- भीष्म और परशुराम जी के बीच वार्तालाप के बाद, दोनों युद्ध हेतु तैयार होकर कुरुक्षेत्र में जाते हैं जहाँ भीष्म परशुराम जी से आशीर्वाद लेते हैं फिर दोनो के बीच में घोर युद्ध प्रारम्भ होता है। जहाँ दोनों एक दूसरे पर अपने-अपने शस्त्रों का प्रयोग करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में अम्बोपाख्यान पर्व के अंतर्गत 180वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
भीष्म तथा परशुरामा जी के बीच घोर युद्ध
भीष्मजी कहते हैं- राजन! तदनन्तर अपने कार्य में कुशल एवं सम्मानित सारथि ने अपने, घोड़ों के तथा मेरे भी शरीर में चुभे हुए बाणों को निकाला। घोडे़ टहलाये गये और लोट-पोट कर लेने पर नहलाये गये फिर उन्हें पानी पिलाया गया, इस प्रकार जब वे स्वस्थ और शान्त हुए, तब प्रात:काल सूर्योदय होने पर पुन: युद्ध आरम्भ हुआ। मुझे रथ पर बैठकर कवच धारण किये शीघ्रता पूर्वक आते देख प्रतापी परशुराम जी ने अपने रथ को अत्यन्त सुसज्जित किया। तदनन्तर युद्ध की इच्छा वाले परशुराम जी को आते देख मैं अपना श्रेष्ठ धनुष छोड़कर सहसा रथ से उतर पड़ा।
भारत! पूर्ववत गुरु को प्रणाम करके अपने रथ पर आरूढ़ हो युद्ध की इच्छा से परशुराम जी के सामने मैं निर्भय होकर डट गया। तदनन्तर मैंने उन पर बाणों की भारी वर्षा की। फिर उन्होंने भी बाणों की वर्षा करने वाले मुझ भीष्म पर बहुत-से बाण बरसाये। तत्पश्चात जमदग्निकुमार ने पुन: अत्यन्त क्रुद्ध होकर मुझ पर प्रज्वलित मुख वाले सर्पों की भाँति तेज किये हुए भयानक बाण चलाये। राजन! तब मैंने सहसा तीखी धार वाले भल्ल नामक बाणों से आकाश में ही उन सबके सैकड़ों और हजारों टुकडे़ कर दिये। यह क्रिया बारंबार चलती रही। इसके पश्चात् प्रतापी परशुरामजी ने मेरे ऊपर दिव्यास्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया परंतु महाबाहो! मैंने उनसे भी अधिक पराक्रम प्रकट करने की इच्छा रखकर उन सब अस्त्रों का दिव्यास्त्रों द्वारा ही निवारण कर दिया। उस समय आकाश में चारों ओर बड़ा कोलाहल होने लगा। इसी समय मैंने जमदग्निकुमार पर वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। भारत! परशुरामजी ने गुह्यकास्त्र द्वारा मेरे उस अस्त्र को शान्त कर दिया। तत्पश्चात मैंने मन्त्र से अभिमन्त्रित करके आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया; किंतु भगवान परशुराम ने वारुणास्त्र चलाकर उसका निवारण कर दिया। इस प्रकार मैं परशुराम जी के दिव्यास्त्रों का निवारण करता और शत्रुओं का दमन करने वाले दिव्यास्त्रवेत्ता तेजस्वी परशुराम भी मेरे अस्त्रों का निवारण कर देते थे। राजन! तत्पश्चात क्रोध में भरे हुए प्रतापी विप्रवर परशुराम ने मुझे बायें लेकर मेरे वक्ष:स्थल को बाण द्वारा बींध दिया। भरतश्रेष्ठ! उससे घायल होकर मैं उस श्रेष्ठ रथ पर बैठ गया, उस समय मुझे मुर्च्छित अवस्था में देखकर सारथि शीघ्र ही अन्यत्र हटा ले गया। भरतश्रेष्ठ! परशुराम जी के बाण से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण मुझे बड़ी व्याकुलता हो रही थी। मैं अत्यन्त घायल और अचेत होकर रणभूमि से दूर हट गया था।
भारत! इस अवस्था में मुझे देखकर परशुरामजी के अकृतव्रण आदि सेवक तथा काशिराज की कन्या अम्बा ये सब-के-सब अत्यन्त प्रसन्न हो कोलाहल करने लगे। इतने ही में मुझे चेत हो गया और सब कुछ जानकर मैंने सारथि से कहा- ‘सूत! जहाँ परशुरामजी हैं, वहीं चलो। मेरी पीड़ा दूर हो गयी है और अब मैं युद्ध के लिये सुसज्जित हूँ।' कुरुनन्दन! तब सारथि ने अत्यन्त शोभाशाली अश्वों द्वारा, जो वायु के समान वेग से चलने के कारण नृत्य करते-से जान पड़ते थे, मुझे युद्धभूमि में पहुँचाया। कौरव! तब मैंने क्रोध में भरे हुए परशुरामजी के पास पहुँचकर उन्हें जीतने की इच्छा से स्वयं भी कुपित होकर उनके ऊपर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। किंतु परशुरामजी ने सीधे लक्ष्य की ओर जाने वाले उन बाणों के आते ही एक-एक को तीन-तीन बाणों से तुरंत काट दिया। इस प्रकार मेरे चलाये हुए वे सब सैकड़ों और हजारों तीखे बाण परशुरामजी के सायकों से कटकर दो-दो टूक होकर नष्ट हो गये।[1]
परशुराम जी का मूर्च्छित होना
तब मैंने पुन: जमदग्निनन्दन परशुराम की ओर उन्हें मार डालने की इच्छा से एक कालाग्नि के समान प्रज्वलित तथा तेजस्वी बाण छोड़ा। उसकी गहरी चोट खाकर परशुरामजी उस बाण के वेग के अधीन हो समरभूमि में मूर्च्छित हो गये और धरती पर गिर पड़े। परशुराम के पृथ्वी पर गिरते ही मानो आकाश से सूर्य टूटकर गिरे हों, ऐसा समझकर सारा जगत भयभीत हो हाहाकार करने लगा। कुरुनन्दन! उस समय वे तपोधन और काशिराज की कन्या सब-के-सब अत्यन्त उद्विग्न हो सहसा उनके पास दौडे़ गये और उन्हें हृदय से लगा हाथ फेरकर तथा शीतल जल छिड़ककर विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए सान्त्वना देने लगे।
पुन: भीष्म और परशुराम जी के बीच युद्ध प्रारम्भ
