शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होना

महाभारत उद्योग पर्व के सेनोद्योगपर्व के अंतर्गत आठवें अध्याय में 'शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होने' का वर्णन है। यहाँ वैशम्पायन जी ने दुर्योधन के सत्कार से शल्य के प्रसन्न होने की कथा कही गयी है।[1]

शल्य का पांडवों के पास जाना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! पाण्डवों के दूतों के मुख से उनका संदेश सुनकर राजा शल्य अपने महारथी पुत्रों के साथ विशाल सेना से घिरकर पाण्डवों के पास चले। नरश्रेष्ठ शल्य इतनी अधिक सेना का भरण पोषण करते थे कि उसका पड़ाव पड़ने पर आधी योजन भूमि घिर जाती थी। राजन! महान बलवान और पराक्रमी शल्य अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। सैकड़ों और हजारों वीर क्षत्रिय शिरोमणि उनकी विशाल वाहिनी का संचालन करने वाले सेनापति थे। वे सबके सब शौर्य-सम्पन्न, अद्भुत कवच धारण करने वाले तथा विचित्र ध्वज एवं धनुष से सुशोभित थे। उन सब के अंगों में विचित्र आभूषण शोभा दे रहे थे। सभी के रथ और वाहन विचित्र थे। सबके गले में विचित्र मालाएँ शुशोभित थीं। सबके वस्त्र और अंलकार अद्भुत दिखायी देते थे। उन सबने अपने-अपने देश की वेष-भूषा धारण कर रखी थी। राजा शल्य समस्त प्राणियों को व्यथित और पृथ्वी को कम्पित से करते हुए अपनी सेना को धीरे-धीरे विभिन्न स्थानों-पर ठहराकर विश्राम देते हुए उस मार्ग पर चले, जिससे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के पास शीघ्र पहुँच सकते थे।

दुर्योधन द्वारा मार्ग में ही शल्य का सत्कार

भरतनन्दन! उन्हीं दिनों दुर्योधन ने महारथी एवं महामना राजा शल्य का आगमन सुनकर स्वयं आगे बढ़कर (मार्ग में ही) उनका सेवा-सत्कार प्रारम्भ कर दिया। दुर्योधन ने राजा शल्य के स्वागत सत्कार के लिये रमणीय प्रदेशों में बहुत से सभा भवन तैयार कराये, जिनकी दीवारों में रत्न जड़े हुए थे उन भवनों को सब प्रकार से सजाया गया था। नाना प्रकार के शिल्पियों ने उनमें अनेकानेक क्रीड़ा-विहार के स्थान बनाये थे। वहाँ भाँति-भाँति के वस्त्र, मालाएँ, खाने-पीने का सामान तथा सत्कार की अन्यान्य वस्तुएँ रखी गयी थीं। अनेक प्रकार के कुएँ तथा भाँति-भाँति की बावड़ियाँ बनायी गयीं थीं, जो हृदय के हर्ष को बढ़ा रही थीं। बहुत-से ऐसे गृह बने थे, जिनमें जल की विशेष सुविधा सुलभ की गयी थी। सब ओर विभिन्न स्थानों में बने हुए उन सभा भवनों में पहुँचकर राजा शल्य दुर्योधन के मन्त्रियों द्वारा देवताओं की भाँति पूजित होते थे। इस तरह (यात्रा करते हुए) शल्य किसी दूसरे सामान भवन में गये, जो देव मन्दिरों के समान प्रकाशित होता था। वहाँ उन्‍हें अलौकिक कल्याणमय भोग प्राप्त हुए। उस समय उन क्षत्रियशिरोमणि नरेश ने अपने आपको सबसे अधिक सोभाग्यशाली समझा। उन्‍हें देवराज इन्द्र भी अपने से तुच्छ प्रतीत हुए।

