संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

महाभारत उद्योग पर्व में संजययान पर्व के अंतर्गत द्वात्रिंश अध्याय में 'संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

संजय तथा राजा धृतराष्‍ट्र का संवाद

संजय द्वारा हस्तिनापुर पहुँचने पर धृतराष्ट्र ने कहा-तात मैं तुम्‍हारा स्‍वागत करके पूछता हूँ कि कुंतीनंदन अजातशत्रु युधिष्ठिर सुख से हैं न? क्‍या कौरवों के राजा युधिष्ठिर अपने पुत्र, मंत्री तथा छोटे भाइयों सहित सकुशल हैं?[2]संजय ने कहा-‘पाण्‍डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियों सहित सकुशल हैं और पहले आपके सामने जो उनका राज्‍य और धन आदि उन्‍हें प्राप्‍त था, उसे पुन: वापस लेना चाहते हैं। वे विशुद्धभाव से धर्म और अर्थ का सेवन करने वाले, मनस्‍वी, विद्वान दूरदर्शी और शीलवान हैं। भारत! पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर की दृष्टि में अन्‍य धर्मों की अपेक्षा दया ही परम धर्म है। वे धनसंग्रह की अपेक्षा धर्म-पालन को ही श्रेष्‍ठ मानते हैं। उनकी बुद्धि धर्मविहीन एवं निष्‍प्रयोजन सुख तथा प्रिय वस्‍तुओं का अनुसरण नहीं करती है। महाराज! सूत में बंधी हुई कठपुतली जिस प्रकार दूसरों से प्रेरित होकर ही नृत्‍य करती है, उसी प्रकार मनुष्‍य परमात्‍मा की प्रेरणा से ही प्रत्‍येक कार्य के लिये चेष्‍टा करता है। पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर के इस कष्‍ट को देखकर मैं यह मानने लगा हूँ कि मनुष्‍य पुरुषार्थ की अपेक्षा दैव (ईश्र्वरीय) विधान ही बलवान है। अपका कर्मदोष अत्‍यंत भयंकर, अवर्णनीय तथा भविष्‍य में पाप एवं दु:ख की प्राप्ति कराने वाला है। इसे भी देखकर मैं इसी निश्चय पर पहुँचा हूँ कि परमात्‍मा का विधान ही प्रधान है। जब तक विधाता चाहता है, तभी तक यह मनुष्‍य सीमित समय तक ही प्रशंसा पाता है। जैसे सर्प पुरानी केंचुल को, जो शरीर में ठहर नहीं सकती, उसे उतार कर चमक उठता है, उसी प्रकार अजातशत्रु वीर युधिष्ठिर पाप का परित्‍याग करके और उस पाप को आप पर ही छोड़कर अपने स्‍वाभाविक सदाचार से सुशोभित हो रहे हैं।

संजय द्वारा धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

महाराज! जरा आप अपने कर्म पर तो ध्‍यान दीयिये। धर्म और अर्थ से युक्‍त जो श्रेष्‍ठ पुरुषों का व्‍यवहार है, आपका बर्ताव उससे सर्वथा विपरीत है। राजन इसी के कारण इस लोक में आपकी निंदा हो रही है और पुन: परलोक में भी आपको पापमय नरका का दु:ख भोगना पड़ेगा। भरतवंश शिरोमणे! आप इस समय अपने पुत्रों के वश में होकर पाण्‍डवों को अलग करके अकेले उनकी सारी सम्‍पत्ति ले लेना चाहते हैं; पहले तो इसकी सफलता में ही संदेह है।[3] इस भूमण्‍डल में इस अधर्म के कारण आपकी बड़ी भारी निंदा होगी। अत: यह कार्य कदापि आपके योग्‍य नहीं है। जो लोग बुद्धिहीन, नीच कुल में उत्‍पन्‍न,क्रुर, दीर्घकाल-तक वैरभाव बनाये रखने वाले, क्षत्रियोचित्‍त युद्धविद्या में अ‍नभिज्ञ, परा‍क्रमहीन और अशिष्‍ट होते हैं, ऐसे ही स्‍वभाव के लोगों पर आपत्तियां आती हैं।

