दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन

महाभारत उद्योग पर्व में यानसंधि पर्व के अंतर्गत 55वें अध्याय में 'दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन' दिया गया है, जो इस प्रकार है[1]-


दुर्योधन का धृतराष्ट्र को सांत्वना देना

दुर्योधन बोला- महाराज! आप डरे नहीं आपके द्वारा हम लोग शोक करने योग्‍य नहीं हैं। प्रभो! हम बलवान और शक्तिशाली हैं तथा समर भूमि में शत्रुओं को जीतने की शक्त्‍िा रखते हैं। पाण्‍डवों को जब हमने वन में भेज दिया था, उस समय शत्रुओं के राष्‍ट्रों को धूल में मिला देने वाले विशाल सैन्‍य समूह के साथ श्रीकृष्‍ण यहाँ आये थे। उनके साथ केकय राजकुमार, धृष्‍टकेतु, द्रुपदपुत्र धृष्‍टद्युम्‍न तथा और भी बहुत-से नरेश, पाण्‍डवों के अनुयायी हैं, यहाँ तक पधारे थे। वे सभी महारथी इंद्रप्रस्थ के निकट तक आये और परस्‍पर मिलकर समस्‍त कौरवों सहित आपकी निंदा करने लगे। भारत! वे नरेश श्रीकृष्‍ण की प्रधानता में संगठित हो वन में विराजमान मृगचर्मधारी युधिष्ठिर के समीप जाकर बैठे और सगे-सम्‍बन्धियों सहित आपका मूलोच्‍छेद कर डालने की इच्‍छा रखकर कहने लगे धृतराष्‍ट्र के हाथ से राज्‍य को लौटा लेना ही कर्तव्‍य है। भरतश्रेष्‍ठ! उनके इस निश्चय को सुनकर मैंने कुटुम्‍बी जनों के वध की आशंका से भयभीत हो भीष्‍म, द्रोण और कृपाचार्य से इस प्रकार निवेदन किया तात! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पाण्‍डव लोग अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर नहीं रहेंगे क्‍योंकि वसुदेवनंदन श्रीकृष्‍ण हम सब लोगों का पूर्णत: विनाश कर डालना चाहते हैं। केवल विदुर जी को छोड़कर आप सब लोग मार डालने के योग्‍य समझे गये हैं, यह बात मुझे मालूम हुई है। कुरुश्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र धर्मज्ञ हैं, यह सोचकर उनका भी वध नहीं किया जायेगा।

तात! श्रीकृष्ण हमारा सर्वनाश करके कौरवों का एक राज्‍य बनाकर उसे युधिष्ठिर को सौंपना चाहते हैं। ऐसी अवस्‍था में इस समय हमारा क्‍या कर्तव्‍य है? हम उनके चरणों पर गिरें, पीठ दिखाकर भाग जाये अथवा प्राणों का मोह छोड़कर शत्रुओं का सामना करें। उनके साथ युद्ध होने पर हमारी पराजय निश्चित है, क्‍योंकि इस समय समस्‍त भूपाल राजा युधिष्ठिर के अधीन हैं। इस राज्‍य में रहने वाले सब लोग हमसे घृणा करते हैं। हमारे मित्र भी कुपित हो गये हैं। सम्‍पूर्ण नरेश और आत्‍मीयजन सभी हमें धिक्‍कार रहे हैं। मैं समझता हूँ, इस समय नतमस्‍तक हो जाने में कोई दोष नहीं है। इससे हम लोगों में सदा के लिये शांति हो जायेगी, केवल अपने प्रज्ञाचक्षु पिता महाराज धृतराष्‍ट्र के लिये ही मुझे शोक हो रहा है। उन्‍होंने मेरे लिये अनंत क्‍लेश और दु:ख सहन किये हैं। नरश्रेष्‍ठ पिताजी! आपके पुत्रों तथा मेरे भाइयों ने केवल मेरी प्रसन्‍नता के लिये शत्रुओं को सदा ही सताया है ये सब बातें आप पहले से ही जानते हैं। इसलिये वे महा‍रथी पाण्‍डव मन्त्रियों सहित महाराज धृतराष्‍ट्र के कुल का समूलोच्‍छेद करके अपने वैर का बदला लेंगे। भारत! मेरी यह बात सुनकर आचार्य द्रोण, पितामह भीष्‍म, कृपाचार्य तथा अश्‍वत्‍थामा ने मुझे बड़ी भारी चिंता में पड़कर सम्‍पूर्ण इन्द्रियों से व्‍यथित हुआ जानकर आश्वासन देते हुए कहा-‘परंतप! यदि शत्रुपक्ष के लोग हमसे द्रोह रखते हैं तो तुम्‍हें डरना नहीं चाहिये। शत्रु लोग युद्ध में उपस्थित होने पर हमें जीतने में असमर्थ हैं।[1]

