- श्रीकृष्ण कौरवों सभा में होने वाली घटनाओं का युधिष्ठिर के समक्ष वर्णन करते हुए कहते हैं कि भीष्म, द्रोण, विदुर, गांधारी तथा धृतराष्ट्र के समझाने पर भी वह मूर्ख दुर्योधन उन सभी के वचनों की अवहेलना कर सभा से चला गया और फिर कृष्ण साम, दान, भेदनीति का प्रयोग करते हैं पर उसके असफल होने पर वह पांडवों को दण्डनीति अर्थात युद्ध का मार्ग बताते हैं। युधिष्ठिर कृष्ण की बात सुनकर पांडव पक्ष के सेनापति के चुनाव हेतु सबका परामर्श लेते हैं और कृष्ण के कहने पर धृष्टद्युम्न को सेनापति नियुक्त करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में सैन्यनिर्याण पर्व के अंतर्गत अध्याय 151 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
पाण्डव पक्ष के सेनापति हेतु नकुल व सहदेव का परामर्श
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर धर्म में ही मन लगाये रखने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान के सामने ही अपने भाइयों से कहा- कौरवसभा में जो कुछ हुआ है वह सब वृतान्त तुम लोगों ने सुन लिया। फिर भगवान श्रीकृष्ण ने भी जो बात कही है, उसे भी अच्छी तरह समझ लिया होगा। अत: नरश्रेष्ठ वीरो! अब तुम लोग भी अपनी सेना का विभाग करो। ये सात अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हो गयी हैं, जो अवश्य ही हमारी विजय कराने वाली होंगी। इन सातों अक्षौहिणियों के सात विख्यात सेनापति हैं, उनके नाम बताता हूँ, सुनो। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सात्यकि, चेकितान और पराक्रमी भीमसेन। ये सभी वीर हमारे लिये अपने शरीर का भी त्याग कर देने को उद्यत हैं; अत: ये ही पांडव सेना के संचालक होने योग्य हैं। ये सब-के-सब वेदवेत्ता, शूरवीर, उत्तम व्रत का पालन करने वाले, लज्जशील, नीतिज्ञ और युद्धकुशल हैं। इन सब ने धनुर्वेद में निपुणता प्राप्त की है तथा ये सब प्रकार के अस्त्रों द्वारा युद्ध करने में समर्थ हैं। अब यह विचार करना चाहिये कि इन सातों का भी नेता कौन हो, जो सभी सेना-विभागों को अच्छी तरह जानता हो तथा युद्ध में बाणरूपी ज्वालाओं से प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी भीष्म का आक्रमण सह सकता हो। पुरुषसिंह कुरुनन्दन सहदेव! पहले तुम अपना विचार प्रकट करो। हमारा प्रधान सेनापति होने योग्य कौन है। सहदेव बोले- जो हमारे सम्बन्धी हैं, दु:ख में हमारे साथ एक होकर रहने वाले और पराक्रमी भूपाल हैं, जिन धर्मज्ञ वीर का आश्रय लेकर हम अपना राज्यभाग प्राप्त कर सकते हैं तथा जो बलवान, अस्त्रविद्या में निपुण और युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले हैं, वे मत्स्यनरेश विराट संग्रामभूमि में भीष्म तथा अन्य महारथियों का सामना अच्छी तरह सहन कर सकेंगे।
वैशम्पयानजी कहते हैं- जनमेजय! सहदेव के इस प्रकार कहने पर प्रवचन कुशल नकुल ने उनके बाद यह बात कही- जो अवस्था, शास्त्रज्ञान, धैर्य कुल और स्वजन समूह सभी दृष्टियों से बड़े हैं, जिनमें लज्जा, बल और श्री तीनों विद्यमान हैं, जो समस्त शास्त्रों के ज्ञान में प्रवीण हैं, जिन्हें महर्षि भरद्वाज से अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त हुई है, जो सत्यप्रतिज्ञ एवं दुर्धर्ष योद्धा हैं, महाबली भीष्म और द्रोणाचार्य से सदा स्पर्धा रखते हैं, जो समस्त राजाओं के समूह की प्रशंसा के पात्र हैं और युद्ध के मुहाने पर खडे़ हो समस्त सेनाओं की रक्षा करने में समर्थ हैं, बहुत-से पुत्र पौत्रों द्वारा घिरे रहने के कारण जिनकी सैकड़ों शाखाओं से सम्पन्न वृक्ष की भाँति शोभा होती है, जिन महाराज ने रोषपूर्वक द्रोणाचार्य के विनाश के लिये पत्नी सहित घोर तपस्या की है, जो संग्रामभूमि में सुशोभित होने वाले शूरवीर हैं और हम लोग पर सदा ही पिता के समान स्नेह रखते हैं वे हमारे श्वसुर भूपालशिरोमणि द्रुपद हमारी सेना के प्रमुख भाग का संचालन करें। मेरे विचार से राजा द्रुपद ही युद्ध के लिये सम्मुख आये हुए द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह का सामना कर सकते हैं; क्योंकि वे दिव्याशास्त्रों के ज्ञाता और द्रोणाचार्य के सखा हैं।[1]
अर्जुन व भीष्म द्वारा अपना परामर्श देना