जो कुलही, बलवान, यशस्‍वी, बहुत विद्वान, सुखजीवी और मन को वश में रखने वाला है तथा जो परस्‍पर गुंथे हुए धर्म ओर अधर्म को धारण करता है, वही भाग्‍यवश अभीष्‍ठ गुण-सम्‍पत्ति प्राप्‍त करता है। आप श्रेष्‍ठ मन्त्रियों का सेवन करने वाले हैं, स्‍वयं भी बुद्धिमान हैं, आपत्तिकाल में धर्म और अर्थ का उचित रूप से प्रयोग करते हैं, सब प्रकार की अच्‍छी सलाहों से भी आप युक्‍त हैं। फिर आप-जैसे साधन सम्‍पन्‍न विद्वान पुरुष ऐसा क्रूरतापूर्ण कार्य कैसे कर सकते हैं? सदा कर्मों में नियुक्‍त किये हुऐ ये आपके मन्‍त्रवेत्‍ता मन्‍त्री कर्ण आदि एकत्र होकर बैठक किया करते हैं। इन्‍होंने[4] जो प्रबल निश्चय कर लिया है, यह अवश्‍य ही कौरवों के भावी विनाश का कारण बन गया है। पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर के इस कष्‍ट को देखकर मैं यह मानने लगा हूँ कि मनुष्‍य पुरुषार्थ की अपेक्षा दैव (ईश्र्वरीय) विधान ही बलवान है। अपका कर्मदोष अत्‍यंत भयंकर, अवर्णनीय तथा भविष्‍य में पाप एवं दु:ख की प्राप्ति कराने वाला है। इसे भी देखकर मैं इसी निश्चय पर पहुँचा हूँ कि परमात्‍मा का विधान ही प्रधान है। जब तक विधाता चाहता है, तभी तक यह मनुष्‍य सीमित समय तक ही प्रशंसा पाता है। जैसे सर्प पुरानी केंचुल को, जो शरीर में ठहर नहीं सकती, उसे उतार कर चमक उठता है, उसी प्रकार अजातशत्रु वीर युधिष्ठिर पाप का परित्‍याग करके और उस पाप को आप पर ही छोड़कर अपने स्‍वाभाविक सदाचार से सुशोभित हो रहे हैं। महाराज! जरा आप अपने कर्म पर तो ध्‍यान दीयिये।[1]


राजन! यदि अजातशत्रु युधिष्ठिर[5] आप पर ही सारे पापों (दोषों)का भार डालकर [6] पाप के बदले पाप करने की इच्‍छा कर लें तो सारे कौरव असमय में ही नष्‍ट हो जायं और संसार में केवल आपकी निंदा फैल जाय। ऐसी कौन-सी वस्‍तु है, जो लोकपालों के अधिकार से बाहर हो? तभी तो अर्जुन [7] स्‍वर्ग-लोक को देखने के लिये गये थे। इस प्रकार लोकपालों द्वारा सम्‍मानित होने पर भी उन्‍हें कष्‍ट भोगना पड़ता है तो नि:संदेह यह कहा जा सकता है कि दैवबल के सामने मनुष्‍य का पुरुषार्थ कुछ भी नहीं है। ये शोर्य, विद्या आदि गुण अपने पूर्वकर्म के अनुसार ही प्राप्‍त होते हैं और प्राणियों की वर्तमान उन्‍नति तथा अवनति भी अनित्‍य है। यह सब सोचकर राजा बलि ने जब इसका पार नहीं पाया, तब यही निश्चय किया कि इस विषय में काल (दैव) के सिवा और कोई कारण नहीं है। आंख, कान, नाक, त्‍वचा तथा जिहृा-ये पांच ज्ञानेन्द्रियां समस्‍त प्राणियों के रूप आदि विषयों के ज्ञान के स्‍थान (कारण) हैं[8]

