विदुर के नीतियुक्त उपदेश

महाभारत उद्योग पर्व में प्रजागर पर्व के अंतर्गत 38वें अध्याय में 'विदुर के नीतियुक्त उपदेश' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

विदुर के धृतराष्ट्र को नीतियुक्त उपदेश

विदुरजी कहते हैं- राजन जब कोई[2] वृद्ध पुरुष निकट आता है, उस समय नवयुवक व्‍यक्ति के प्राण ऊपर को उठने लगते हैं; फिर जब वह वृद्ध के स्‍वागत में उठकर खड़ा होता है और प्रणाम करता है, तब प्राणों को पुन: वास्‍तविक स्थिति में प्राप्‍त करता है। धीर पुरुष को चाहिये, जब कोई पुरुष अतिथि के रूप में घर पर आवे, तब पहले आसन देकर एवं जल लाकर उसके चरण पखारे, फिर उसकी कुशल पूछकर अपनी स्थिति बतावे, तदनंतर आवश्‍यकता समझकर अन्‍न भोजन करावे। वेदवेत्ता ब्राह्मण जिसके घर दाता के लोभ, भय या कंजूसी के कारण जल, मधुपर्क और गौ को नहीं स्‍वीकार करता, श्रेष्‍ठ पुरुषों ने उस गृहस्‍थ का जीवन व्‍यर्थ बताया है। वैद्य, चीरफाड़ करने वाला[3], ब्रह्मचर्य से भ्रष्‍ट, चोर, क्रूर, शराबी, गर्भ हत्‍यारा, सेना जीवी और वेद विक्रेता- ये यद्यपि पैर धोने के योग्‍य नहीं हैं, तथापि यदि अतिथि होकर आवें तो विशेष प्रिय यानि आदर के योग्‍य होते हैं। नमक, पका हुआ अन्‍न, दही, मधु, तेल, घी, तिल, मांस, फल, साग, लाल कपड़ा, सब प्रकार की गंध और गुड़ इतनी वस्‍तुएं बेचने योग्‍य नहीं है।

जो क्रोध न करने वाला, लोष्‍ट, पत्‍थर और सुवर्ण को एक-सा समझने वाला, शोकहीन, संधि-विग्रह से रहित, निंदा-प्रशंसा से शून्‍य, प्रिय-अप्रिय का त्‍याग करने वाला तथा उदासीन है, वही भिक्षुक[4] है। जो नीवार[5], कंद-मूल, इङ्गुदीफल और साग खाकर निर्वाह करता है, मन को वश में रखता है, अग्निहोत्र करता है, वन में रहकर भी अतिथि सेवा में सदा सावधान रहता है, वही पुण्‍यात्‍मा तपस्वी[6] श्रेष्‍ठ माना गया है। बुद्धिमान पुरुष की बुराई करके इस विश्वास पर निश्चिंत न रहे कि मैं दूर हूँ। बुद्धिमान की[7] बांहें बड़ी लंबी होती हैं, सताया जाने पर वह उन्‍हीं बांहों से बदला लेता है। जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करे ही नहीं; किंतु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी अधिक विश्वास न करे। विश्वास से जो भय उत्‍पन्‍न होता है, वह मूल का भी उच्‍छेद कर डालता है। मनुष्‍य को चाहिये कि वह ईर्ष्‍यारहित, स्त्रियों का रक्षक, सम्‍पत्ति का न्‍यायपूर्वक विभाग करने वाला, प्रियवादी, स्‍वच्‍छ तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलने वाला हो, परंतु उनके वश में कभी न हो। स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही गयी हैं। ये अत्‍यंत सौभाग्‍यशालिनी, आदर के योग्‍य, पवित्र तथा घर की शोभा हैं। अत: इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए। अन्त:पुर की रक्षा का कार्य पिता को सौंप दे, रसोई-घर का प्रबन्ध माता के हाथ में दे, गौओं की सेवा में अपने समान व्यक्ति को नियुक्त करे और कृषि का कार्य स्वयं ही करे। इसी प्रकार सेवकों द्वारा वाणिज्य-व्यापार करे और पुत्रों के द्वारा ब्राह्मणों की सेवा करे। जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा पैदा होता है। इनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में शान्त हो जाता है। अच्छे कुल में उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी, क्षमाशील और विकारशून्य संत पुरुष सदा काष्‍ठ में अग्नि की भाँति शान्तभाव से स्थित रहते हैं। जिस राजा की मन्त्रणा को उसके बहिरंग एवं अन्तरंग कोई भी मनुष्‍य नहीं जानते, सब ओर दृष्टि रखने वाला वह राजा चिरकाल त‍क ऐश्वर्य का उपभोग करता है।[1]

