धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना

नारद जी दुर्योधन को राजा ययाति के अभिमान और गालव मुनि की हठ से होने वाले दुष्परिणामों को बताते हुये समझाते हुए कहते हैं कि- 'राजन! इस प्रकार पूर्वकाल में राजा ययाति अपने अभिमान के कारण संकट में पड़ गये थे और अत्यंत आग्रह एवं हठ के कारण महर्षि गालव को भी महान क्लेश सहन करना पड़ा था। अत:तुम्हें तुम्हारे हित की इच्छा रखने वाले सुहृदों की बात अवश्य सुननी और माननी चाहिए।' अब धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 124 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

धृतराष्ट्र द्वारा कृष्ण के अनुरोध करना

धृतराष्ट्र बोले– भगवन नारद! आप जैसा कहते हैं, वह ठीक है। मैं भी यही चाहता हूँ, परंतु मेरा कोई वश नहीं चलता है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! नारद जी से ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘केशव! आपने मुझसे जो बात कही है, वह इहलोक और स्वर्गलोक में हितकर, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है। तात जनार्दन! मैं अपने वश में नहीं हूँ। जो कुछ किया जा रहा है, वह मुझे प्रिय नहीं है। किन्तु क्या कहूँ? मेरे दुरात्मा पुत्र मेरी बात नहीं मानेंगे। प्रिय श्रीकृष्ण! महाबाहु पुरुषोत्तम! शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले मेरे इस मूर्ख पुत्र दुर्योधन को आप ही समझा-बुझाकर राह पर लाने का प्रयत्न कीजिये। महाबाहु हृषीकेश! यह सत्पुरुषों की कही हुई बातें नहीं सुनता है। गांधारी, बुद्धिमान विदुर तथा हित चाहने वाले भीष्म आदि अन्यान्य सुहृदों की भी बातें नहीं सुनता है। जनार्दन! दुरात्मा राजा दुर्योधन की बुद्धि पाप में लगी हुई है। यह पाप का ही चिंतन करने वाला, क्रूर और विवेकशून्य है। आप ही इसे समझाइए। यदि आप इसे संधि के लिए राजी कर लें तो आपके द्वारा सुहृदों का यह बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न हो जाएगा।[1]

भगवान श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना

सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले वृष्णिनन्दन भगवान श्रीकृष्ण अमर्षशील दुर्योधन की ओर घूमकर मधुर वाणी में उससे बोले- ‘कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन! तुम मेरी यह बात सुनो। भारत! मैं विशेषत: सगे-संबंधियों सहित तुम्हारे कल्याण के लिए ही तुम्हें कुछ परामर्श दे रहा हूँ। तुम परमज्ञानी महापुरुषों के कुल में उत्पन्न हुए हो। स्वयं भी शास्त्रों के ज्ञान तथा सद्‌व्यवहार से सम्पन्न हो। तुममें सभी उत्तम गुण विद्यमान हैं; अत: तुम्हें मेरी यह अच्छी सलाह अवश्य माननी चाहिए। तात! जिसे तुम ठीक समझते हो, ऐसा अर्धम कार्य तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा जो दुष्टचित्त, क्रूर एवं निर्लज्ज हैं। भरतश्रेष्ठ! इस जगत में सत्पुरुषों का व्यवहार धर्म और अर्थ से युक्त देखा जाता है और दुष्टों का बर्ताव ठीक इसके विपरीत दृष्टिगोचर होता है। तुम्हारे भीतर यह विपरीत वृत्ति बारंबार देखने में आती है। भारत! इस समय तुम्हारा जो दुराग्रह है, वह अधर्ममय ही है। उसके होने का कोई समुचित कारण भी नहीं है। यह भयंकर हठ अनिष्टकारक तथा महान प्राणनाशक है। तुम इसे सफल बना सको, यह संभव नहीं है। परंतप! यदि तुम उस अनर्थकारी दुराग्रह को छोड़ दो तो अपने कल्याण के साथ ही भाइयों, सेवकों तथा मित्रों का भी महान हित साधन करोगे। ऐसा करने पर तुम्हें अधर्म और अपयश की प्राप्ति कराने वाले कर्म से छुटकारा मिल जाएगा। अत: भरतकुलभूषण पुरुषसिंह! तुम ज्ञानी, परम उत्साही, शूरवीर, मनस्वी एवं अनेक शास्त्रों के ज्ञाता पांडवों के साथ संधि कर लो। यही परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को भी प्रिय एवं हितकर जान पड़ता है। परंतप! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण , महामती विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान बाह्लीक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा अन्यान्य कुटुंबी जनों एवं मित्रों को भी यही अधिक प्रिय है।[1]