शल्य का प्रसन्न होकर वरदान देना

उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्होंने सेवकों से पूछा। युधिष्ठिर के किन आदमियों ने ये सभा भवन बनाये हैं। उन सबको बुलाओ। मैं उन्‍हें पुरस्कार देने के योग्य मानता हूँ। 'मैं इन सबको अपनी प्रसन्नता के फलस्वरूप कुछ पुरस्कार दूँगा, कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को भी मेरे इस व्यवहार का अनुमोदन करना चाहिये।' यह सुनकर सब सेवकों ने विस्मित हो दुर्योधन से वे सारी बातें बतायीं। जब हर्ष से भरे हुए राजा शल्य अपने प्रति किये गये उपकार के बदले प्राण तक देने को तैयार हो गये, तब गुप्तरूप से वहीं छिपा हुआ दुर्योधन मामा शल्य के सामने आया। उसे देखकर तथा उसी ने यह सारी तैयारी की है, यह जानकर मद्रराज ने प्रसन्नतापूर्वक दुर्योधन को हृदय से लगा लिया और कहा- 'तुम अपनी अभीष्ट वस्तु मुझसे माँग लो।'[1]

दुर्योधन का शल्य से अपनी सेना का सेनापति बनने का आग्रह

दुर्योधन ने कहा- कल्याण स्वरूप महानुभाव! आपकी बात सत्य हो। आप मुझे अवश्य वर दीजिये। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी समपूर्ण सेना के अधिनायक हो जायँ। आपके लिये जैसे पाण्डव हैं, वैसा ही मैं हूँ। प्रभो! मैं आपका भक्त होने के कारण आपके द्वारा समाद्दत और पालित होने योग्य हूँ अतः मुझे अपनाइये। शल्य ने कहा- महाराज! तुम्हारा कहना ठीक है। भूपाल! तुम जैसा कहते हो, वैसा ही वर तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक देता हूँ। यह ऐसा ही होगा- मैं तुम्हारी सेना का अधिनायक बनूँगा।

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन! उस समय शल्य ने दुर्योधन से कहा- 'तुम्हारी यह प्रार्थना तो स्वीकार कर ली। अब कौन-सा कार्य करूँ?' यह सुनकर गान्धारीनन्दन दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि मेरा तो सब काम आपने पूरा कर दिया।

शल्य बोले- नरश्रेष्ठ दुर्योधन! अब तुम अपने नगर को जाओ। मैं शत्रुदमन युधिष्ठिर से मिलने जाऊँगा। नरेश्वर! में युधिष्ठिर से मिलकर शीघ्र ही लौट आऊँगा। पाण्डुपुत्र नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर से मिलना भी अत्यन्त आवश्यक है। दुर्योधन ने कहा- राजन! पृथ्वीपते! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर से मिलकर आप शीघ्र चले आइये। राजेन्द्र! हम आपके ही अधीन हैं। आपने हमें जो वरदान दिया है, उसे याद रखियेगा। शल्य बोले- नरेश्वर! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अपने नगर को जाओ। मैं शीघ्र आऊँगा।

शल्य का पाण्डवों से मिलना

ऐसा कहकर राजा शल्य तथा दुर्योधन दोनों एक दूसरे से गले मिलकर विदा हुए। इस प्रकार शल्य से आज्ञा लेकर दुर्योधन पुनः अपने नगर को लौट आया और शल्य कुन्तीकुमार से दुर्योधन की वह करतूत सुनाने के लिये युधिष्ठिर के पास गये। विराट नगर के उपलव्य नामक प्रदेश में जाकर वे पाण्डवों की छावनी में पहुँचे और वहीं सब पाण्डवों से मिले। पाण्डवपुत्रों से मिलकर महाबाहु शल्य ने उनके द्वारा विधिपूर्वक दिये हुए पाद्य, अर्ध्य और गौको ग्रहण किया। तत्पश्चात शत्रुसूदन मद्रराज शल्य ने कुशल प्रश्न के अनन्तर बड़ी प्रसन्नता के साथ युधिष्ठिर को हृदय से लगाया। इसी प्रकार उन्होंने हर्ष में भरे हुए दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन को तथा अपनी बहिन के दोनों जुड़वे पुत्रों नकुल-सहदेव को भी गले लगाया। भारत! तदनन्तर द्रौपदी, सुभद्रा तथा अभिमन्यु ने महाबाहु शल्य के पास आकर उन्‍हें प्रणाम किया। उस समय उदारचेता धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने दोनों हाथ जोड़कर शल्य से कहा। युधिष्ठिर बोले- राजन! आपका स्वागत है, इस आसन पर विराजिये।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब राजा शल्य सुवर्ण श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हुए। उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने सबको सुख देने वाले शल्य से कुशल-समाचार पूछा उन समस्त धर्मात्मा पाण्डवों से घिरकर आसन पर बैठे हुए राजा शल्य कुन्तीकुमार युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले 'नृपतिश्रेष्ठ कुरुनन्दन! तुम कुशल से तो हो न? विजयी वीरों में श्रेष्ठ नरेश! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम बनवास के कष्ट से छुटकारा पा गये। ‘राजन! तुमने अपने भाइयों तथा इस द्रुपदकुमारी कृष्णा के साथ निर्जनवन में निवास करके अत्यन्त दुष्कर कार्य किया है। ‘भारत! भयकंर अज्ञातवास करके तो तुम लोगों ने और भी दुष्कर कार्य सम्पन्न किया है। जो अपने राज्य से वंचित हो गया हो, उसे तो कष्ट ही उठाना पड़ता है, सुख कहाँ से मिल सकता है? शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! दुर्योधन के दिये हुए इस महान दुःख के अन्त में अब तुम शत्रुओं को मारकर सुख के भागी होओगे। 'महाराज! नरेश्वर! तुम्हें लोकतन्त्र का सम्यक ज्ञान है। तात! इसीलिये तुम में लोभ जनित कोई भी बर्ताव नहीं है।[2]

