संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना

महाभारत उद्योग पर्व में संजययान पर्व के अंतर्गत सत्ताईसवें अध्याय में 'संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताने' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

संजय द्वारा युधिष्ठिर से युद्ध न करने की प्रार्थना करना

इस कथा में संजय युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बतलाकर उन्हें युद्ध से उपरत करने का प्रयत्‍न करते हैं- संजय बोला- पाण्‍डुनन्दन! आपकी प्रत्येक चेष्‍टा सदा धर्म के अनुसार ही होती है। कुन्तीकुमार! आपकी वह धर्मयुक्त चेष्‍टा लोक में तो विख्‍यात है ही, देखने में भी आ रही है। यद्यपि यह जीवन अनित्य है तथापि इससे महान सुयश की प्राप्ति हो सकती है। पाण्‍डव! आप जीवन की उस अनित्यता पर दृष्टिपात करें और अपनी कीर्ति को नष्‍ट न होने दें। अजातशत्रो! यदि कौरव युद्ध किये बिना आपको राज्य का भाग न दें, तो भी अन्धक और वृष्णिवंशी क्षत्रियों के राज्य में भीख मांगकर जीवन-निर्वाह कर लेना मैं आपके लिये श्रेष्‍ठ समझता हूं; परंतु युद्ध करके राज्य लेना अच्छा नहीं समझता। मनुष्‍य का जो यह जीवन है, वह बहुत थोडे़ समय तक रहने वाला है। इसको क्षीण करने वाले महान दोष इसे प्राप्त होते रहते हैं। यह सदा दु:खमय और चञ्चल है। अत: पाण्‍डुनन्दन! आप युद्धरूपी पाप न कीजिये। वह आपके सुयश-के अनुरूप नहीं है।

नरेन्द्र! जो धर्माचरण में विघ्न डालने की मूल कारण हैं, वे कामनाएं प्रत्येक मनुष्‍य को अपनी ओर खींचती हैं। अत: बुद्धिमान मनुष्‍य पहले उन कामनाओं को नष्‍ट करता है, तदनन्तर जगत में निर्मल प्रशंसा का भागी होता है। कुन्तीनन्दन! इस संसार में धन की तृष्‍णा ही बन्धन में डालने वाली है। जो धन की तृष्‍णा में फंसता है, उसका धर्म भी नष्‍ट हो जाता है। जो धर्म का वरण करता है, वही ज्ञानी है। भोगों की इच्छा करने वाला मनुष्‍य तो धन में आसक्त होने के कारण धर्म से भ्रष्‍ट हो जाता है। तात! धर्म, अर्थ और काम तीनों में धर्म को प्रधान मानकर तदनुसार चलने वाला पुरुष महाप्रतापी होकर सूर्य की भाँति चमक उठता है; परंतु जो धर्म से हीन है और जिसकी बुद्धि पाप में ही लगी हुई है, वह मनुष्‍य इस सारी पृथ्‍वी को पाकर भी कष्‍ट ही भोगता रहता है।[1]

संजय द्वारा युधिष्ठिर के सुकर्मों का वर्णन

संजय कहते हैं- युधिष्ठिर! आपने परलोक पर विश्वास करके वेदों का अध्‍ययन, ब्र‍ह्मचर्य का पालन एवं यज्ञों का अनुष्‍ठान किया है तथा ब्राह्मणों को दान दिया है और अनन्त वर्षों तक वहाँ के सुख भोगने के लिये अपने-आपको भी समर्पित कर दिया है। जो मनुष्‍य भोग तथा प्रिय (पुत्रादि) का निरन्तर सेवन करते हुए योगाभ्‍यासोपयोगी कर्म का सेवन नहीं करता, वह धन का क्षय हो जाने पर सुख से वञ्चित हो काम वेग से अत्यन्त विक्षुब्ध होकर सदा दु:ख शय्या पर शयन करता रहता है। जो ब्रह्मचर्य पालन में प्रवृत्त न हो धर्म का त्याग करके अधर्म का आचरण करता है तथा जो मूढ़ परलोक पर विश्‍वास नहीं रखता है, वह मन्दभाग्य मानव शरीर त्यागने के पश्‍चात परलोक में बड़ा कष्‍ट पाता है। पुण्‍य अथवा पाप किन्हीं भी कर्मों का परलोक में नाश नहीं होता है। पहले कर्ता के पुण्‍य और पाप परलोक में जाते हैं, फिर उन्हीं के पीछे-पीछे कर्ता जाता है। लोक में आपके कर्म इस रूप में विख्‍यात हैं कि आपने उत्तम दक्षिणायुक्त वृद्धिश्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों को न्यायोपार्जित प्रचुर धन एवं श्रद्धा सहित उत्तम गन्धयु‍क्त, सुस्वादु एवं पवित्र अन्न का दान किया है।[1]

कुन्तीनन्दन! इस शरीर के रहते हुए ही कोई भी सत्कर्म किया जा सकता है। मरने के बाद कोई कार्य नहीं किया जा सकता। आपने तो परलोक में सुख देने वाला महान पुण्‍यकर्म किया है, जिसकी साधु पुरुषों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। (पुण्‍यात्मा) मनुष्‍य स्वर्गलोक में जाकर मृत्यु, बुढा़पा तथा भय त्याग देता है। वहाँ उसे मन के प्रतिकूल भूख-प्यास का कष्‍ट भी नहीं सहन करना पड़ता है। परलोक में इन्द्रियों को सुख पहुँचाने के सिवा दूसरा कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है।[2] नरेन्द्र! इस प्रकार हृदय को प्रिय लगने वाले विषय से कर्मफल की प्रार्थना नहीं करनी चाहिये।[3]