दुर्योधन द्वारा अपने उत्कर्षों का वर्णन करना

दुर्योधन बोला महाराज हममें से एक-एक वीर भी समस्‍त राजाओं को जीतने की शक्ति रखता है। शत्रु लोग आये तो सही, हम अपने पैने बाणों से उनका धमंड चूर-चूर कर देंगे। भारत! पहले की बात है, अपने पिता शांतनु की मृत्‍यु के पश्‍चात भीष्‍म जी ने किसी समय अत्‍यंत क्रोध में भरकर एकमात्र रथ की सहायता से अकेले ही सब राजाओं को जीत लिया था। रोष में भरे हुए कुरुश्रेष्‍ठ भीष्‍म ने जब उनमें से बहुत-से राजाओं को मार डाला,तब वे डर के मारे पुन: इन्‍हीं देवव्रत भीष्‍म की शरण में आये। भरतश्रेष्‍ठ! वे ही पूर्ण साम‍र्थ्‍यशाली भीष्‍म युद्ध में शत्रुओं को जीतने के लिये हमारे साथ हैं, अत: आपका भय दूर हो जाना चाहिये। इन अमित तेजस्‍वी भीष्‍म आदि ने उसी समय युद्ध में हमारा साथ देने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। पहले यह सारी पृथ्वी हमारे शत्रुओं के काबू में थी, किंतु अब हमारे हाथ में आ गयी है। हमारे ये शत्रु अब हमें युद्ध में जीतने की शक्ति नहीं रखते। सहायकों के अभाव में पाण्‍डव पंख कटे हुए पक्षी के समान असहाय एवं पराक्रम शून्‍य हो गये हैं। भरतश्रेष्‍ठ! इस समय यह पृथ्‍वी हमारे अधिकार में है। हमने जिन राजाओं को यहाँ बुलाया है, ये सब सुख और दु:ख में भी हमारे साथ एक-सा प्रयोजन रखते हैं, हमारे सुख-दु:ख को अपना ही सुख-दु:ख मानते हैं। इतने पर भी आप शत्रुओं की मिथ्‍या प्रशंसा सुनकर पागल से हो उठे हैं और दुखी एवं भयभीत होकर नाना प्रकार से विलाप कर रहे हैं। यह सब देखकर ये राजा लोग यहाँ हँस रहे हैं। इन राजाओं में से प्रत्‍येक अपने आपको पाण्‍डवों के साथ युद्ध करने में समर्थ मानता है अत: आपके मन में जो भय आ गया है, वह निकल जाना चाहिये। मेरी सम्‍पूर्ण सेना को इन्‍द्र भी नहीं जीत सकते। स्‍वयम्‍भू ब्रह्माजी भी इसका नाश नहीं कर सकते।[2]

प्रभो! युधिष्ठिर तो मेरी सेना तथा प्रभाव से इतने डर गये हैं कि राजधानी या नगर लेने की बात छोड़कर अब पांच गांव मांगने लगे हैं। भारत! आप जो कुंतीकुमार भीम को बहुत शक्तिशाली मान रहे हैं, वह भी मिथ्‍या ही है क्‍योंकि आप मेरे प्रभाव को पूर्ण रूप से नहीं जानते हैं। गदायुद्ध में मेरी समानता करने वाला इस पृथ्‍वी पर न तो कोई है, न भूतकाल में कोई हुआ था और न भविष्‍य में ही कोई होगा। गदायुद्ध का मेरा अभ्‍यास बहुत अच्‍छा है। मैंने गुरु के समीप क्‍लेश सहन पूर्वक रहकर अस्‍त्र विद्या सीखी है और उसमें मैं पारंगत हो गया हूँ। अत: भीमसेन से या दूसरे योद्धाओं से मुझे कभी कोई भय नहीं है। आपका कल्‍याण हो। बलराम जी का भी यही निश्चय है कि गदायुद्ध में दुर्योधन के समान दूसरा कोई नहीं है। यह बात उन्‍होंने उस समय कही थी, जब मैं उनके पास रहकर गदा की शिक्षा ले रहा था। मैं युद्ध में बलराम जी के समान हूँ और बल में इस भूतल पर सबसे बढ़कर हूँ।

