक होता है और वर्णसंकर केवल नरक की ही प्राप्ति कराता है। पापियों की यही अन्तिम गति है। श्रीकृष्‍ण यदि उसे फिर से कर्तव्य का बोध नहीं होता, तो वह नरक की दिशा में ही बढ़ता जाता है। कर्तव्य का बोध कराने वाली प्रज्ञा ही है। जिसे प्रज्ञा रूपी नेत्र प्राप्त है, वह निश्‍चय ही संकट से पार हो जायेगा। प्रज्ञा की प्राप्ति होने पर पुरुष केवल शास्त्र वचनों पर ही दृष्टि रखता है। शास्त्र में निष्‍ठा होने पर वह पुन: धर्म करता है। धर्म का उत्तम अंग है लज्जा, जो धर्म के साथ ही आ जाती है। लज्जाशील मनुष्‍य पाप से द्वेष रखकर उससे दूर हो जाता है। अत: उसकी धन सम्पत्ति बढ़ने लगती है। जो जितना ही श्रीसम्पन्न है, वह उतना ही पुरुष माना जाता है। सदा धर्म में तत्पर रहने वाला पुरुष शान्तचित्त होकर नित्य-निरन्तर सत्कर्मों में लगा रहता है। वह कभी अधर्म में मन नहीं लगाता और न पाप में ही प्रवृत्त होता है। जो निर्लज्ज अथवा मूर्ख है, वह न तो स्त्री है और न पुरुष ही है। उसका धर्म-कर्म में अधिकार नहीं है। वह शूद्र के समान है। लज्जाशील पुरुष देवताओं की, पितरों की तथा अपनो की भी रक्षा करता है। इससे वह अमृतत्त्व को प्राप्त होता है। वही पुण्‍यात्मा पुरुषों की परम गति है।[3]

युधिष्ठिर द्वारा युद्ध से सम्बधित वार्तालाप

मधुसूदन! यह सब आपने मुझमें प्रत्यक्ष देखा है कि मैं किस प्रकार राज्य से भ्रष्‍ट हुआ और कितने कष्‍ट के साथ इन दिनों रह रहा हूँ। अत: हम लोग किसी भी न्याय से अपनी पैतृक सम्पत्ति-का परित्याग करने योग्य नहीं है। इसके लिये प्रयत्न करते हुए यदि हम लोगों का वध हो जाय तो वह भी अच्छा ही है। माधव! इस विषय में हमारा पहला ध्‍येय यही है कि हम और कौरव आपस में संधि करके शान्तभाव से रहकर उस सम्पत्ति का समानरूप से उपभोग करें। दूसरा पक्ष यह है कि हम कौरवों को मार कर सारा राज्य अपने अधिकार में कर लें परंतु यह भयंकर क्रूरतापूर्ण कर्म की पराकाष्‍ठा होगी क्योंकि इस दशा में कितने ही निर अपराध मनुष्‍यों का संहार करने के पश्‍चात हमारी विजय होगी। श्रीकृष्‍ण! जिनका अपने साथ कोई सम्बन्ध न हो तथा जो सर्वथा नीच एवं शत्रुभाव रखने वाले हों, उनका भी वध करना उचित नहीं है। फिर जो सगे-सम्बन्धी, श्रेष्‍ठ और सुहृद् हैं, ऐसे लोगों का वध कैसे उचित हो सकता है? हमारे विरोधियों में अधिकांश हमारे भाई-बन्धु, सहायक और गुरुजन हैं। उनका वध तो बहुत बड़ा पाप है। युद्ध में अच्छी बात क्या है? कुछ नहीं। क्षत्रियों का यह[4] धर्म पाप रूप ही है। हम भी क्षत्रिय ही हैं, अत: वह हमारा स्वधर्म पाप होने पर भी हमें तो करना ही होगा, क्योंकि उसे छोड़‍कर दूसरी किसी वृत्ति को अपनाना भी निन्दा की बात होगी। शूद्र सेवा का कार्य करता है, वैश्य व्यापार से जीविका चलाते हैं, हम क्षत्रिय युद्ध में दूसरों का वध करके जीवन-निर्वाह करते हैं और ब्राह्मणों ने अपनी जीविका के लिये भिक्षापात्र चुन लिया है। क्षत्रिय क्षत्रिय को मारता है, मछली मछली को खाकर जीती है और कुत्ता कुत्ते को काटता है। दशार्हनन्दन! देखिये; यही परम्परा से चला आने वाला धर्म है। श्रीकृष्‍ण! युद्ध में सदा कलह ही होता है और उसी के कारण प्राणों का नाश होता है। मैं तो नीतिबल का ही आश्रय लेकर युद्ध करूंगा। फिर ईश्वर की इच्छा के अनुसार जय हो या पराजय। प्राणियों के जीवन और मरण अपनी इच्छा के अनुसार नहीं होते हैं। यही दशा जय और पराजय की भी है। यदुश्रेष्‍ठ! किसी को सुख अथवा दु:ख की प्राप्ति भी असमय में नहीं होती है। युद्ध में एक योद्धा भी बहुत-से सैनिकों का संहार कर डालता है तथा बहुत से योद्धा मिलकर भी किसी एक को ही मार पाते हैं। कभी कायर शूरवीर को मार देता है और अयशस्वी पुरुष यशस्वी वीर को पराजित कर देता है। न तो कहीं दोनों पक्षों की विजय होती देखी गयी है और न दोनों की पराजय ही दृष्टिगोचर हुई है। हां, दोनों के धन-वैभव का नाश अवश्‍य देखा गया है। यदि कोई पक्ष पीठ दिखाकर भाग जाये, तो उसे भी धन और जन दोनों की हानि उठानी पड़ती है। इससे सिद्ध होता है कि युद्ध सर्वथा पापरूप ही है। दूसरों को मारने वाला कौन ऐसा पुरुष है, जो बदले में स्वयं भी मारा न जाता हो? हृषीकेश! जो युद्ध में मारा गया, उसके लिये तो विजय और पराजय दोनों समान हैं।