युधिष्ठिर से संजय द्वारा पापकर्मों का वर्णन करना

पाण्‍डुनन्दन! आप क्रोधजनित नरक और हर्षजनित स्वर्ग- इन दोनों लोकों में कभी न जायं।[4] इस तरह (ज्ञानाग्नि के द्वारा) कर्मों को दग्ध करके सत्य, दम, आर्जव (सरलता) तथा अनृशंसता (दया) इन सद्‌गुणों का कभी त्याग न करें। अश्वमेध, राजसूय और अन्य यज्ञों को भी न छोडे़ं, परंतु युद्ध-जैसे पापकर्म के निकट फिर कभी न जायं। कुन्तीकुमारों! यदि आप लोगों को राज्य के लिये चिरस्थायी विद्वेष के रूप में युद्ध रूप पापकर्म ही करना है, तब तो मैं यही कहूंगा कि आप बहुत वर्षों त‍क दु:खमय वनवास का ही कष्‍ट भोगते रहें।

पाण्‍डवों! वह वनवास ही आपके लिये धर्मरूप होगा। पहले[5] हम लोग बलपूर्वक इन्हें अपने वश में रखकर वन में गये बिना ही यहाँ रह सकते थे; क्योंकि आज जो सेना एकत्र हुई है, यह पहले भी अपने ही लोगों के अधीन थी और ये भगवान श्रीकृष्ण तथा वीरवर सात्यकि सदा से ही आप लोगों के[6] वशीभूत एवं आपके सहायक रहे हैं। प्रहार करने में कुशल वीर सैनिकों तथा पुत्रों के साथ सुवर्णमय रथ से सुशोभित मत्स्य देश के राजा विराट तथा दूसरे भी बहुत से नरेश, जिन्हें पहले आप लोगों ने युद्ध में जीता था, वे सबके सब संग्राम में आपका ही पक्ष लेते। उस समय आप महान सहायकों से सम्पन्न और बलशाली थे, आप श्रीकृष्‍ण तथा अर्जुन के आगे-आगे चलकर शत्रुओं पर आक्रमण कर सकते थे। समरांगण में अपने महान शत्रुओं का संहार करते हुए आप दुर्योधन के घमंड को चूर-चूर कर सकते थे। पाण्‍डुनन्दन! फिर क्या कारण है कि आपने शत्रु की शक्ति को बढ़ने का अवसर दिया? किसलिये अपने सहायकों को दुर्बल बनाया और क्यों बारह वर्षों तक वन में निवास किया?

फिर आज जब वह अनुकूल अवसर बीत चुका है, आपको युद्ध करने की इच्छा क्यों हुई है? पाण्‍डुनन्दन! अज्ञानी अथवा पापी मनुष्‍य भी युद्ध करके सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है और बुद्धिमान अथवा धर्मज्ञ पुरुष भी दैवी बाधा के कारण पराजित होकर ऐश्‍वर्य से हाथ धो बैठता है। कुन्तीनन्दन! आपकी बुद्धि कभी अधर्म में नहीं लगती तथा आपने क्रोध में आकर भी कभी पाप कर्म नहीं किया है, तो बताइये, कौन-सा ऐसा (प्रबल) कारण है, जिसके लिये अब आप अपनी बुद्धि के विरुद्ध यह युद्ध-जैसा पापकर्म करना चाहते हैं?[3]

संजय द्वारा युद्ध में होने वाले दोषों की संभावना जताना

महाराज! जो‍ बिना व्याधि के ही उत्पन्न होता है, स्वाद में कड़ुआ है, जिसके कारण सिर में दर्द होने लगता है, जो यश का नाशक और पापरूप फल को प्रकट करने वाला है, जो सज्जन पुरुषों के ही पीने योग्य है, जिसे असाधु पुरुष नहीं पीते हैं, उस क्रोध को आप पी लीजिये और शान्त हो जाइये जो पाप की जड़ है, उस क्रोध की इच्छा कौन करेगा? आपकी दृष्टि में तो क्षमा ही सबसे श्रेष्‍ठ वस्तु है, वे भोग नहीं, जिनके लिये शान्तनुनन्दन भीष्‍म तथा पुत्र सहित आचार्य द्रोण की हत्या की जाय।

कुन्तीनन्दन! ऐसा कौन-सा सुख हो सकता है, जिसे आप कृपाचार्य, शल्य, भूरिश्रवा, विकर्ण, विविंशति, कर्ण तथा दुर्योधन- इन सबका वध करके पाना चाहते हैं, कृपया बताइये। राजन! समुद्रपर्यन्त इस सारी पृथ्‍वी को पाकर भी आप जरा-मृत्यु, प्रिय-अप्रिय तथा सुख-दु:ख से पिण्‍ड नहीं छुड़ा सकते। आप इन सब बातों को अच्छी तरह जानते हैं; अत: मेरी प्रार्थना है कि आप युद्ध न करें। यदि आप अपने मन्त्रियों की इच्छा से ही ऐसा पापमय युद्ध करना चाहते हैं तो अपना सर्वस्व उन मन्त्रियों को ही देकर वानप्रस्थ ग्रहण कर लीजिये; परंतु अपने कुटुम्ब का वध करके देवयान मार्ग से भ्रष्‍ट न होइये।[7]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-11
  2. देवयोनि भोगयोनि है, कर्मयोनि नहीं। उसमें नवीन कर्म करने के लिये देवता बाध्‍य नहीं हैं।
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 27 श्लोक 12-22
  4. अपितु सनातन मोक्ष-सुख के लिये निष्‍काम कर्म अथवा ज्ञानयोग का ही साधन करें
  5. द्यूतक्रीड़ा के समय ही
  6. प्रेम के कारण
  7. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 27 श्लोक 23-27

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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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