तात! संधि होने पर ही सम्पूर्ण जगत का भला हो सकता है। तुम श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, लज्जाशील, शास्त्रज्ञ और क्रूरता से रहित हो। अत: भरतश्रेष्ठ! तुम पिता और माता के शासन के अधीन रहो। भारत! पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसी को श्रेष्ठ पुरुष अपने लिए कल्याणकारी मानते हैं। भारी आपत्ति में पड़ने पर सब लोग अपने पिता के उपदेश को ही स्मरण करते हैं। तात! मंत्रियों सहित तुम्हारे पिता को पांडवों के साथ संधि कर लेना ही अच्छा जान पड़ता है। कुरुश्रेष्ठ! यही तुम्हें भी पसंद आना चाहिए। जो मनुष्य सुहृदों के मुख से शास्त्र सम्मत उपदेश सुनकर भी उसे स्वीकार नहीं करता है, उसका यह अस्वीकार उसे परिणाम में उसी प्रकार शोकदग्ध करता है, जैसे खाया हुआ इन्द्रायण फल पाचन के अंत में दाह उत्पन्न करने वाला होता है। जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भृष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है। जो मानव अपने कल्याण की बात सुनकर अपने मत का आग्रह छोड़कर पहले उसी को ग्रहण करता है, वह संसार में सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। जो अपनी ही भलाई चाहने वाले अपने सुहृद के वचनों को मन के प्रतिकूल होने के कारण नहीं सहन करता है और उन असुहृदों के प्रतिकूल कहे हुए वचनों को ही सुनता है, वह शत्रुओं के अधीन हो जाता है। जो मनुष्य सत्पुरुषों की सम्मति का उल्लंघन करके दुष्टों के मत के अनुसार चलता है, उसके सुहृद उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख शोक के भागी होते हैं।

जो अपने मुख्यमंत्रियों को छोड़कर नीच प्रकृति के लोगों का सेवन करता है, वह भयंकर विपत्ति में फँसकर अपने उद्धार का कोई मार्ग नहीं देख पाता है। भारत! जो दुष्ट पुरुषों का संग करने वाला और मिथ्याचारी होकर अपने श्रेष्ठ सुहृदों की बात नहीं सुनता है, दूसरों को अपनाता और आत्मीयजनों से द्वेष रखता है, उसे यह पृथ्वी त्याग देती है। भरतश्रेष्ठ! तुम उन वीर पांडवों से विरोध करके दूसरे अशिष्ट, असमर्थ और मूढ़ मनुष्यों से अपनी रक्षा चाहते हो। इस भूतल पर तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो इंद्र के समान पराक्रमी एवं महारथी बंधु-बांधवों को त्याग कर दूसरों से अपनी रक्षा की आशा करेगा? तुमने जन्म से ही कुंती के पुत्रों के साथ सदा शठतापूर्ण बर्ताव किया है, परंतु वे इसके लिए कभी कुपित नहीं हुए हैं; क्योंकि पांडव धर्मात्मा हैं। तात महाबाहो! यद्यपि तुमने अपने ही भाई पांडवों के साथ जन्म से ही छल कपट का बर्ताव किया है, तथापि वे यशस्वी पांडव तुम्हारे प्रति सदा सद्भाव ही रखते आए हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम्हें भी अपने उन श्रेष्ठ बंधुओं के प्रति वैसा ही बर्ताव करना चाहिए। तुम क्रोध के वशीभूत न होना। भरतभूषण! विद्वान एवं बुद्धिमान पुरुषों का प्रत्येक कार्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की सिद्धि के अनुकूल ही होता है। यदि तीनों की सिद्धि असंभव हो तो बुद्धिमान मानव धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करते हैं।[2]

प्रथक प्रथक स्थित हुए धर्म, अर्थ और काम में से किसी एक को चुनना हो तो धीर पुरुष धर्म का ही अनुसरण करता है, मध्यम श्रेणी का मनुष्य कलह के कारणभूत अर्थ को ही ग्रहण करता है और अधम श्रेणी का अज्ञानी पुरुष काम को ही पाना चाहता है। जो अधम मनुष्य इंद्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर्म को छोड़ देता है, वह अयोग्य उपायों से अर्थ और काम की लिप्सा में पड़कर नष्ट हो जाता है। जो अर्थ और काम प्राप्त करना चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिए; क्योंकि अर्थ और काम कभी धर्म से प्रथक नहीं होता है। प्रजानाथ! विद्वान पुरुष धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय बताते हैं। अत: जो धर्म के द्वारा अर्थ और काम को पाना चाहता है, वह शीघ्र ही उसी प्रकार उन्नति की दिशा में आगे बढ़ जाता है, जैसे सूखे तिनकों में लगी हुई आग बढ़ जाती है। तात भरतश्रेष्ठ! तुम समस्त राजाओं में विख्यात इस विशाल एवं उज्ज्वल साम्राज्य को अनुचित उपाय से पाना चाहते हो। राजन! जो उत्तम व्यवहार करने वाले सत्पुरुषों के साथ असद्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से जंगल की भाँति उस दुर्व्यवहार से अपने-आपको ही काटता है। मनुष्य जिसका पराभाव न करना चाहे, उसकी बुद्धि का उच्छेद न करे। जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उसी पुरुष का मन कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत होता है।

