- कर्ण द्वारा कुंती के चारों पुत्रों को छोड़कर केवल अर्जुन के साथ ही युद्ध करने की प्रतिज्ञा, सुनकर कुंती पुत्र कर्ण को हृदय से लगाकर दु:ख से काँपती हुई बोली- कर्ण तुम बहुत बलवान है। तुम जैसा कहते हो वैसा ही हो।, अब श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को कौरवसभा में भीष्म द्वारा दुर्योंधन को समझाते हुए उनके दिये गये वचन सुनाते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 147वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! शत्रुओं का दमन करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर से उपप्लव्य में आकर पाण्डवों से वहाँ का सारा वृतान्त ज्यों का त्यों कह सुनाया। दीर्घकाल तक बातचीत करके बारंबार गुप्त मन्त्रणा करने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण विश्राम के लिये अपने वासस्थान को गये। तदनन्तर सूर्यास्त होने पर पाँचों भाई पाण्डव विराट आदि सब राजाओं को विदा करके संध्योपासना करने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण में ही मन लगाकर कुछ काल तक उन्हीं को ध्यान करते रहे। फिर दशार्हकुलभूष्ण श्रीकृष्ण को बुलाकर वे उनके साथ गुप्त मन्त्रणा करने लगे।
विषय सूची
युधिष्ठिर के प्रश्नो का कृष्ण द्वारा उत्तर देना
युधिष्ठिर बोले- कमलनयन! आपने हस्तिनापुर जाकर कौरव सभा में ध्रतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से क्या कहा, यह हमें बताने की कृपा करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- राजन मैंने हस्तिनापुर जाकर कौरव सभा में धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से यथार्थ लाभदायक और हितकर बात कही थी परंतु वह दुर्बुद्धि उसे स्वीकार नहीं करता था। युधिष्ठिर ने पूछा- ह्रषीकेश! दुर्योधन के कुमार्ग का आश्रय लेने पर कुरुकुल के व्रद्ध पुरुष पितामह भीष्म ने ईर्ष्या और अमर्ष में भरे हुए दुर्योधन से क्या कहा? महाभाग! भरद्वाजनन्दन आचार्य द्रोण ने उस समय क्या कहा? पिता धृतराष्ट्र और गांधारी ने भी दुर्योधन से उस समय क्या बात कही। हमारे छोटे चाचा धर्मज्ञों में श्रेष्ठ विदुर ने भी, जो हम पुत्रों के शोक से सदा सर्वदा संतप्त रहते हैं, दुर्योधन से क्या कहा? जनार्दन! इसके सिवा जो समस्त राजा लोग सभा में बैठे थे, उन्होंने अपना विचार किस रूप में प्रकट किया? आप इन सब बातों को ठीक-ठीक बताइये। कृष्ण! आपने कौरव सभा में निश्चय ही कुरुश्रेष्ठ भीष्म और धृतराष्ट्र के समीप सब बातें कह दी थी। परंतु आप की और उनकी सब बातों को मेरे लिये हितकर होने के कारण अपने लिये अप्रिय मानकर सम्भवत: काम और लोभ से अभिभूत मूर्ख एवं पण्डितमानी दुर्योधन अपने हृदय में स्थान नहीं देता। गोविन्द! मैं उन सबकी कही हुई बातों को सुनना चाहता हूँ। तात! ऐसा कीजिये, जिससे हम लोगों का समय व्यर्थ न बीते। श्रीकृष्ण! आप ही हम लोगों के आश्रय, आप ही रक्षक तथा आप ही गुरु हैं। श्रीकृष्ण बोले- राजेन्द्र! मैंने कौरव सभा में राजा दुर्योधन से जिस प्रकार बातें की हैं, वह बताता हूँ सुनिये। मैंने जब अपनी बात दुर्योधन से सुनायी, तब वह हंसने लगा। यह देख भीष्मजी अत्यन्त कुपित हो उससे इस प्रकार बोले- 'दुर्योधन! मैं अपने कुल के हित के लिये तुमसे जो कुछ कहता हूं, उसे ध्यान देकर सुनो'।
भीष्म द्वारा दुर्योंधन अपने कुल हित के लिये वचन सुनाना
नृपश्रेष्ठ! उसे सुनकर अपने कुल का हितसाधन करो। तात! मेरे पिता शान्तनु विश्वविख्यात नरेश थे, जो पुत्रवानों में श्रेष्ठ समझे जाते थे। राजन मैं उनका इकलौता पुत्र था। अत: उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे दूसरा पुत्र कैसे हो? क्योंकि मनीषी पुरुष एक पुत्र वाले को पुत्रहीन ही बताते हैं। किस प्रकार इस कुल का उच्छेद न हो और इसके यश का सदा विस्तार होता रहे उनकी आन्तरिक इच्छा जानकर मैं कुल की भलाई और पिता की प्रसन्नता के लिये राजा न होने और जीवनभर ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) रहने की दुष्कर प्रतिज्ञा करके माता सत्यवती (काली) को ले आया। ये सारी बातें तुमको अच्छी तरह ज्ञात हैं। मैं उसी प्रतिज्ञा का पालन करता हुआ सदा प्रसन्नता पूर्वक यहाँ निवास करता हूँ। राजन! सत्यवती के गर्भ से कुरुकुल का भार वहन करने वाले धर्मात्मा महाबाहु श्रीमान विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए, जो मेरे छोटे भाई थे। पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर मैंने अपने राज्य पर राजा विचित्रवीर्य को ही बिठाया और स्वयं उनका सेवक होकर राज्य सिंहासन से नीचे खड़ा रहा। राजेन्द्र! उनके लिये राजाओं के समूह को जीतकर मैंने योग्य पत्नियां ला दीं। यह वृतान्त भी तुमने बहुत बार सुना होगा।[1] तदनन्तर एक समय जब मैं परशुरामजी के साथ द्वन्द्वयुद्ध के लिये समरभूमि में उतरा। उन दिनों परशुरामजी के भय से यहाँ के नागरिकों ने राजा विचित्रवीर्य को इस नगर से दूर हटा दिया था। वे अपनी पत्नियों में अधिक आसक्त होने के कारण राजयक्ष्मा रोग से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त हो गये। तब बिना राजा के राज्य में देवराज इंद्र ने वर्षा बंद कर दी, उस दशा में सारी प्रजा क्षुधा के भय से पीड़ित हो मेरे ही पास दौड़ी आयी।[2]