श्रीकृष्‍ण! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि पराजय मृत्यु से अच्छी वस्तु नहीं है। जिसकी विजय होती है, उसे भी निश्‍चय ही धन-जन की भारी हानि उठानी पड़ती है। युद्ध समाप्त होने तक कितने ही‍ विपक्षी सैनिक विजयी योद्धा के अनेक प्रियजनों को मार डालते हैं। जो विजय पाता है, वह भी कुटुम्ब और धन सम्बन्धी बल से शून्य हो जाता है। और कृष्‍ण! जब वह युद्ध में मारे गये अपने पुत्रों और भाइयों को नहीं देखता है, तो वह सब ओर से विर‍क्त हो जाता है; उसे अपने जीवन से भी वैराग्य हो जाता है। जो लोग धीर-वीर, लज्जाशील, श्रेष्‍ठ और दयालु हैं, वे ही प्राय: युद्ध में मारे जाते हैं और अधम श्रेणी के मनुष्‍य जीवित बच जाते हैं। जनार्दन! शत्रुओं को मारने पर भी उनके लिये सदा मन में पश्‍चात्ताप बना रहता है।[5] भागे हुए शत्रु का पीछा करना अनुबन्ध कहलाता है, यह भी पापपूर्ण कार्य है। मारे जाने वाले शत्रुओं में से कोई-कोई बचा रह जाता है। वह अवशिष्‍ट शत्रु शक्ति का संचय करके विजेता के पक्ष में जो लोग बचे हैं, उनमें से किसी को जीवित नहीं छोडना चाहता। वह शत्रु का अन्त कर डालने की इच्छा से विरोधी दल को सम्पूर्ण रूप से नष्‍ट कर देने का प्रयत्न करता है।

विजय की प्राप्ति भी चिरस्थायी शत्रुता की सृष्टि करती है। पराजित पक्ष बड़े दु:ख से समय बिताता है। जो किसी से शत्रुता न रखकर शान्ति का आश्रय लेता है, वह जय-पराजय की चिन्ता छोड़कर सुख से सोता है। किसी से वैर बांधने वाला पुरुष सर्वयुक्त गृह में रहने वाले की भाँति उद्विग्नचित्त होकर सदा दु:ख की नींद सोता है। जो शत्रु के कुल में आबालवृद्ध सभी पुरुषों का उच्छेद कर डालता है, वह वीरोचति यश से वंचित हो जाता है। वह समस्त प्राणियों में सदा बनी रहने वाली अपकीर्ति[6] का भागी होता है। दीर्घकाल तक मन में दबाये रखने पर भी वैर की आग सर्वथा बुझ नहीं पाती क्योंकि यदि कोई उस कुल में विद्यमान है, तो उससे पूर्व घटित वैर बढा़ने वाली घटनाओं को बताने वाले बहुत-से लोग मिल जाते हैं। केशव! जैसे घी डालने पर आग बुझने के बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वैर करने से वैर की आग शान्त नहीं होती, अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। क्योंकि दोनों पक्षों में सदा कोई-न-कोई छिद्र मिलने की सम्भावना रहती है इसलिये दोनों पक्षों मे से एक का सर्वथा नाश हुए बिना पूर्णत: शान्ति प्राप्त नहीं होती है। जो लोग छिद्र ढूढ़ते रहते हैं, उनके सामने यह दोष निरन्तर प्रस्तुत रहता है। यदि अपने में पुरुषार्थ है, तो पूर्व वैर को याद करके जो हृदय को पीड़ा देने वाली प्रबल चिन्ता सदा बनी रहती है, उसे वैराग्यपूर्वक त्याग देने से ही शान्ति मिल सकती है अथवा मर जाने से ही उस चिन्ता का निवारण हो सकता है। अथवा शत्रुओं को समूल नष्‍ट कर देने से ही अभीष्‍ट फल की सिद्धि हो सकती है। परंतु मधुसूदन! यह बड़ी क्रूरता का कार्य होगा। राज्य को त्याग देने से उसके बिना जो शान्ति मिलती है, वह भी वध के ही समान है। क्योंकि उस दशा में शत्रुओं से सदा यह संदेह बना रहता है कि ये अवसर देखकर प्रहार करेंगे और धन-सम्पत्ति से वंचित होने के कारण अपने विनाश की सम्भावना भी रहती ही है।