राजन! धर्म, काम और अर्थ सम्बन्धी कार्यों को करने से पहले न बताये, करके ही दिखाये। ऐसा करने से अपनी मन्त्रणा दूसरों पर प्रकट नहीं होती। पर्वत की चोटी अथवा राजमहल पर चढ़कर एकान्त स्थान में जाकर या जंगल में तृण आदि से अनावृत स्थान पर मन्त्रणा करनी चाहिये। भारत! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पण्डित होने पर भी जिसका मन वश में न हो, वह अपनी गुप्त मन्त्रणा जानने के योग्य नहीं है। राजा अच्छी तरह परीक्षा किये बिना किसी को अपना मन्त्री न बनावे क्योंकि धन की प्राप्ति और मन्त्र की रक्षा का भार मन्त्री पर ही रहता है। जिसके धर्म, अर्थ और काम विषयक सभी कार्यों को पूर्ण होने के बाद ही सभासदगण जान पाते हैं, वही राजा समस्त राजाओं में श्रेष्‍ठ है। अपने मन्त्र को गुप्त रखने वाले उस राजा को नि:संदेह सिद्धि प्राप्त होती हैं। जो मोहवश बुरे[8] कर्म करता है, वह उन कार्यों का विप‍रीत परिणाम होने से अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। उत्तम कर्मों का अनुष्‍ठान तो सुख देने वाला होता है, किंतु उन्हीं का अनुष्‍ठान न किया जाये तो वह पश्चात्ताप का कारण माना गया है। जैसे वेदों को पढ़े बिना ब्राह्मण श्राद्धकर्म करवाने का अधिकारी नहीं होता, उसी प्रकार सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय नामक छ: गुणों को जाने बिना कोई गुप्त मन्त्रणा सुनने का अधिकारी नहीं होता है। राजन! जो सन्धि-विग्रह आदि छ: गुणों की जानकारी के कारण प्रसिद्ध है, स्थिति, वृद्धि और ह्रास को जानता है तथा जिसके स्वभाव की सब लोग प्रशंसा करते हैं, उसी राजा के अधीन पृथ्वी रहती है। जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते, जो आवश्‍यक कार्यों की स्वयं देखभाल करता है और खजाने की भी स्वयं जानकारी रखता है, उसकी पृथ्‍वी पर्याप्त धन देने वाली ही होती। भूपति को चाहिये कि अपने ‘राजा’ नाम से और राजोचित ‘छत्र’ के धारण से संतुष्‍ट रहे सेवकों को पर्याप्त धन दे, सब अकेला ही न हड़प ले। ब्राह्मण को ब्राह्मण जानता है, स्त्री को उसका पति जानता है, मन्त्री को राजा जानता है और राजा को भी राजा ही जानता है।[9]

वश में आये हुए वध के योग्य शत्रु को कभी छोड़ना नही चाहिये। यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिये और बल होने पर उसे मार ही ड़ालना चाहिये क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है। देवता, ब्राह्मण, राजा, वृद्ध, बालक और रोगी पर होने वाले क्रोध को प्रयत्नपूर्वक सदा रोकना चाहिये। मूर्खों द्वारा सेवित निरर्थक कलह का बुद्धिमान पुरुष को त्याग कर देना चाहिये। ऐसा करने से उसे लोक में यश मिलता है और अनर्थ का सामना नहीं करना पड़ता। जिसके प्रसन्न होने का कोई फल नहीं तथा जिसका क्रोध भी व्यर्थ होता है, ऐसे राजा को प्रजा उसी भाँति नहीं चाहती, जैसे स्त्री नंपुसक पति को। बुद्धि से धन प्राप्त होता है और मूर्खता दरिद्रता का कारण है- ऐसा कोई नियम नहीं है। संसार चक्र के वृत्तान्त को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं, दूसरे लोग नहीं।[9]विदुरजी कहते है- राजन मूर्ख मनुष्‍य विद्या, शील, अवस्था, बुद्धि, धन और कुल में बड़े माननीय पुरुषों का सदा अनादर किया करता है। जिसका चरित्र निन्दनीय है, जो मूर्ख, गुणों में दोष देखने वाला, अधार्मिक, बुरे वचन बोलने वाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही अनर्थ[10] टूट पड़ते हैं। ठगी न करना, दान देना, प्रतिज्ञा का उल्लघंन न करना और अच्छी तरह कही हुई बात ये सब सम्पूर्ण भूतों को अपना बना लेते हैं। किसी को भी धोखा न देने वाला, चतुर, कृतज्ञ, बुद्धिमान और कोमल स्वभाव वाला राजा खजाना समाप्त हो जाने पर भी सहायकों को पा जाता है अर्थात्‌ उसे सहायक मिल जाते हैं। धैर्य, मनोनिग्रह, इन्द्रिय संयम, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न करना- ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं। राजन! जो अपने आश्रितों में धन का ठीक-ठीक बंटवारा नहीं करता तथा जो दुष्‍ट स्वभाव वाला, कृतघ्‍न और निर्लज है, ऐसा राजा इस लोक में त्याग देने योग्य है। जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोंष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्पयुक्त घर में रहने वाले मनुष्‍य की भाँति रात में सुख से नहीं सो सकता है।[11]

जिनके ऊपर दोषारोपण करने से योग-क्षेम में बाधा आती हो, उन लोगों को देवता की भाँति सदा प्रसन्न रखना चाहिये। जो धन आदि पदार्थ स्त्री, प्रमादी, पतित और नीच पुरुषों के हाथ में सौंप दिये जाते हैं, वे संशय में पड़ जाते हैं। राजन! जहाँ का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में होता है, वहाँ के लोग नदी में पत्थर की नाव पर बैठने वालों की भाँति विवश होकर विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं। भारत! जो लोग जितना आवश्‍यक हैं, उतने ही काम में लगे रहते हैं, अधिक में हाथ नहीं डालते, उन्हें मैं पण्डित मानता हूँ क्योंकि अधिक में हाथ डालना संघर्ष का कारण होता है। केवल जुआरी जिसकी प्रशंसा करते हैं, नर्तक जिसकी प्रशंसा का गान करते हैं और वेश्‍याएं जिसकी बड़ाई किया करती हैं, वह मनुष्‍य जिंदा ही मुर्दे के समान है। आपने उन महान धनुर्धर और अत्यन्त तेजस्वी पाण्‍डवों को छोड़कर यह महान ऐश्वर्य का भार दुर्योधन के ऊपर रख दिया है। इसलिये आप शीघ्र ही उस ऐश्वर्य मद से मूढ़ दुर्योधन को त्रिभुवन के साम्राज्य से गिरे हुए बलि की भाँति इस राज्य से भ्रष्‍ट होते देखियेगा।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-15
  2. माननीय
  3. जर्राह
  4. संयासी
  5. जंगली चावल
  6. वानप्रस्‍थी
  7. बुद्धिरूप
  8. शास्त्रनिषिद्ध
  9. 9.0 9.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 38 श्लोक 16-33
  10. संकट
  11. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 38 श्लोक 34-47

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उलूकदूतागमनपर्व
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