- अम्बा का शाल्ब द्वारा परित्याग करने पर वह दु:खी हो जाती हैं और सोचने लगती हैं कि यह सब भीष्म के कारण हुआ है। इसके बाद वह महात्माओं के आश्रम पर जाती हैं और वहाँ शैखावत्य नामक ब्राह्मण से संवाद करती हैं और उनसे कहती हैं कि 'तपस्वी महात्माओ! अब मैं अपने स्वजनों के यहाँ फिर नहीं लौट सकती क्योंकि राजा शाल्व ने मेरा त्याग कर दिया है, इससे मेरा सारा जीवन दु:खमय हो गया है। निष्पाप तापसगण! मैं चाहती हूँ कि आप मुझे तपस्या का उपदेश दे दें', जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में अम्बोपाख्यान पर्व के अंतर्गत 175वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
अम्बा का प्रतिशोध
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! नगर से निकलते समय वह दु:खिनी नारी इस प्रकार चिन्ता करने लगी- ‘इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी युवती नहीं होगी, जो मेरे समान भारी संकट में पड़ गयी हो। भाई-बन्धुओं से तो दूर हो ही गयी हूँ। राजा शाल्व ने भी मुझे त्याग दिया हैं। अब मैं हस्तिनापुर में भी नहीं जा सकती। ‘क्योंकि शाल्व के अनुराग का कारण बताकर मैंने भीष्म से यहाँ आने की आज्ञा ली थी। अब मैं अपनी ही निन्दा करूं या उस दुर्जय वीर भीष्म को कोसूं? ‘अथवा अपने मूढ़ पिता को दोष दूं, जिन्होंने मेरा स्वयंवर किया। मेरे द्वारा सबसे बड़ा दोष यह हुआ है कि पूर्वकाल में जिस समय वह भयंकर युद्ध चल रहा था, उसी समय मैं शाल्व के लिये भीष्म के रथ से कूद नहीं सकी। ‘उसी का यह फल प्राप्त हुआ है कि मैं एक मूर्ख स्त्री की भाँति भारी आपत्ति में पड़ गयी हूँ। भीष्म को धिक्कार है, विवेकशून्य हृदय वाले मेरे मन्दबुद्धि पिता को भी धिक्कार है, जिन्होंने पराक्रम का शुल्क नियत करके मुझे बाजारू स्त्री की भाँति जनसमूह में निकलने की आज्ञा दी। ‘मुझे धिक्कार है, शाल्वराज को धिक्कार है और विधाता को भी धिक्कार है, जिनकी दुनीतियों से में इस भारी विपत्ति में फंस गयी हुं। ‘मनुष्य सर्वथा वही पाता है जो उसके भाग्य में होता है। मुझ पर जो यह अन्याय हुआ है, उसका मुख्य कारण शान्तनुनन्दन भीष्म हैं। ‘अत: इस समय तपस्या अथवा युद्ध के द्वारा भीष्म से ही बदला लेना मुझे उचित दिखायी देता है क्योंकि मेरे दु:ख के प्रधान कारण वे ही हैं। ‘परंतु कौन ऐसा राजा है जो युद्ध के द्वारा भीष्म को परास्त कर सके।’ ऐसा निश्चय करके वह नगर से बाहर चली गयी।
अम्बा और शैखावत्य संवाद
उसने पुण्यशील तपस्वी महात्माओं के आश्रम पर जाकर वहीं वह रात बितायी। उस आश्रम में तपस्वी लोगों ने सब ओर से घेरकर उसकी रक्षा की थी। महाबाहु भरतनन्दन! पवित्र मुस्कान वाली अम्बा ने अपने ऊपर बीता हुआ सारा वृत्तान्त विस्तार पूर्वक उन महात्माओं से बताया। कि किस प्रकार उसका अपहरण हुआ? कैसे भीष्म से छुटकारा मिला? और फिर किस प्रकार शाल्व ने उसे त्याग दिया, ये सारी बातें उसने कह सुनायीं। उस आश्रम में कठोर व्रत का पालन करने वाले शैखावत्य नाम से प्रसिद्ध एक तपोवृद्ध श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शास्त्र और आरण्यक आदि की शिक्षा देने वाले सद्गुरु थे। महातपस्वी शैखावत्य मुनि ने वहाँ सिसकती हुई उस दु:ख शोक परायणा समी साध्वी आर्त अबला से कहा- ‘भद्रे! महाभागे! ऐसी दशा में इस आश्रम में निवास करने वाले तप:परायण तपोधन महात्मा तुम्हारा क्या सहयोग कर सकते हैं? राजन! तब अम्बा ने उनसे कहा- ‘भगवान! मुझ पर अनुग्रह कीजिये। मैं संन्यासियों जैसा धर्म पालन करना चाहती हूँ। यहाँ रहकर दुष्कर तपस्या करूंगी। ‘मुझ मूढ़ नारी ने अपने पुर्व जन्म के शरीर से जो पापकर्म किये थे, अवश्य ही उन्हीं का यह दु:खदायक फल प्राप्त हुआ है। ‘तपस्वी महात्माओ! अब मैं अपने स्वजनों के यहाँ फिर नहीं लौट सकती क्योंकि राजा शाल्व ने मुझे कोरा उत्तर देकर त्याग दिया है, उससे मेरा सारा जीवन आनन्दशून्य (दु:खमय) हो गया है। ‘निष्पाप तापसगण! मैं चाहती हूँ कि आप देवोपम साधुपुरुष मुझे तपस्या का उपदेश दें, मुझ पर आप लोगों की कृपा हो।' तब शैखावत्य मुनि ने लौकिक दृष्टान्तो, शास्त्रीय वचनों तथा युक्तियों द्वारा उस कन्या को आश्र्वासन देकर धैर्य बंधाया और ब्राह्मणों के साथ मिलकर उसके कार्य-साधन के लिये प्रयत्न करने की प्रतिज्ञा की।
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
| कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
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| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
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| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
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| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
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| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
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| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
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| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
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| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
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रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
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| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
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| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
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| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
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| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
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