प्रजा द्वारा भीष्म से निवेदन करना
प्रजा बोली- शान्तनु के कुल की वृद्धि करने वाले महाराज! आपका कल्याण हो। राज्य की सारी प्रजा क्षीण होती चली जा रही है। आप हमारे अभ्युदय के लिये राजा होना स्वीकार करें और अनावृष्टि आदि ईतियों का भय दूर कर दें। गगांनन्दन! आपकी सारी प्रजा अत्यन्त भयंकर रोगों से पीड़ित है। प्रजा में से बहुत थोडे़ लोग जीवित बचे हैं। अत: आप उन सबकी रक्षा करें। वीर! आप रोगों को हटायें और धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करें। आपके जीतेजी इस राज्य का विनाश न हो जाए। भीष्म कहते हैं- प्रजा की यह करुण पुकार सुनकर भी प्रतिज्ञा की रक्षा और सदाचार का स्मरण करके मेरा मन क्ष्ुब्ध नहीं हुआ। महाराज तदनन्तर मेरी कल्याणमयी माता सत्यवती, पुरवासी, सेवक, पुरोहित, आचार्य और बहुत श्रुत ब्राह्मण अत्यन्त संतप्त हो मुझसे बार-बार कहने लगे कि तुम्हीं राजा हो जाओ, नहीं तो महाराज प्रतीप के द्वारा सुरक्षित राष्ट्र तुम्हारे निकट पहुँचकर नष्ट हो जायेगा। अत: महामते! तुम हमारे हित के लिये राजा हो जाओ। उनके ऐसा कहने पर मैं अत्यन्त आतुर और दु:खी हो गया और मैंने हाथ जोड़कर उन सबसे पिता के महत्व की ओर दृष्टि रखकर की हुई प्रतिज्ञा के विषय में निवेदन किया।
भीष्म द्वारा माता सत्यवती प्रार्थना करना
फिर माता सत्यवती से कहा- मां! मैंने इस कुल की वृद्धि के लिये और विशेषत: तुम्हें ही यहाँ ले आने के लिये राजा न होने और नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहने की बारंबार प्रतिज्ञा की है। अत: तुम इस राज्य का बोझ संभालने के लिये मुझे नियुक्त न करो। राजन! तत्पश्चात पुन: हाथ जोड़कर माता को प्रसन्न करने के लिये मैंने विनयपूर्वक कहा- अम्ब! मैं राजा शान्तनु से उत्पन्न होकर कौरववंश की मर्यादा वहन करता हूँ। अत: अपनी की हुई प्रतिज्ञा को झूठी नहीं कर सकता। यह बात मैंने बार-बार दुहरायी। इसके बाद फिर कहा- पुत्रवत्सले! विशेषत: तुम्हारे ही लिये मैंने यह प्रतिज्ञा की थी। मैं तुम्हारा सेवक और दास हूँ। मुझसे वह प्रतिज्ञा तोड़ने के लिये न कहो।
भीष्म द्वारा दुर्योधन को समझाना
महाराज! इस प्रकार माता तथा अन्य लोगों को अनुनय विनय के द्वारा अनुकूल करके माता के सहित मैंने महामुनि व्यास को प्रसन्न करके भाई की स्त्रियों से पुत्र उत्पन्न करने लिये उनसे प्रार्थना की। भरतकुलभूषण! महर्षि ने कृपा की और उन स्त्रियों से तीन पुत्र उत्पन्न किये। तुम्हारे पिता अंधे थे, अत: नेत्रेन्द्रिय से हीन होने के कारण राजा न हो सके, तब लोकविख्यात महामना पाण्डु इस देश के राजा हुए। पाण्डु राजा थे और उनके पुत्र पाण्डव पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हैं। अत: वत्स दुर्योधन! तुम कलह न करो। आधा राज्य पाण्डवों को दे दो। मेरे जीते जी मेरी इच्छा के विरुद्ध दूसरा कौन पुरुष यहाँ राज्यशासन कर सकता है? ऐसा समझकर मेरे कथन की अवहेलना न करो। मैं सदा तुम लोगों में शान्ति बनी रहने की शुभ कामना करता हूँ। राजन! मेरे लिए तुममें और पाण्डवों में कोई अन्तर नहीं है। तुम्हारे पिता का, गान्धारी और विदुर का भी यही मत है। तुम्हें बडे़-बूढों की बातें सुननी चाहिये। मेरी बात पर शंका न करो, नहीं तो तुम सबको, अपने को और इस भूतल को भी नष्ट कर दोगे।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 147 श्लोक 1-23
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 147 श्लोक 24-43
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| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
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| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
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| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
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| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
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| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
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| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
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| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
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| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
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