द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना

महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 82वें अध्याय में 'द्रौपदी का कृष्ण को अपना दुख सुनाने' का वर्णन है, जो इस प्रकार है-[1]

द्रौपदी द्वारा श्रीकृष्ण को युद्ध के लिये उत्तेजित करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय सिर पर अत्यंत काले और लंबे केश धारण करने वाली द्रुपदराजकुमारी कृष्णा राजा युधिष्ठिर के धर्म और अर्थ से युक्त हितकर वचन सुनकर शोक से कातर हो उठी और महारथीसात्यकि तथा सहदेव की प्रशंसा करके वहाँ बैठे हुए दशार्हकुल भूषण श्रीकृष्ण से कुछ कहने को उद्यत हुई। भीमसेन को अत्यंत शांत देख मनस्विनी द्रौपदी के मन में बड़ा दु:ख हुआ। उसकी आँखों में आँसू भर आए और वह श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोली। 'धर्म के ज्ञाता महाबाहु मधुसूदन! आपको तो मालूम ही है कि मंत्रियों सहित धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने किस प्रकार शठता का आश्रय लेकर पांडवों को सुख से वंचित कर दिया।

दशार्हनन्दन! राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहने के लिए संजय को एकांत में जो मंत्र[2] सुनाकर यहाँ भेजा था, वह भी आपको ज्ञात ही है तथा धर्मराज ने संजय से जैसी बातें कही थीं, उन सबको भी आपने सुन ही लिया है। महातेजस्वी केशव! इन्होंने संजय से इस प्रकार कहा था 'संजय! तुम दुर्योधन और उसके सुहृदों के सामने मेरी यह मांग रख देना- 'तात! तुम हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत तथा अंतिम पाँचवाँ कोई एक गाँव- इन पाँच गांवों को ही दे दो। दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण! संधि की इच्छा रखने वाले श्रीमान युधिष्ठिर का यह नम्रतापूर्ण वचन सुनकर भी उसे दुर्योधन ने स्वीकार नहीं किया। भगवन! आपके वहाँ जाने पर यदि दुर्योधन राज्य दिये बिना ही संधि करना चाहे तो आप इसे किसी तरह स्वीकार न कीजिएगा। महाबाहो! पांडव लोग सृंजय वीरों के साथ क्रोध में भरी हुई दुर्योधन की भयंकर सेना का अच्छी तरह सामना कर सकते हैं।

मधुसूदन! कौरवों के प्रति साम और दाननीति का प्रयोग करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। अत: उन पर आपको कभी कृपा नहीं करनी चाहिए। श्रीकृष्ण! अपने जीवन की रक्षा करने वाले पुरुष को चाहिए कि जो शत्रु साम और दान से शांत न हों, उन पर दंड का प्रयोग करे। अत: महाबाहु अच्युत! आपको तथा सृंजयों सहित पांडवों को उचित है कि वे उन शत्रुओं को शीघ्र ही महान दंड दें। यही कुंतीकुमारों के योग्य कार्य है। श्रीकृष्ण! यदि यह किया जाये तो आपके भी यश का विस्तार होगा और समस्त क्षत्रिय समुदाय को भी सुख मिलेगा। दशार्हनन्दन! अपने धर्म का पालन करने वाले क्षत्रिय को चाहिए कि वह लोभ का आश्रय लेने वाले मनुष्य को भले ही वह क्षत्रिय हो या अक्षत्रिय, अवश्य मार डाले। तात! ब्राह्मणों के सिवा दूसरे वर्णों पर ही यह नियम लागू होता है। ब्राह्मण सब पापों में डूबा हो, तब भी उसे प्राण दंड नहीं देना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण सब वर्णों का गुरु तथा दान में दी हुई वस्तुओं का सर्वप्रथम भोक्ता है अर्थात्‌ पहला पात्र है। जनार्दन! जैसे अवध्य का वध करने पर महान दोष लगता है, उसी प्रकार वध्य का वध न करने से भी दोष की प्राप्ति होती है। यह बात धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं। श्रीकृष्ण! आप सैनिकों सहित सृंजयों, पांडवों तथा यादवों के साथ ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे आपको यह दोष न छू सके। जनार्दन! आप पर अत्यंत विश्वास होने के कारण मैं अपनी कही हुई बात को पुन: दुहराती हूँ।

