संजय को युधिष्ठिर का उत्तर

महाभारत उद्योग पर्व में संजययान पर्व के अंतर्गत अट्ठाईसवें अध्याय में 'संजय को युधिष्ठिर का उत्तर' देने का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

संजय को युधिष्ठिर का उत्तर

इस कथा में वैशम्पायन जी ने संजय को युधिष्ठिर का उत्‍तर देने का वर्णन किया है-

युधिष्ठिर बोले- संजय! सब प्रकार के कर्मो में धर्म ही श्रेष्‍ठ है। यह जो तुमने कहा है, वह बिल्कुल ठीक है। इसमें रत्‍तीभर भी संदेह नहीं है; परंतु मैं धर्म कर रहा हूँ या अधर्म, इस बात को पहले अच्‍छी तरह जान लो; फिर मेरी निंदा करना। कहीं तो अधर्म ही धर्म का रूप धारण कर लेता है, कहीं पूर्णतया धर्म ही अधर्म दिखायी देता है तथा कहीं धर्म अपने वास्‍तविक स्‍वरूप को ही धारण किये रहता है। विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि से विचार करके उसके असली रूप को देख और समझ लेते हैं। इस प्रकार जो यह विभिन्‍न वर्णों का अपना-अपना लक्षण (लिंग)[2]है, वह ठीक उसी प्रकार उस-उस वर्ण के लिये धर्मरूप है और वही दूसरे वर्ण के लिये अधर्मरूप है। इस प्रकार य‍द्यपि धर्म और अधर्म सदा सुनिश्चितिरूप से रहते हैं तथापि आपत्तिकाल में वे दूसरे वर्ण के लक्षण को भी अपना लेते हैं। प्रथम वर्ण ब्राह्मण का जो विशेष लक्षण[3] है, वह उसी के लिये प्रमाणभूत है।[4]

युधिष्ठिर द्वारा संजय को धर्म के विषय में समझाना

संजय! आपद्धर्म का क्‍या स्‍वरूप है, उसे तुम[5] जानो। प्रकृति[6] का सर्वथा लोप हो जाने पर जिस वृत्ति का आश्रय लेने से (जीवन की रक्षा एवं) सत्‍कर्मों का अनुष्‍ठान हो सके, जीविकाहीन पुरुष उसे अवश्‍य अपनाने की इच्‍छा करें। संजय! जो प्रकृतिस्‍थ[7] होकर भी आपद्धर्म का आश्रय लेता है, वह[8] निंदनीय होता है तथा जो आपत्तिग्रस्‍त होने पर भी[9] जीविका नहीं चलाता है, वह[10]गर्हणीय होता है। इस प्रकार ये दोनों तरह के लोग निंदा के पात्र होते हैं। सूत![11] ब्राह्मणों का नाश न हो जाय, ऐसी इच्‍छा रखने वाले विधाता ने जो[12] प्रायश्चित करने का विधान किया है, उस पर दृष्टिपात करो। फिर यदि हम आपत्तिकाल में भी (स्‍वाभाविक) कर्मों में ही लगे हों और आपत्तिकाल न होने पर भी अपने वर्ण के विपरीत कर्मों में स्थित हो रहे हों तो उस दशा में हमें देखकर तुम (अवश्‍य) हमारी निंदा करो।

मनीषी पुरुषों को सत्त्‍व आदि के बंधन से मुक्‍त होने के लिये सदा ही सत्‍पुरुषों का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये, यह उनके लिये शास्‍त्रीय विधान है। पंरतु जो ब्राह्मण नहीं है तथा जिनकी ब्रह्मविद्या में निष्‍ठा नहीं है, उन सबके लिये सबके समीप अपने धर्म के अनुसार ही जीविका चलानी चाहिये। यज्ञ की इच्‍छा रखने वाले मेरे पूर्व पिता पितामह आदि तथा उनके भी पूर्वज उसी मार्ग पर चलते रहे[13] तथा जो कर्म करते हैं, वे भी उसी मार्ग से चलते आये हैं। मैं भी नास्तिक नहीं हूं, इसलिये उसी मार्ग पर चलता हूं; उसके सिवा दूसरे मार्ग पर विश्वास नहीं रखता हूँ।[1]