युद्ध में भीमसेन मेरी गदा का प्रहार कभी नहीं सह सकते। महाराज! मैं रोष में भरकर भीमसेन पर गदा का जो एक बार प्रहार करूंगा, वह अत्‍यंत भयंकर एक ही आघात उन्‍हें शीघ्र ही यमलोक पहुँचा देगा।[2] राजन! मैं चाहता हूँ कि युद्ध में गदा हाथ में लिये हुए भीमसेन को अपने सामने देखूँ। मैंने दीर्घकाल से अपने मन में सदा इसी मनोरथ के सिद्ध होने की इच्‍छा रखी है। युद्ध में मेरी गदा से आहत हुए कुंतीपुत्र भीमसेन का शरीर छिन्‍न-भिन्‍न हो जायेगा और वे प्राणशून्‍य होकर पृथ्वी पर पड़ जायेंगे। यदि मैं एक बार अपनी गदा का आघात कर दूं तो हिमालय पर्वत भी लाखों टुकड़ों में विदीर्ण हो जायेगा। भीमसेन भी इस बात को जानते हैं। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को भी यह ज्ञात है। यह निश्चत है कि गदायुद्ध में दुर्योधन के समान दूसरा कोई नहीं है। अत: राजन! भीमसेन से जो आपको भय हो रहा है, वह दूर हो जाना चाहिये। मैं महायुद्ध में उन्‍हें मार गिराऊंगा। इसलिये आप मन में खेद न करें।[3]

भरतश्रेष्‍ठ! मेरे द्वारा भीमसेन के मारे जाने पर हमारे पक्ष के बहुत से रथी जो अर्जुन के समान या उनसे भी बढ़कर हैं, उनके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणों की वर्षा करने लगेंगे। भारत! भीष्‍म, द्रोण, कृप, अश्वत्‍थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, प्राग्‍ज्‍योतिनरेश भगदत्त, मद्रराज शल्‍य तथा सिंधुराज जयद्रथ इनमें से एक-एक वीर समस्‍त पाण्‍डवों को मारने की शक्ति रखता है। यदि ये सब एक साथ मिल जाये तो क्षणभर में उन सबको यमलोक पहुँचा देंगे। राजाओं की समस्‍त सेना एकमात्र अर्जुन को परास्‍त करने में असमर्थ कैसे होगी? इसके लिये कोई कारण नहीं है। भीष्‍म, द्रोणाचार्य, अश्वत्‍थामा तथा कृपाचार्य के चलाये हुए सैकड़ों बाण समूहों से विद्व होकर कुंतीपुत्र अर्जुन को विवशता पूर्वक यमलोक में जाना पड़ेगा। भरतनंदन! हमारे पितामह गंगापुत्र भीष्‍मजी तो अपने पिता शांतनु से भी बढ़कर पराक्रमी हैं। ये ब्रह्मर्षियों के समान प्रभाव से सम्‍पन्‍न होकर उत्‍पन्‍न हुए हैं। इनका वेग देवताओं के लिये भी अत्‍यंत दु:सह है।

राजन! भीष्‍म जी को मारने वाला तो कोई है ही नहीं क्‍योंकि उनके पिता ने प्रसन्‍न होकर उन्‍हें यह वरदान दिया है कि तुम अपनी इच्‍छा के बिना नहीं मरोगे। दूसरे वीर आचार्य द्रोण हैं, जो ब्रह्मर्षि भारद्वाज के वीर्य से कलश में उत्‍पन्‍न हुए हैं। महाराज! इन्‍ही आचार्य द्रोण से वीर अश्वत्‍थामा की उत्‍पत्ति हुई है, जो अस्‍त्रविद्या के बहुत बड़े पण्डित हैं। आचार्यों में प्रधान कृप भी महर्षि गौतम के अंश से सरकण्‍डों के समूह में उत्‍पन्‍न हुए हैं। ये श्रीमान आचार्यपाद अवध्‍य हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। महाराज! अश्वत्‍थामा के ये पिता, माता और मामा तीनों ही अयोनिज हैं। अश्वत्‍थामा भी शूरवीर एवं मेरे पक्ष में स्थित हैं। राजन! ये सभी योद्धा देवताओं के समान पराक्रमी एवं महारथी हैं। भरतश्रेष्‍ठ! ये चारों वीर युद्ध में देवराज इन्‍द्र को भी पीड़ा दे सकते हैं। अर्जुन तो इनमें से किसी एक की ओर भी आँख उठाकर देख नहीं सकते। ये नरश्रेष्‍ठ जब एक साथ होकर युद्ध करेंगे, तब अर्जुन को अवश्‍य मार डालेंगे।