तदनन्तर कुछ स्वस्थ होने पर परशुराम जी उठ गये और धनुष पर बाण चढा़कर विह्वल स्वर में बोले- ‘भीष्म! खडे़ रहो, अब तुम मारे गये।' उस महान युद्ध में उनके धनुष से छूटा हुआ वह बाण तुरंत मेरी बायीं पसली पर पड़ा, जिससे मैं अत्यन्त उद्विग्न होकर वृक्ष की भाँति झूमने लगा। फिर तो परशुरामजी उस महासमर में शीघ्र छोडे़ हुए अस्त्र द्वारा मेरे घोड़ों को मारकर निर्भय हो मेरे ऊपर पांख से उड़ने वाले बाणों से वर्षा करने लगे। महाबाहो! तत्पश्चात मैंने भी शीघ्रतापूर्वक ऐसे अस्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया, जो युद्धभूमि में विपक्षी की गति को रोक देने वाले थे। मेरे तथा परशुरामजी के बाण आकाश में सब ओर फैलकर मध्यभाग में ही ठहर गये। उस समय बाणों के समूह से आच्छादित होने के कारण सूर्य नहीं तपता था और वायु की गति इस प्रकार कुण्ठित हो गयी थी, मानो मेघों से अवरुद्ध हो गयी हो। उस समय वायु के कम्पन और सूर्य की किरणों से समस्त बाण परस्पर टकराने लगे। उनकी रगड़ से वहाँ आग प्रकट हो गयी। राजन! वे सभी बाण अपने ही संघर्ष से उत्पन्न हुई अग्नि से जलकर भस्म हो गये और भूमिपर गिर पड़े। कौरवनरेश! उस समय परशुराम जी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर मेरे ऊपर तुरंत ही दस हजार, लाख, दस लाख, अर्बुद, खर्ब और निखर्ब बाणों का प्रहार किया। नरेश्वर! तब मैंने रणभूमि में विषधर सर्प के समान भयंकर सायकों द्वारा उन सब बाणों को वृक्षों की भाँति भूमि पर काट गिराया। भरतभूषण! इस प्रकार वह युद्ध चलता रहा। संध्याकाल बीतने पर मेरे गुरु रणभूमि से हट गये।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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संजययान पर्व
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| धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश
| संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना
| युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना
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| संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना
| संजय को युधिष्ठिर का उत्तर
| संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना
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प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद
| धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन
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| धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश
| विदुर के नीतियुक्त उपदेश
| धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश
| विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन
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सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना
| सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर
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| गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन
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यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन
| संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना
| भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान
| भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन
| संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन
| भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप
| धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन
| कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन
| संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन
| संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन
| संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप
| दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास
| संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन
| धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय
| धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना
| धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन
| दुर्योधन की आत्मप्रशंसा
| कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप
| कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना
| दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन
| विदुर का दम की महिमा बताना
| विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना
| धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना
| धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन
| संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना
| कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन
| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
| कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
| कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना
| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
| कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना
| कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश
| कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण
| कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण
| परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन
| कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना
| मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना
| नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन
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| नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन
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| नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव
| विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह
| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
| दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना
| नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन
| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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