- कर्ण श्रीकृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन करने के बाद चले जाते है और कृष्ण भी उपप्लव्य नगर की ओर चल दिये, अब विदुरजी कुन्ती के पास जाते हैं और उन्हें समझाते हैं कि कुन्ती तुम तो जानती ही हो कि इस युद्ध से कितने भावी दुष्परिणाम होंगे और मेरी तो सदा से यही इच्छा रही है कि कौरवों और पाण्डवों में युद्ध न हो यह सुनकर कुन्ती बहुत सोच-विचार के बाद कर्ण के पास जाती है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 144वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
विदुर द्वारा कुंती को युद्ध के दुष्परिणामो का वर्णन करना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जब श्रीकृष्ण का अनुभव असफल हो गया और वे कौरवों के यहाँ से पाण्डवों के पास चले गये, तब विदुरजी कुन्ती के पास जाकर शोकमग्न से हो धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- चिरंजीवी पुत्रों को जन्म देने वाली देवि! तुम तो जानती ही हो कि मेरी इच्छा सदा से यही रही है कि कौरवों और पाण्डवों में युद्ध न हो। इसके लिये मैं पुकार-पुकार कर कहता रह गया परंतु दुर्योधन मेरी बात मानता ही नहीं है। राजा युधिष्ठिर चेदि, पांचाल तथा केकयदेश के वीर सैनिकगण, भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा नकुल-सहदेव आदि श्रेष्ठ सहायकों से सम्पन्न हैं। वे युद्ध के लिये उद्यत हो उपप्लव्य नगर में छावनी डालकर बैठे हुए हैं, तथापि भाई-बन्धुओं के सौहार्दवश धर्म की ही आकांक्षा रखते हैं। बलवान होकर भी दुर्बल की भाँति संधि करना चाहते हैं। यह राजा धृतराष्ट्र बूढ़े हो जाने पर भी शान्त नहीं हो रहे हैं। पुत्रों के मद से उन्मत्त हो अधर्म के मार्ग पर ही चलते हैं। जयद्रथ, कर्ण, दु:शासन तथा शकुनि की खोटी बुद्धि से कौरव-पाण्डवों में परस्पर फूट ही रहेगी। कौरवों ने चौदहवें वर्ष में पाण्डवों को राज्य लौटा देने की प्रतिज्ञा करके भी उसका पालन नहीं किया। जिन्हें ऐसा अधर्मजनित कार्य भी, जो परस्पर बिगाड़ करने वाला है, धर्मसंगत प्रतीत होता है, उनका यह विकृत धर्म सफल होकर ही रहेगा अधर्म का फल है दु:ख और विनाश। वह उन्हें प्राप्त होगा ही। कौरवों द्वारा धर्म मानकर किये जाने वाले इस बलात्कार से किसको चिन्ता नहीं होगी। भगवान श्रीकृष्ण संधि के प्रयत्न में असफल होकर गये हैं अत: पाण्डव भी अब युद्ध के लिये महान उद्योग करेंगे। इस प्रकार यह कौरवों का अन्याय समस्त वीरों का विनाश करने वाला होगा इन सब बातों को सोचते हुए मुझे न तो दिन में नींद आती है और न रात में ही।
विदुरजी ने उभय पक्ष के हित की इच्छा से ही यह बात कही थी। इसे सुनकर कुन्ती दु:ख से आतुर हो उठी और लम्बी साँस खींचती हुई मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगी- अहो! इस धन को धिक्कार है, जिसके लिये परस्पर बन्धु-बान्धवों का यह महान संहार किया जाने वाला है। इस युद्ध में अपने सगे-सम्बन्धियों का भी पराभव होगा ही। पाण्डव, चेदि, पांचाल और चादव एकत्र होकर भरतवंशियों के साथ युद्ध करेंगे, इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या हो सकती है। युद्ध में निश्चय ही मुझे बड़ा भारी दोष दिखायी देता है परंतु युद्ध न होने पर भी पाण्डवों का पराभव स्पष्ट है। निर्धन होकर मृत्यु को वरण कर लेना अच्छा है। परंतु बन्धु-बान्धवों का विनाश करके विजय पाना कदापि अच्छा नहीं है। 'यह सब सोचकर मेरे हृदय में बडा दु:ख हो रहा है। शान्तनुनन्दन पितामह भीष्म, योद्धाओं में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण तथा कर्ण भी दुर्योधन के लिये ही युद्ध भूमि में उतरेंगे अत: ये मेरे भय की ही वृद्धि कर रहे हैं। आचार्य द्रोण तो सदा हमारे हित की इच्छा रखने वाले हैं वे अपने शिष्यों के साथ कभी युद्ध नहीं कर सकते। इसी प्रकार पितामह भीष्म भी पाण्डवों के प्रति हार्दिक स्नेह कैसे नहीं रखेंगे?[1]