युधिष्ठिर द्वारा संजय को श्रीकृष्ण के विषय में बताना

संजय! इस धरातल पर जो कुछ भी धन-वैभव विद्यमान है, नित्‍य यौवन से युक्‍त रहने वाले देवताओं के यहाँ जो धनराशि है, उससे भी उत्‍कृष्‍ट जो प्रजापति का धन है तथा जो स्वर्गलोक एवं ब्रह्मलोक का सम्‍पूर्ण वैभव है, यह सब मिल रहा है, तो भी मैं उसे अधर्म से लेना नहीं चाहूंगा।

यहाँ धर्म के स्‍वामी, कुशल नीतिज्ञ, ब्राह्मण भक्त और मनीषी भगवान श्रीकृष्ण बैठे हैं, जो नाना प्रकार के महान बलशाली क्षत्रियों तथा भोजवंशियों का शासन करते हैं। यदि मैं सामनीति अथवा संधि का परित्‍याग करके निंदा का पात्र होता होऊं या युद्ध के लिये उद्यत होकर अपने धर्म का उल्‍लंघन करता होऊं तो ये महायशस्‍वी वसुदेवनंदन भगवान श्रीकृष्‍ण अपने विचार प्रकट करें; क्‍योंकि ये दोनों पक्षों का हित चाहने वाले हैं। ये सात्‍यकि, ये चेदि देश के लोग, ये अंधक, वृष्णि, भोज, कुकुर तथा सृंजय वंश के क्षत्रिय इन्‍हीं भगवान वासुदेव की सलाह से चलकर अपने शत्रुओं को बंदी बनाते और सुहृदों को आनन्दित करते हैं।

श्रीकृष्‍ण की बतायी हुई नीति के अनुसार बर्ताव करने से वृष्णि और अंधकवंश के सभी उग्रसेन आदि क्षत्रिय इन्‍द्र के समान शक्तिशाली हो गये हैं तथा सभी यादव मनस्‍वी, सत्‍यपरायण, महान बलशाली और भोग सामग्री से समपन्न हुए हैं।[14] काशीनरेश बभ्रु श्रीकृष्‍ण को ही शासक बन्‍धु के रूप में पाकर उत्तम राज्‍य-लक्ष्‍मी के अधिकारी हुए हैं। भगवान श्रीकृष्‍ण बभ्रु के लिये समस्‍त मनोवांञ्छित भोगों की वर्षा उसी प्रकार करते हैं, जैसे वर्षाकाल में मेघ प्रजाओं के लिये जल की वृष्टि करता है। तात संजय! तुम्‍हें मालूम होना चाहिये कि भगवान श्रीकृष्‍ण ऐसे प्रभावशाली और विद्वान हैं। ये प्रत्‍येक कर्म-का अंतिम परिणाम जानते हैं। ये हमारे सबसे बढ़कर प्रिय तथा श्रेष्‍ठतम पुरुष हैं। मैं इनकी आज्ञा का उल्‍लंघन नहीं कर सकता।[15]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-7
  2. जैसे ब्राह्मण के लिये अध्‍ययनाध्‍यापन आदि, क्षत्रिय के लिये शौर्य आदि तथा वैश्‍य के लिये कृषि आदि
  3. याजन और अध्‍यापन आदि
  4. क्षत्रिय आदि को आपत्तिकाल में भी याजन और अध्‍यापन आदि का आश्रय नहीं लेना चाहिये
  5. शास्त्र के वचनों द्वारा
  6. जीविका के साधन
  7. स्‍वाभाविक स्थिति में स्थित
  8. अपनी लोभवृति के कारण
  9. उस समय के अनुरूप शास्‍त्रोक्‍त साधन को अपना कर
  10. जीवन और कुटुम्‍ब की रक्षा न करने के कारण
  11. जी‍विका का मुख्‍य साधन न होने पर
  12. उनके लिये अन्‍य वर्णों की वृत्ति से जीविका चलाकर अन्‍त में
  13. जिसकी मैंने ऊपर चर्चा की है
  14. पौण्‍ड्रक वासुदेव के छोटे भाई
  15. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 28 श्लोक 8-14

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उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

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अम्बोपाख्यानपर्व
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