भारत! प्राचीन राजर्षियों के मार्ग का अनुसरण करो। तात युधिष्ठिर! तुम सदा दान, तपस्या और सत्य में ही सलग्न रहो राजा युधिष्ठिर! क्षमा इन्द्रियसंयम, सत्य, अहिंसा तथा अद्भुत लोक ये सब तुम में प्रतिष्ठित हैं। महाराज! तुम कोमल, उदार, ब्राह्मणभक्त, दानी, तथा धर्मपरायण हो। संसार जिनका साक्षी है, ऐसे बहुत से धर्म तम्हें ज्ञात हैं। तात! परंतप! तुम्हें इस सम्पूर्ण जगत का तत्त्व ज्ञात है। भरत श्रेष्ठ नरेश! तुम्हें इस महन संकट से पार हो गये, यह बड़े सौभाग्य की बात है। राजेन्द्र! तुम धर्मात्मा एवं धर्म की निधि हो। राजन! तुमने भाइयों सहित अपनी दुष्कर प्रतिज्ञा पूरी कर ली है और इस अवस्था में तुम्हें देख रहा हूँ यह मेरा अहो भाग्य है।

युधिष्ठिर का शल्य से अनुरोध

वैशम्पायन जी कहते हैं- तदनन्तर राजा शल्य ने दुर्योधन के मिलने, सेवा शुश्रषा करने और उसे अपने वरदान देने की सारी बातें कह सुनायी। युधिष्ठिर बोले-वीर महाराज! आपने प्रसन्नचित्त होकर जो दुर्योधन को उसकी सहायता का वचन दे दिया, वह अच्छा ही किया। परन्तु पृथ्वीपते! आपका कल्याण हो। मैं आपके द्वारा अपना भी एक काम कराना चहाता हूँ। साधू शिरोमणे! वह न करने योग्य होने पर भी मेरी ओर देखते हुए आपको अवश्य करना चाहिये। वीरवर! सुनिये; मैं वह कार्य आपको बता रहा हूँ। महाराज! आप इस भूतल पर संग्राम में सारथि का काम करने के लिए वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण समान माने गये हैं। नृपशिरोमणे! जब कर्ण और अर्जुन के द्वैरथयुद्ध का अवसर प्राप्त होगा, उस समस भी आपको ही कर्ण के सारथि का काम करना पड़ेगा; इसमे तनिक संशय नहीं है। राजन! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो उस युद्ध में आप को अर्जुन की रक्षा करनी होगी। आपका कार्य इतना ही होगा कि आप कर्ण का उत्साह भंग करते रहें। वही कर्ण से हमें विजय दिलाने वाला होगा। मामा जी! मेरे लिये यह न करने योग्य भी कार्य करें।