भीष्‍म, द्रोण और कृप इन तीनों के समान पराक्रमी तो अकेला कर्ण ही है, यह मेरी मान्‍यता है। भारत! परशुराम जी ने कर्ण को शिक्षा देने के पश्चात् घर लौटने की आज्ञा देते हुए यह कहा था कि तुम अस्‍त्र-शस्‍त्रों के ज्ञान में मेरे समान हो। इसके सिवा कर्ण को जन्‍म के साथ ही दो सुंदर और कल्‍याणकारी कुण्डल प्राप्‍त हुए थे।[3] परंतु देवराज इन्‍द्र ने शत्रुओं को संताप देने वाले कर्ण से शची के लिये वे दोनों कुण्डल मांग लिये। महाराज! कर्ण ने बदले में अत्‍यंत भयंकर एवं अमोघ शक्ति लेकर वे कुण्‍डल दिये थे। इस प्रकार उस अमोघ शक्ति से सुरक्षित कर्ण के सामने युद्ध के लिये आकर अर्जुन कैसे जीवित रह सकते हैं? राजन! हाथ पर रखे हुए फल की भाँति विजय की प्राप्ति तो मुझे अवश्‍य ही होगी। भारत! इस पृथ्वी पर मेरे शत्रुओं की पूर्णत: पराजय तो इसी से स्‍पष्‍ट है कि ये पितामह भीष्‍म प्रतिदिन इस हजार विपक्षी योद्धओं का संहार करेंगे। परंतप! द्रोणाचार्य, अश्वत्‍थामा और कृपाचार्य भी उन्‍हीं के समान महाधनुर्धर हैं।

इनके सिवा ‘संशप्‍तक’ नामक क्षत्रियों के समूह भी मेरे ही पक्ष में हैं जो यह कहते हैं कि या तो हम लोग अर्जुन को मार डालेंगे या कपिध्‍वज अर्जुन ही हमें मार डालेंगे, तभी हमारे उनके युद्ध की समाप्ति होगी। वे सब नरेश अर्जुन के वध का दृढ़ निश्चय कर चुके हैं और उसके लिये अपने को पर्याप्‍त समझते हैं। ऐसी दशा में आप उन पाण्‍डवों से भयभीत हो अकस्‍मात व्‍यथित क्‍यों हो उठते हैं? शत्रुओं को संताप देने वाले भरतनंदन! अर्जुन और भीमसेन के मारे जाने पर शत्रुओं के दल में दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध कर सकेगा? यदि आप किसी को जानते हों तो बताइये। राजन! पांचों भाई पाण्‍डव, धृष्‍टद्युम्‍न और सात्‍यकि ये कुल सात योद्धा ही शत्रु-पक्ष के सारभूत बल माने जाते हैं। प्रजानाथ! हम लोगों के पक्ष में जो विशिष्‍ट योद्धा हैं, उनकी संख्‍या अधिक है यथा भीष्‍म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि, अश्वत्‍थामा, वैकर्तन कर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, प्राग्‍ज्‍योतिषनरेश भगदत्त, शल्‍य, अवन्‍ती के दोनों राजकुमार विंद और अनुविंद, जयद्रथ, दु:शासन, दुर्मुख, दु:सह, श्रुतायु, चित्रसेन, पुरुमित्र, विविंशति, शल, भूरिश्रवा तथा आपका पुत्र विकर्ण। इस प्रकार अपने पक्ष के प्रमुख वीरों की संख्‍या शत्रुओं के प्रमुख वीरों से तीन गुनी अधिक है। महाराज! अपने यहाँ ग्‍यारह अक्षौहिणी सेनाएं संग्रहीत हो गयी हैं, परंतु शत्रुओं के पक्ष में हमसे बहुत कम कुल सात अक्षौहिणी सेनाएं हैं फिर मेरी पराजय कैसे हो सकतीहै?

राजन! बृहस्पति का कथन हैं शत्रुओं की सेना अपने से एक तिहाई भी कम हो तो उसके साथ अवश्‍य युद्ध करना चाहिये। परंतु मेरी यह सेना तो शत्रुओं की अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक हैं, इसलिये यह अंतर मेरी सम्‍पूर्ण सेना की एक तिहाई से भी अधिक है। भारत! प्रजानाथ! मैं देख रहा हूँ कि शत्रुओं का बल हमारी अपेक्षा अनेक प्रकार से गुणहीन है, परंतु मेरा अपना बल सब प्रकार से बहुत अधिक एवं गुणशाली है। भरतनंदन! इन सभी दृष्टियों से मेरा बल अधिक है और पाण्‍डवों का बहुत कम है, यह जानकर आप व्‍याकुल एवं अधीर न हों।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 54 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 55 श्लोक 19-36
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 55 श्लोक 37-54
  4. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 55 श्लोक 55-69

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संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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