कुंती का कर्ण के पास जाने का निश्चय करना
परंतु यह एक मात्र मिथ्यादर्शी कर्ण मोहवश सदा दुर्बुद्धि दुर्योधन का ही अनुसरण करने वाला है। इसीलिये यह पापात्मा सर्वदा पाण्डवों से द्वेष ही रखता है। इसने सदा पाण्डवों का बडा भारी अनर्थ करने के लिये हठ ठान लिया है। साथ ही कर्ण अत्यन्त बलवान भी है। यह बात इस समय मेरे हृदय को दग्ध किये देती है। अच्छा, आज मैं कर्ण के मन को पाण्डवों के प्रति प्रसन्न करने के लिये उसके पास जाऊँगी और यथार्थ सम्बन्ध परिचय देती हुई उससे बातचीत करूँगी। जब मैं पिता के घर रहती थी, उन्हीं दिनों अपनी सेवाओं द्वारा मैंने भगवान दुर्वासा को संतुष्ट किया और उन्होंने मुझे यह वर दिया कि मन्त्रोच्चारणपूर्वक आवाहन करने पर मैं किसी भी देवता को अपने पास बुला सकती हूँ। मेरे पिता कुन्तिभोज मेरा बड़ा आदर करते थे। मैं राजा के अन्त:पुर में रहकर व्यथित हृदय मन्त्रों के बलाबल और ब्राह्मण की वाक्शक्ति के विषय में अनेक प्रकार का विचार करने लगी। स्त्री-स्वभाव और वाल्यावस्था के कारण मैं बार-बार इस प्रश्न को लेकर चिन्तामग्न रहने लगी। उन दिनों एक विश्वस्त धाय मेरी रक्षा करती थी और सखियाँ मुझे सदा घेरे रहती थी। मैं अपने ऊपर आने वाले सब प्रकार के दोषों का निवारण करती हुई पिता की दृष्टि में अपने सदाचार की रक्षा करती रहती थी। मैंने सोचा, क्या करूँ, जिससे मुझे पुण्य हो और मैं अपराधिनी न होऊँ। यह सोचकर मैंने मन-ही-मन उन ब्राह्मण देवता को नमस्कार किया और उस मन्त्र को पाकर कौतूहल तथा अविवेक के कारण मैंने उसका प्रयोग आरम्भ कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि कन्यावस्था में ही मुझे भगवान सूर्यदेव का संयोग प्राप्त हुआ। जो मेरा कानीन गर्भ है, इसे मैंने पुत्र की भाँति अपने उदर में पाला है। वह कर्ण अपने भाईयों के हित के लिये कही हुई बात मेरी लाभदायक बात क्यों नहीं मानेगा।[2]
कुंती का कर्ण के पास जाना
इस प्रकार उत्तम कर्तव्य का निश्चय करके अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिये एक निर्णय पर पहुँच कर कुन्ती भागीरथी गंगा के तट पर गयी। वहाँ गंगा किनारे पहुँचकर कुन्ती अपने दयालु और सत्यपरायण पुत्र कर्ण के मुख से वेदपाठ की गम्भीर ध्वनि सुनी। वह अपनी दोनों वाँहे ऊपर उठाकर पूर्वाभिमुख हो जप कर रहा था और तपस्विनी कुन्ती उसके जप की समाप्ति की प्रतीक्षा करती हुई कार्यवश उसके पीछे की ओर खड़ी रही। व्रष्णिकुलनन्दिनी पाण्डुपत्नी कुन्ती वहाँ सूर्यदेव के ताप से पीड़ित हो कुम्हलाती हुई कमलमाला के समान कर्ण के उत्तरीय वस्त्र की छाया में खड़ी हो गयी। जब तक सूर्यदेव पीठ की ओर ताप न देने लगे (जब तक वे पूर्व से पश्चिम की ओर चले नहीं गये) तब तक जप करके नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाला कर्ण जब पीछे की ओर घूमा, तब कुन्ती को सामने पाकर उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनके पास खड़ा हो गया।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 144 श्लोक 1-15
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 144 श्लोक 16-31
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| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
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| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
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| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
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| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
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