भरतनन्दन! मनस्वी पुरुष को चाहिए की वह तीनों लोकों में किसी प्राकृत[3] पुरुष का भी अपमान न करे, फिर इन श्रेष्ठ पांडवों के अपमान की तो बात ही क्या है? ईर्ष्या के वश में रहने वाला मनुष्य किसी बात को ठीक से समझ नहीं पाता। भरतनन्दन! देखो, ईर्ष्यालु मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत किए हुए सम्पूर्ण विस्तृत प्रमाण भी उच्छिन्न से हो जाते हैं। तात! किसी भी दुष्ट मनुष्य का साथ करने की अपेक्षा पांडवों के साथ मेल मिलाप रखना तुम्हारे लिए विशेष कल्याणकारी है। पांडवों से प्रेम रखने पर तुम सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ! तुम पांडवों द्वारा स्थापित राज्य का उपभोग कर रहे हो, तो भी उन्हीं को पीछे करके अर्थात उनकी अवहेलना करके दूसरों से अपनी रक्षा की आशा रखते हो। भारत! तुम दु:शासन, दुर्विषह, कर्ण और शकुनि- इन सब पर अपने ऐश्वर्य का भार रखकर उन्नति की इच्छा रखते हो? भरतनंदन! ये तुम्हें ज्ञान, धर्म और अर्थ की प्राप्ति कराने में समर्थ नहीं हैं और पांडवों के सामने पराक्रम प्रकट करने में भी ये असमर्थ ही हैं। तुम्हारे सहित ये सब राजा लोग भी युद्ध में कुपित हुए भीमसेन के मुख की ओर आँख उठाकर देख ही नहीं सकते। तात! तुम्हारे निकट जो यह समस्त राजाओं की सेना एकत्र हुई है, यह तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और जयद्रथ- ये सभी मिलकर भी अर्जुन का सामना करने में समर्थ नहीं हैं। सम्पूर्ण देवता और असुर भी युद्ध में अर्जुन को जीत नहीं सकते। वे समस्त मनुष्यों और गन्धर्वों के द्वारा भी अजेय हैं, अत: तुम युद्ध का विचार मत करो। राजाओं की इन सम्पूर्ण सेनाओं में किसी ऐसे पुरुष पर दृष्टिपात तो करो, जो युद्ध में अर्जुन का सामना करके कुशलपूर्वक अपने घर लौट सके?[4]

भरतश्रेष्ठ! यह नरसंहार करने से तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम अपने पक्ष में किसी ऐसे पुरुष को ढूंढ निकालो, जो उस अर्जुन पर विजय पा सके, जिसके जीते जाने पर तुम्हारे पक्ष की विजय मान ली जाये। जिन्होंने खांडव वन में गन्धर्वों, यक्षों, असुरों और नागों सहित सम्पूर्ण देवताओं को जीत लिया था, उन अर्जुन के साथ कौन मनुष्य युद्ध कर सकेगा? इसके सिवा विराट नगर में जो बहुत से महारथी योद्धाओं के साथ एक अर्जुन के युद्ध की अत्यंत अद्भुत घटना सुनी जाती है, वह एक ही युद्ध के भावी परिणाम को बताने के लिए प्रयाप्त है। जिन्होंने युद्ध में साक्षात महादेव शिव को अपने पराक्रम से संतुष्ट किया है, अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले उन अजेय, दुर्धर्ष एवं विजयशील बलशाली वीर अर्जुन को तुम युद्ध में जीतने की आशा रखते हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। फिर मैं जिसका सारथी बनकर साथ रहूँ और वह अर्जुन प्रतिपक्षी होकर युद्ध के लिए आए, उस समय साक्षात इंद्र ही क्यों न हों, कौन अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहेगा? जो समरभूमि में अर्जुन को जीत सकता है, वह मानो अपनी दोनों भुजाओं पर पृथ्वी को उठा सकता है, कुपित होने पर इस समस्त प्रजा को दग्ध कर सकता है और देवताओं को स्वर्ग से नीचे गिरा सकता है। दुर्योधन! अपने इन पुत्रों, भाइयों, कुटुंबीजनों और सगे-संबंधियों की और तो देखो। ये श्रेष्ठ भरतवंशी तुम्हारे कारण नष्ट न हो जाएँ। नरेश्वर! कौरव वंश बचा रहे, इस कुल का पराभव न हो और तुम भी अपनी कीर्ति का नाश करके कुलघाती न कहलाओ। महारथी पांडव तुम्हीं को युवराज के पद पर स्थापित करेंगे और तुम्हारे पिता राजा धृतराष्ट्र को महाराज के पद पर बनाए रखेंगे। तात! अपने घर में आने को उद्यत हुई राजलक्ष्मी का अपमान न करो। कुंती के पुत्रों को आधा राज्य देकर स्वयं विशाल संपती का उपभोग करो। पांडवों के साथ संधि करके और अपने हितैषी सुहृदयों की बात मानकर मित्रों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हुए तुम दीर्घकाल तक कल्याण के भागी बने रहोगे।'[5]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-18
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 19-34
  3. निम्न श्रेणी के
  4. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 35-51
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 124 श्लोक 52-62

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महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
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प्रजागर पर्व
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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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