द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख बताना

केशव! इस पृथ्वी पर मेरे समान स्त्री कौन होगी?। मैं महाराज द्रुपद की पुत्री हूँ। यज्ञ वेदी के मध्य भाग से मेरा जन्म हुआ है। श्रीकृष्ण! मैं वीर धृष्टद्युम्न की बहिन और आपकी प्रिय सखी हूँ। मैं परम प्रतिष्ठित अजमीढ़कुल में ब्याहकर आई हूँ। महात्मा राजा पांडु की पुत्रवधू तथा पाँच इन्द्रों के समान तेजस्वी पाण्डुपुत्रों की पटरानी हूँ।[1] पाँच वीर पतियों से मैंने पाँच महारथी पुत्रों को जन्म दिया है। श्रीकृष्ण! जैसे अभिमन्यु आपका भांजा है, उसी प्रकार मेरे पुत्र भी धर्मत: आपके भांजे ही हैं। केशव! इतनी सम्मानित और सौभाग्यशालिनी होने पर भी मैं पांडवों के देखते-देखते और आपके जीते-जी केश पकड़कर सभा में लायी गयी और मेरा बारंबार अपमान किया गया एवं मुझे क्लेश दिया गया। पांडवों, पांचालों और यदुवंशियों के जीते-जी मैं पापी कौरवों की दासी बनी और उसी रूप में सभा के बीच मुझे उपस्थित होना पड़ा। पांडव यह सब कुछ देख रहे थे, तो भी न तो इनका क्रोध ही जागा और न इन्होंने मुझे उनके हाथ से छुड़ाने की चेष्ठा ही की। उस समय मैंने अत्यंत असहाय होकर मन ही मन आपका चिंतन किया और कहा- 'गोविंद! मेरी रक्षा कीजिये' प्रभो! तब आपने ही कृपा करके मेरी लाज बचाई।[3]

उस सभा में मेरे ऐश्वर्यशाली राजा धृतराष्ट्र ने मुझे आदर देते हुए कहा- 'पांचालराजकुमारी! मैं तुम्हें अपनी ओर से मनोवांछित वर पाने के योग्य मानता हूँ। तुम कोई वर माँगों।' तब मैंने उनसे कहा- 'पांडव रथ और आयुधों सहित दासभाव से मुक्त हो जाएँ।' केशव! मेरे इतना कहने पर ये लोग वनवास का कष्ट भोगने के लिए दासभाव से मुक्त हुए थे। जनार्दन! हम लोगों पर ऐसे-ऐसे महान दु:ख आते रहे हैं, जिन्हें आप अच्छी तरह जानते हैं। कमलनयन! पति, कुटुंबी तथा बांधवजनों सहित हम लोगों की आप रक्षा करें। श्रीकृष्ण! मैं धर्मत: भीष्म और धृतराष्ट्र दोनों की ही पुत्रवधू हूँ, तो भी उनके सामने ही मुझे बलपूर्वक दासी बनाया गया। भगवन! ऐसी दशा में यदि दुर्योधन एक मुहूर्त भी जीवित रहता है तो अर्जुन के धनुषधारण और भीमसेन के बल को धिक्कार है। श्रीकृष्ण! यदि मैं आपकी अनुग्रहभाजन हूँ, यदि मुझ पर आपकी कृपा है तो आप धृतराष्ट्र के पुत्रों पर पूर्ण रूप से क्रोध कीजिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर सुंदर अंगों वाली, श्यामलोचना, कमलनयनी एवं गजगामिनी द्रुपदकुमारी कृष्णा अपने उन केशों को, जो देखने में अत्यंत सुंदर, घुँघराले, अत्यंत काले, एकत्र आबद्ध होने पर भी कोमल, सब प्रकार की सुगंधों से सुवासित, सभी शुभ लक्षणों से सुशोभित तथा विशाल सर्प के समान कांतिमान थे, बाएँ हाथ में लेकर कमलनयन श्रीकृष्ण के पास गयी और नेत्रों में आँसू भरकर इस प्रकार बोली- 'कमललोचन श्रीकृष्ण! शत्रुओं के साथ संधि की इच्छा से आप जो-जो कार्य या प्रयत्न करें, उन सब में दु:शासन के हाथों से खींचे हुए इन केशों को याद रखें। श्रीकृष्ण! यदि भीमसेन और अर्जुन कायर होकर कौरवों के साथ संधि की कामना करने लगे हैं, तो मेरे वृद्ध पिताजी अपने महारथी पुत्रों के साथ शत्रुओं से युद्ध करेंगे। 'मधुसूदन! मेरे पाँच महापराक्रमी पुत्र भी वीर अभिमन्यु को प्रधान बनाकर कौरवों के साथ संग्राम करेंगे। यदि मैं दु:शासन की साँवली भुजा को कटकर धूल में लोटती न देखूँ तो मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी? प्रज्वलित अग्नि के समान इस प्रचंड क्रोध को हृदय में रखकर प्रतीक्षा करते मुझे तेरह वर्ष बीत गए हैं। 'आज भीमसेन के संधि के लिए कहे गए वचन मेरे हृदय में बाण के समान लगे हैं, जिनसे पीड़ित होकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। हाय! ये महाबाहु आज मेरे अपमान को भुलाकर केवल धर्म का ही ध्यान धर रहे हैं।[3]इतना कहने के बाद पीन एवं विशाल नितंबों वाली विशाललोचना द्रुपदकुमारी कृष्णा का कंठ आंसुओं से रुँध गया। वह काँपती हुई अश्रुगग्दद वाणी में फूट-फूटकर रोने लगी। उसके परस्पर सटे हुए स्तनों पर नेत्रों से गरम-गरम आंसुओं की वर्षा होने लगी, मानो वह अपने भीतर की द्रवीभूत क्रोधाग्नि को ही उन वाष्प बिन्दुओं के रूप में बिखेर रही हो।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-22
  2. अपना विचार
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 82 श्लोक 23-41
  4. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 82 श्लोक 42-49

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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
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