तृष्‍णा का अंत होने के पश्चात ये सदा प्रसन्‍न ही रहती हैं। अत: मनुष्‍य को चाहिये कि वह व्‍यथा और दु:ख से रहित हो तृष्‍णा की निवृत्ति के लिये उन इन्द्रियों को अपने वश में करे। कहते हैं, केवल पुरुषार्थ का अच्‍छे ढंग से प्रयोग होने पर भी वह उत्‍तम फल देने वाला होता है, जैसे माता-पिता के प्रयत्‍न से उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र विधिपूर्वक भोजनादि द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त होता है; परंतु मैं इस मान्‍यता पर विश्वास नहीं करता [9]। राजन! इस जगत में प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख, निंदा-प्रशंसा- ये मनुष्‍य को प्राप्‍त होते ही रहते हैं। इसीलिये लोग अपराध करने पर अपराधी की निंदा करते हैं ओर जिसका बर्ताव उत्‍तम होता है, उस साधु पुरुष की ही प्रशंसा करते हैं। अत: आप जो भरतवंश में विरोध फैलाते हैं, इसके कारण मैं तो आपकी निंदा करता हूं; क्‍योंकि इस कौरव-पाण्‍डव-विरोध से निश्चय ही समस्‍त प्रजाओं का विनाश होगा। यदि आप मेरे कथनानुसार कार्य नहीं करेंगे तो आपके अपराध से अर्जुन समस्‍त कौरव वंश को उसी प्रकार दग्‍ध कर डालेंगे, जैसे आग घास-फूस के समूह को जला देती है।

राजन! महाराज! समस्‍त संसार में एकमात्र आप ही अपने स्‍वेच्‍छाचारी पुत्र की प्रशंसा करते हुए उसके अधीन होकर द्यूतक्रीड़ा के समय जो उसकी प्रशंसा करते थे तथा [10] शां‍त न हो सके, उसका अब यह भयंकर परिणाम अपनी आंखों से देख लीजिये। नरेन्‍द्र! आपने ऐसे लोगों [11]को इकट्ठा कर लिया है, जो विश्वास के योग्‍य नहीं है तथा विश्वसनीय पुरुषों (पाण्‍डवों) को आपने दण्‍ड दिया है, अत: कुरुकुल नंदन! अपनी इस (मा‍नसिक) दुर्बलता के कारण आप अनंत एवं समृद्धिशालिनी पृथ्वी की रक्षा करने में कभी समर्थ नहीं हो सकते। नरश्रेष्‍ठ! इस समय रथ के वेग से हिलने डुलने के कारण मैं थक गया हूं, यदि आज्ञा हो तो सोने के लिये जाऊँ। प्रात:-काल जब सभी कौरव सभा में एकत्र होंगे, उस समय वे अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनेंगे। धृतराष्‍ट्र ने कहा- सूतपुत्र! मैं आज्ञा देता हूं, तुम अपने घर जाओ और शयन करो। सबेरे सब कौरव सभा में एकत्र हो तुम्‍हारे मुख से अजातशत्रु युधिष्ठिर के संदेश को सुनेंगे।[8]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 32 श्लोक 11-21
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-10
  3. और यदि आप सफल हो भी जायं तो
  4. पाण्‍डवों को राज्‍य न देने का
  5. आपको ही दोषी ठहराकर
  6. आपकी ही भाँति
  7. इन्‍द्रकील पर्वत पर लोकपालों से मिलकर एवं उनसे अस्‍त्र प्राप्‍त करके भू और भुवलोंक को लांघकर
  8. 8.0 8.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 32 श्लोक 22-32
  9. क्‍योंकि इस विषय में दैव ही प्रधान है
  10. राज्‍य का लोभ छोड़कर
  11. शकुनि-कर्ण आदि

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सैन्यनिर्याणपर्व
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उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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