माद्रीकुमारों के इस प्रकार अपना विचार प्रकट करने पर कुरुकुल को आनन्दित करने वाले इन्द्र के समान पराक्रमी, इन्द्रपुरुष सव्यसाची अर्जुन ने इस प्रकार कहा- जो अग्नि की ज्वाला के समान कान्तिमान महाबाहु वीर अपने पिता की तपस्या के प्रभाव से तथा महर्षियों के कृपाप्रसाद से उत्पन्न हुआ दिव्य पुरुष है, जो अग्निकुण्ड से कवच, धनुष और खड्ग धारण किये प्रकट हुआ और तत्काल ही दिव्य एवं उत्तम अश्वों से जुते हुए रथ पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये सुसज्जित देखा गया था, जो पराक्रमी वीर अपने रथ की घरघराहट से गर्जते हुए महामेघ के समान जान पड़ता है, जिसके शरीर की गठन, पराक्रम, हृदय, वक्ष:स्थल, बाहु, कंधे और गर्जना- ये सभी सिंह के समान हैं, जो महाबली, महातेजस्वी और महान वीर है, जिसकी भौंहें, दन्तपंक्ति, ठोड़ी, भुजाएं और मुख बहुत सुन्दर हैं, जो सर्वथा हृष्ट-पुष्ट हैं, जिसके गले की हँसुली सुन्दर दिखायी देती है, जिसका किसी भी अस्त्र-शस्त्र से भेद नहीं हो सकता, जो मद की धारा बहाने वाले गजराज के सदृश पराक्रमी वीर द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये उत्पन्न हुआ है तथा जो सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय है, उस धृष्टद्युम्न को ही मैं प्रधान सेनापति बनाने के योग्य मानता हूँ। पितामह भीष्म के बाण प्रज्वलित मुख वाले सर्पों के समान भयंकर हैं, उनका स्पर्श वज्र और अशनि के समान दु:सह है, वीर धृष्टद्युम्न ही उन बाणों का आघात सह सकता है। पितामह भीष्म के बाण आघात करने में अग्नि के सामान तेजस्वी एवं यमदूतों के समान प्राणों का हरण करने वाले हैं। वज्र की गड़गड़ाहट के समान गम्भीर शब्द करने वाले उन बाणों का पहले युद्ध में परशुराम जी ने ही सहा था। राजन! मैं धृष्टद्युम्न के सिवा ऐसे किसी पुरुष को नहीं देखता, जो महान व्रतधारी भीष्म का वेग सह सके। मेरा तो यही निश्चय है। जो शीघ्रतापूर्वक हस्तसंचालन करने वाला, विचित्र पद्धति से युद्ध करने में कुशल, अभेद्य कवच ये सम्पन्न एवं यूथपति गजराज की भाँति सुशोभित होने वाला है, मेरी सम्मति में वह श्रीमान धृष्टद्युम्न ही सेनापति होने के योग्य हैं।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर भीमसेन ने अपना विचार इस प्रकार प्रकट किया। भीमसेन ने कहा- राजेन्द्र! द्रुपदकुमार शिखण्डी पितामह भीष्म का वध करने के लिये ही उत्पन्न हुआ है। यह बात यहाँ पधारे हुए सिद्धों एवं महर्षियों ने बतायी है! संग्रामभूमि में जब वह अपना दिव्यास्त्र प्रकट करता है, उस समय लोगों को उसका स्वरूप महात्मा परशुराम के समान दिखायी देता है। मैं ऐेसे किसी वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में शिखण्डी को मार सके। राजन! जब महाव्रती भीष्म रथ पर बैठकर अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो सामने आयेंगे, उस समय द्वैरथ युद्ध में शूरवीर शिखण्डी के सिवा दूसरा कोई योद्धा उन्हें नहीं मार सकता। अत: मेरे मत में वही प्रधान सेनापति होने के योग्य है।[2]
श्रीकृष्ण के कहने पर धृष्टद्युम्न को पांडव पक्ष का सेनापति बनाना
युधिष्ठिर बोले- तात! धर्मात्मा भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत के समस्त सारासार और बलाबल को जानते हैं तथा इस विषय में इन सब राजाओं का क्या मत है इससे भी ये पूर्ण परिचित हैं। अत: दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण जिसका नाम बतावें, वही हमारी सेना का प्रधान सेनापति हो। फिर वह अस्त्र विधा में निपुण हो या न हो, वृद्ध हो या युवा हो इसकी चिन्ता अपने लोगों को नहीं करनी चाहिए। तात! वे भगवान ही हमारी विजय अथवा पराजय के मूल कारण हैं। हमारे प्राण, राज्य, भाव, अभाव तथा सुख और दुख इन्हीं पर अवलम्बित हैं। यही सबके कर्ता-धर्ता हैं। हमारे समस्त कार्यों की सिद्धि इन्हीं पर निर्भर करती है। अत: भगवान श्रीकृष्ण जिसके लिये प्रस्ताव करें, वही हमारी विशाल वाहिनी का प्रधान अधिनायक हो।[2] अत: वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण अपना विचार प्रकट करें। इस समय रात्रि है। हम अभी सेनापति का निर्वाचन करके रात बीतने पर अस्त्र-शस्त्रों का अधिवासन[3], कौतूक[4] आदि तथा मंगलकृत्य[5] करने के अनन्तर श्रीकृष्ण के अधीन हो समरांगण की यात्रा करेंगे।
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन! बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की ओर देखते हुए कहा- महाराज! आप लोगों ने जिन-जिन वीरों के नाम लिये हैं, ये सभी मेरी राय में भी सेनापति होने के योग्य हैं; क्योंकि वे सभी बड़े पराक्रमी योद्धा हैं। आपके शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति इन सबमें विद्यमान है। ये महान संग्राम में इन्द्र के मन में भी भय उत्पन्न कर सकते हैं। फिर पापात्मा और लोभी धृतराष्ट्र पुत्रों की तो बात ही क्या है। महाबाहु भरतनन्दन! मैंने भी महान युद्ध की सम्भावना देखकर तुम्हारा प्रिय करने के लिये शान्ति-स्थापना के निमित्त उऋण हो गये हैं। दूसरों के दोष बताने वाले लोग भी अब हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं कर सकते। धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन युद्ध के लिये आतुर हो रहा है। वह मूर्ख और अयोग्य होकर भी अपने को अस्त्रविद्या में पारंगत मानता है और दुर्बल होकर भी अपने को बलवान समझता है। अत: आप अपनी सेना को युद्ध के लिये अच्छी तरह से सुसज्जित कीजिये; क्योंकि मेरे मत में वे शत्रुवध से ही वशीभूत हो सकते हैं। वीर अर्जुन, क्रोध में भरे हुए भीमसेन, यमराज के समान नकुल-सहदेव, सात्यकि सहित अमर्षशील धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, विराट, द्रुपद तथा अक्षौहिणी सेनाओं के अधिपति अन्यान्य भयंकर पराक्रमी नरेशों को युद्ध के लिये उद्यत देखकर धृतराष्ट्र के पुत्र रणभूमि में टिक नहीं सकेंगे। हमारी सेना अत्यन्त श्क्तिशाली, दुर्धर्ष और दुर्गम है। वह युद्ध में धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना का संहार कर डालेगी, इसमें संशय नहीं है। शत्रुदमन! मैं धृष्टद्युम्न को ही प्रधान सेनापति होने योग्य मानता हूँ।[6]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 151 श्लोक 1-18
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 151 श्लोक 19-36
- ↑ गन्ध आदि उपचारों द्वारा पूजन
- ↑ रक्षाबन्धन
- ↑ स्वस्तिवाचन आदि
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 151 श्लोक 37-58
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| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना
| कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन
| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
| कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
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| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
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| कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश
| कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण
| कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण
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| कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना
| मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना
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| नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन
| मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय
| नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव
| विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह
| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
| दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना
| नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन
| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
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| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
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| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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