अत: हम लोग न तो राज्य त्यागना चाहते हैं और न कुल के विनाश की ही इच्छा रखते हैं। यदि नम्रता दिखाने से भी शान्ति हो जायेतो वही सबसे बढ़कर है। यद्यपि हम युद्ध की इच्छा न रखकर साम, दान और भेद सभी उपायों से राज्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न कर रहे हैं, तथापि यदि हमारी सामनीति असफल हुई तो युद्ध ही हमारा प्रधान कर्तव्य होगा हम पराक्रम छोड़कर बैठ नहीं सकते। जब शान्ति के प्रयत्नों में बाधा आती है, तब भयंकर युद्ध स्वत: आरम्भ हो जाता है। पण्डितों ने इस युद्ध की उपमा कुत्तों के कलह से दी है। कुत्ते पहले पूंछ हिलाते हैं, फिर गुर्राते और गर्जते हैं। तत्पशचात एक-दूसरे के निकट पहुँचते हैं। फिर दांत दिखाना और भूँकना आरम्भ करते हैं। तत्पश्‍चात उनमें युद्ध होने लगता है।[7] श्रीकृष्‍ण! उनमें जो बलवान होता है, वही उस मांस को खाता है, जिसके लिये कि उनमें लड़ाई हुई थी। यही दशा मनुष्‍यों की है। इनमें कोई विशेषता नहीं है[8]यह सर्वथा उचित है कि बलवानों की दुर्बलों के प्रति आदर बुद्धि न हो। वे उसका विरोध भी नहीं करते। दुर्बल वही है, जो सदा झुकने के लिये तैयार रहे। जनार्दन! पिता, राजा और वृद्ध सर्वथा समादर के ही योग्य हैं। अत: धृतराष्‍ट्र हमारे लिये सदा माननीय एवं पूजनीय हैं। माधव! धृतराष्‍ट्र में अपने पुत्र के प्रति प्रबल आसक्ति है। वे पुत्र के वश में होने के कारण कभी झुकना नहीं स्वीकार करेंगे। माधव श्रीकृष्‍ण! ऐसे समय में आप क्या उचित समझते हैं? हम कैसा बर्ताव करें, जिससे हमें अर्थ और धर्म से भी वंचित न होना पड़े? पुरुषोत्तम मधुसूदन! ऐसे महान संकट के समय हम आपको छोड़कर और किससे सलाह ले सकते हैं। श्रीकृष्‍ण! आपके समान हमारा प्रिय, हितैषी, समस्त कर्मों के परिणाम को जानने वाला और सभी बातों में एक निश्चित सिद्धान्त रखने वाला सुहृद् कौन है?[9]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 1-11
  2. 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 12-27
  3. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 28-43
  4. युद्ध रूप
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 44-57
  6. निन्दा
  7. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 58-71
  8. कुत्तों के दुम हिलाने के समान राजाओं का ध्‍वज-कम्पन है, उनके गुर्राने की जगह उनका सिंहनाद है। कुत्ते जो एक-दूसरे को देखकर गर्जते हैं, उसी प्रकार दो विरोधी क्षत्रिय एक-दूसरे के प्रति उत्तर-प्रत्युत्तर के रूप में आक्षेप जनक बातें कहते हैं। एक-दूसरे के निकट जाना दोनों में समानरूप से होता है। राजा लोग क्रोध में आकर जो दांतों से होठ चबाते हैं, यही कुत्तों के समान उनका दांत दिखाना है। निकट गर्जन-तर्जन भूँकना है और युद्ध करना ही कुत्तों के समान लड़ना है। राज्य की प्राप्ति ही वह मांस का टुकड़ा है, जिसके लिये उनमें लड़ाई होती है।
  9. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 72-87

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संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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