शल्य के द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन देना

शल्य बोले- पाण्डुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी बात सुनो! युद्ध में महामना सूतपुत्र कर्ण के तेज और उत्‍साह को नष्ट करने के लिये तुम जो मुझसे अनुरोध करते हो, वह ठीक नहीं है। यह निश्चय है कि मैं उस युद्ध में उसका सारथि होऊँगा। स्वयं कर्ण भी सदा मुझे सारथि कर्म में भगवान श्रीकृष्ण के समान समझता है। कुरुश्रेष्ठ! जब कर्ण रणभूमि में अर्जुन के साथ युद्ध की इच्छा करेगा, उस समय मैं अवश्य ही प्रतिकूल अहितकर वचन बोलूंगा, जिससे उसका अभिमान और तेज नष्ट हो जायेगा और युद्ध में सुखपूर्वक मारा जा सकेगा। पाण्डुनन्दन! मैं तुमसे यह सत्य कहता हूँ। तात! तुम मुझसे जो कुछ कह रहे हो, वह अवश्य पूर्ण करूँगा। इसके सिवा और भी जो कुछ मुझसे हो सकेगा, तुम्हारा वह प्रिय कार्य अवश्य करूँगा।

महातेजस्वी वीरवर युधिष्ठिर! तुमने द्यूतसभा में द्रौपदी के साथ जो दुःख उठाया है, सूतपूत्र कर्ण ने तुम्हें जो कठोर बातें सुनायी हैं तथा पूर्वकाल में दमयन्ती ने जैसे अशुभ (दुःख) भोगा था, उसी प्रकार द्रौपदी ने जटासुर तथा कीचक से जो महान क्लेश प्राप्त किया है, यह सभी दुःख भविष्य में तुम्हारे लिये सुख के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। इसके लिये तुम्हें खेद नहीं करना चाहिये; क्योंकि विधाता का विधान अति प्रबल होता है। युधिष्ठिर! महात्मा पुरुष भी समय-समय पर दुःख पाते हैं। पृथ्वीपते! देवताओं ने भी बहुत दुःख उठाये हैं। भरतवंशी नरेश! सुना जाता है कि पत्नी सहित महामना देवराज इन्द्र ने महान दुःख भोगा है।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-18
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 8 श्लोक 19-33
  3. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 8 श्लोक 34-54

सम्बंधित लेख

महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
विराट की सभा में श्रीकृष्ण का भाषण | विराट की सभा में बलराम का भाषण | सात्यकि के वीरोचित उद्गार | द्रुपद की सम्मति | श्रीकृष्ण का द्वारका गमन | विराट और द्रुपद के संदेश | द्रुपद का पुरोहित को दौत्य कर्म के लिए अनुमति | पुरोहित का हस्तिनापुर प्रस्थान | श्रीकृष्ण का दुर्योधन और अर्जुन को सहायता देना | शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होना | इन्द्र द्वारा त्रिशिरा वध | वृत्तासुर की उत्पत्ति | वृत्तासुर और इन्द्र का युद्ध | देवताओं का विष्णु जी की शरण में जाना | इंद्र-वृत्तासुर संधि | इन्द्र द्वारा वृत्तासुर का वध | इंद्र का ब्रह्महत्या के भय से जल में छिपना | नहुष का इंद्र के पद पर अभिषिक्त होना | नहुष का काम-भोग में आसक्त होना | इंद्राणी को बृहस्पति का आश्वासन | देवता-नहुष संवाद | बृहस्पति द्वारा इंद्राणी की रक्षा | नहुष का इन्द्राणी को काल अवधि देना | इंद्र का ब्रह्म हत्या से उद्धार | शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना | उपश्रुति देवी की मदद से इंद्र-इंद्राणी की भेंट | इंद्राणी के अनुरोध पर नहुष का ऋषियों को अपना वाहन बनाना | बृहस्पति और अग्नि का संवाद | बृहस्पति द्वारा अग्नि और इंद्र का स्तवन | बृहस्पति एवं लोकपालों की इंद्र से वार्तालाप | अगस्त्य का इन्द्र से नहुष के पतन का वृत्तांत बताना | इंद्र का स्वर्ग में राज्य पालन | शल्य का युधिष्ठिर आश्वासन देना | युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाओं का संक्षिप्त वर्णन

संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण | भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा | कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन | धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना | धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन | धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश | संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना | युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना | संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना | युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना | संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना | संजय को युधिष्ठिर का उत्तर | संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना | संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश | युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश | अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश | संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः