विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना

जब कृष्ण दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करते हैं और विदुर के घर जाकर भोजन ग्रहण करते हैं। अब विदुर श्रीकृष्ण को कौरव सभा में जाने का अनौचित्य बताते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

विदुर द्वारा श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्रपुत्रों की दुर्भावनाओं के विषय में बताना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! रात में जब भगवान श्रीकृष्ण भोजन करके विश्राम कर रहे थे, उस समय विदुर जी ने उनसे कहा- 'केशव! आपने जो यहाँ आने का विचार किया, यह मेरी समझ में अच्छा नहीं हुआ। जनार्दन! मंदमति दुर्योधन धर्म और अर्थ दोनों का उल्लंघन कर चुका है। वह क्रोधी, दूसरों के सम्मान को नष्ट करने वाला और स्वयं सम्मान चाहने वाला है। उसने बड़े-बूढ़े गुरुजनों के आदेश को भी ठुकरा दिया है। प्रभों! मूढ़ धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन धर्मशास्त्रों की भी आज्ञा नहीं मानता; सदा अपनी ही हठ रखता है। उस दुरात्मा को सन्मार्ग पर ले आना असंभव है। उसका मन भोगों में आसक्त है, वह अपने को पंडित मानता है, मित्रों के साथ द्रोह करता है और सबको संदेह की दृष्टि से देखता है। वह स्वयं तो किसी का उपकार करता ही नहीं, दूसरों के किए हुए उपकार को भी नहीं मानता। वह धर्म को त्याग कर असत्य से ही प्रेम करने लगा है। उसमें विवेक का सर्वथा अभाव है, उसकी बुद्धि किसी एक निश्चय पर नहीं रहती तथा वह अपनी इंद्रियों को काबू में रखने में असमर्थ है। वह अपनी इच्छाओं का अनुसरण करने वाला तथा सभी कार्यों में अनिश्चित विचार रखने वाला है। ये तथा और भी बहुत से दोष उसमें भरे हुए हैं। आप उसे हित की बात बताएँगे, तो भी वह क्रोधवश उसे स्वीकार नहीं करेगा। वह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा तथा जयद्रथ पर अधिक भरोसा रखता है; अत: उसके मन में संधि करने का विचार ही नहीं होता है।

जनार्दन! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों तथा कर्ण की यह निश्चित धारणा है कि कुंती के पुत्र भीष्म एवं द्रोणाचार्य आदि वीरों की ओर देखने में भी समर्थ नहीं हैं। मधुसूदन! मूर्ख एवं बुद्धिहीन दुर्योधन राजाओं की सेना एकत्र करके अपने आपको कृतकृत्य मानता है। दुर्बुद्धि दुर्योधन को तो इस बात का भी दृढ़ विश्वास है कि अकेला कर्ण ही शत्रुओं को जीतने में समर्थ है; इसलिए वह कदापि संधि नहीं करेगा। केशव! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों ने यह पक्का विचार कर लिया है कि हमें पांडवों को उनका यथोचित राज्यभाग नहीं देना चाहिए। यही उनका दृढ़ निश्चय है। इधर आप संधि के लिए प्रयत्न करते हुये उनमें उत्तम भ्रातभाव जगाना चाहते हैं; परंतु उन दुष्टों के प्रति आप जो कुछ भी कहेंगे, वह सब व्यर्थ ही होगा। मधुसूदन! जहाँ अच्छी और बुरी बातों का एक-सा ही परिणाम हो, वहाँ विद्वान पुरुष को कुछ नहीं कहना चाहिए। वहाँ कोई बात कहना बहरों के आगे राग अलापने के समान व्यर्थ ही है। माधव! जैसे चांडालों के बीच में किसी विद्वान ब्राह्मण का उपदेश देना उचित नहीं है, उसी प्रकार उन मूर्ख और अज्ञानियों के समीप आपका कुछ भी कहना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। मूढ़ दुर्योधन सैन्यसंग्रह करके अपने को शक्तिशाली समझता है। वह आपकी बात नहीं मानेगा। उसके प्रति कहा हुआ आपका प्रत्येक वाक्य निरर्थक होगा।'[1]

विदुर द्वारा श्रीकृष्ण को कौरव सभा में जाने का अनौचित्य बताना

विदुर कहते हैं- 'श्रीकृष्ण! वे सभी पापपूर्ण विचार लेकर बैठे हुए हैं; अत: उनके बीच में आपका जाना मुझे अच्छा नहीं लगता है। वे सब-के-सब दुर्बुद्धि, अशिष्ट और दुष्टचित हैं। उनकी संख्या भी बहुत है। श्रीकृष्ण! आप उनके बीच में जाकर कोई प्रतिकूल बात कहें, यह मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। दुर्योधन ने कभी वृद्ध पुरुषों का सेवन नहीं किया है। वह राजलक्ष्मी के घमंड से मोहित है। इसके सिवा उसे अपनी युवावस्था पर भी गर्व है और वह पांडवों के प्रति सदा अमर्ष में भरा रहता है। अत: आपकी हितकर बातें भी वह नहीं मानेगा। माधव! दुर्योधन के पास प्रबल सैन्यबल है। इसके सिवा आप पर उसे महान संदेह है। अत: आप यदि उससे अच्छी बात कहेंगे, तो भी वह आपकी बात नहीं मानेगा। जनार्दन! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को यह दृढ़ विश्वास है कि देवताओं सहित इन्द्र भी इस समय युद्ध के द्वारा हमारी इस सेना को परास्त नहीं कर सकते। जो इस प्रकार निश्चय किए बैठे हैं और काम-क्रोध के ही पीछे चलने वाले हैं, उनके प्रति आपका युक्तियुक्त एवं सार्थक वचन भी निरर्थक एवं असफल हो जाएगा। रथियों और घुड़सवारों से युक्त हाथियों की सेना के बीच में खड़ा होकर भय से रहित हुआ मंदबुद्धि मूढ़ दुर्योधन यह समझता है कि यह सारी पृथ्वी मैंने जीत ली। धृतराष्ट्र का वह ज्येष्ठ पुत्र भूमंडल का शत्रुरहित साम्राज्य पाने की आशा रखता है। वह मन-ही-मन यह संकल्प भी करता है कि जूए में प्राप्त हुआ यह धन एवं राज्य अब मेरे ही अधिकार में आबद्ध रहे; अत: उसके प्रति केवल संधि का प्रयत्न सफल न होगा। जान पड़ता है, अब यह पृथ्वी काल से परिपक्व होकर नष्ट होने वाली है; क्योंकि राजाओं के साथ भूमंडल के समस्त क्षत्रिय योद्धा दुर्योधन के लिए पांडवों के साथ युद्ध करने की इच्छा से यहाँ एकत्र हुए हैं।

श्रीकृष्ण! ये सब-के-सब वे ही भूपाल हैं, जिन्होंने पहले आपके साथ बैर ठाना था और जिनका सार-सर्वस्व आपने हर लिया था। ये लोग आपके भय से धृतराष्ट्रपुत्रों की शरण में आए हैं तथा कर्ण के साथ संगठित हो वीरता दिखाने को उद्यत हुए हैं। ये सब योद्धा दुर्योधन के साथ मिल गए हैं और अपने प्राणों का मोह छोड़कर हर्ष एवं उत्साह के साथ पांडवों से युद्ध करने को तैयार हैं। दशार्हवंशी वीर! ऐसे विरोधियों के बीच में यदि आप जाने को उद्यत हैं तो मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। शत्रुसूदन! जहाँ दुष्टतापूर्ण विचार लिए बहुसंख्यक शत्रु बैठे हों, वहाँ उनके बीच आप कैसे जाना चाहते हैं? शत्रुहंता महाबाहु श्रीकृष्ण! यद्यपि सम्पूर्ण देवता भी सर्वथा आपके सामने टिक नहीं सकते हैं तथा आपका जो प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धिबल है, उसे भी मैं जानता हूँ, तथापि माधव! पांडवों पर जो मेरा प्रेम है, वही और उससे भी बढ़कर आपके प्रति है। अत: प्रेम, अधिक आदर और सौहार्द से प्रेरित होकर मैं यह बात कह रहा हूँ। कमलनयन! आपके दर्शन से आपके प्रति मेरा जो प्रेम उमड़ आया है, उसका आपसे क्या वर्णन किया जाये? आप समस्त देहधारियों के अन्तर्यामी आत्मा हैं अत: स्वयं ही सब कुछ देखते और जानते हैं।'[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-15
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 92 श्लोक 16-30

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सेनोद्योग पर्व
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प्रजागर पर्व
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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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