कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण

श्रीकृष्ण विदुर के साथ अपने रथ पर आरुढ़ हो कौरवसभा में पहुँचते हैं जहाँ वह स्वागत-सत्कार के पश्चात् आसन ग्रहण करते हैं। अब श्रीकृष्ण कौरवसभा में अपना प्रभावशाली भाषण देते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 95 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

कौरवसभा में श्रीकृष्ण का प्रभावशाली भाषण

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब सभा में सब राजा मौन होकर बैठ गए, तब सुंदर दंतावली से सुशोभित तथा दुंदुभि के समान गंभीर स्वर वाले यदुकुलतिलक भगवान श्रीकृष्ण ने बोलना आरंभ किया। जैसे ग्रीष्म ऋतु के अंत में बादल गरजता है, उसी प्रकार उन्होंने गंभीर गर्जना के साथ सारी सभा को सुनाते हुए धृतराष्ट्र की ओर देखकर इस प्रकार कहा। श्रीभगवान बोले- भरतनंदन! मैं आपसे यह प्रार्थना करने के लिए यहाँ आया हूँ कि क्षत्रियवीरों का संहार हुए बिना ही कौरवों और पांडवों में शांतिस्थापन हो जाये। शत्रुदमन नरेश! मुझे इसके सिवा दूसरी कोई कल्याणकारक बात आपसे नहीं कहनी है; क्योंकि जानने योग्य जितनी बातें हैं, वे सब आपको विदित ही हैं। भूपाल! इस समय समस्त राजाओं में यह कुरुवंश ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें शास्त्र एवं सदाचार का पूर्णत: आदर एवं पालन किया जाता है। यह कौरव कुल समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है। भारत! कुरुवंशियों में कृपा, अनुकंपा, करुणा, अनृशंसता, सरलता, क्षमा और सत्य- ये सद्गुण अन्य राजवंशों की अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं। राजन! ऐसे उत्तम गुणसम्पन्न एवं अत्यंत प्रतिष्ठित कुल के होते हुए भी यदि इसमें आपके कारण कोई अनुचित कार्य हो, तो यह ठीक नहीं है। तात कुरुश्रेष्ठ! यदि कौरवगण बाहर और भीतर[2] मिथ्या आचरण [3]करने लगें, तो आप ही उन्हें रोककर सन्मार्ग में स्थापित करने वाले हैं।

कुरुनंदन! दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ को पीछे करके क्रूर मनुष्यों के समान आचरण करते हैं। पुरुषरत्न! ये अपने ही श्रेष्ठ बंधुओं के साथ अशिष्टतापूर्ण बर्ताव करते हैं। लोभ ने इनके हृदय को ऐसा वशीभूत कर लिया है कि इन्होंने धर्म की मर्यादा तोड़ दी है। इस बात को आप अच्छी तरह जानते हैं। कुरुश्रेष्ठ! इस समय यह अत्यंत भयंकर आपत्ति कौरवों में ही प्रकट हुई है। यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह समस्त भूमंडल का विध्वंस कर डालेगी। भारत! यदि आप चाहते हैं तो इस भयानक विपत्ति का अब भी निवारण किया जा सकता है। भरतश्रेष्ठ! इन दोनों पक्षों में शांति स्थापित होना मैं कठिन कार्य नहीं मानता हूँ। प्रजापालक कौरवनरेश! इस समय इन दोनों पक्षों में संधि कराना आपके और मेरे अधीन है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिए और मैं पांडवों को नियंत्रण में रखूँगा। राजेन्द्र! आपके पुत्रों को चाहिए कि वे अपने अनुयायियों के साथ आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करें। आपके शासन में रहने से इनका महान हित हो सकता है। राजन! यदि आप अपने पुत्रों पर शासन करना चाहें और संधि के लिए प्रयत्न करें तो इसी में आपका भी हित है और इसी से पांडवों का भला हो सकता है। प्रजानाथ! पांडवों के साथ बैर और विवाद का कोई अच्छा परिणाम नहीं हो सकता; यह विचारकर आप स्वयं ही संधि के लिए प्रयत्न करें। जनेश्वर! ऐसा करने से भरतवंशी पांडव आपके ही सहायक होंगे। राजन! आप पांडवों से सुरक्षित होकर धर्म और अर्थ का अनुष्ठान कीजिये। नरेंद्र! आपको पांडवों के समान संरक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते।[1]

महात्मा पांडवों से सुरक्षित होने पर आपको देवताओं सहित इन्द्र भी नहीं जीत सकते, फिर दूसरे किसी राजा की तो बात ही क्या है? भरतश्रेष्ठ! जिस पक्ष में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, विविंशति, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, सिंधुराज जयद्रथ, कलिंगराज, काम्बोजनरेश सुदक्षिण तथा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, महातेजस्वी सात्यकि तथा महारथी युयुत्सु हों, उस पक्ष के योद्धाओं से कौन विपरीत बुद्धि वाला राजा युद्ध कर सकता है? शत्रुसूदन नरेश! कौरव और पांडवों के साथ रहने पर आप पुन: सम्पूर्ण जगत के सम्राट होकर शत्रुओं के लिए अजेय हो जाएँगे। शत्रुओं को संताप देने वाले भूपाल! उस दशा में जो राजा आपके समान या आपसे बड़े हैं, वे भी आपके साथ संधि कर लेंगे। इस प्रकार आप अपने पुत्र, पौत्र, पिता, भाई और सुहृदों द्वारा सर्वथा सुरक्षित रहकर सुख से जीवन बिता सकेंगे। पृथ्वीपते! यदि आप पहले की भाँति इन पांडवों का ही सत्कार करके इन्हें आगे रखें तो इस सारी पृथ्वी का उपभोग करेंगे। भारत! इन समस्त पांडवों तथा अपने पुत्रों के साथ रहकर आप दूसरे शत्रुओं पर भी विजय प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रकार आपके सम्पूर्ण स्वार्थ की सिद्धि होगी। शत्रुसंतापी नरेश! यदि आप मंत्रियों सहित अपने समस्त पुत्रों[4]से मिलकर रहेंगे तो उन्हीं के द्वारा जीती हुई इस पृथ्वी का राज्य भोगेंगे। महाराज! युद्ध छिड़ने पर तो महान संहार ही दिखाई देता है। राजन! इस प्रकार दोनों पक्ष का विनाश कराने में आप कौन-सा धर्म देखते हैं?

भरतश्रेष्ठ! यदि पांडव युद्ध में मारे गए अथवा आपके महाबली पुत्र ही नष्ट हो गए तो उस दशा में आपको कौन-सा सुख मिलेगा? यह बताइये। पांडव तथा आपके पुत्र सभी शूरवीर, अस्त्रविद्या के पारंगत तथा युद्ध की अभिलाषा रखने वाले हैं। आप इन सबकी महान भय से रक्षा कीजिये। युद्ध के परिणाम पर विचार करने से हमें समस्त कौरव और पांडव नष्ट प्राय दिखायी देते हैं। दोनों ही पक्षों के शूरवीर रथी रथियों से मारे जाकर नष्ट हो जाएँगे। नृपश्रेष्ठ! भूमंडल के समस्त राजा यहाँ एकत्र हो अमर्ष में भरकर इस प्रजा का नाश करेंगे। कुरुकुल को आनंदित करने वाले नरेश! आप इस जगत की रक्षा कीजिये; जिससे इस समस्त प्रजा का नाश न हो। आपके प्रकृतिस्थ होने पर ये सब लोग बच जायेंगे। राजन! ये सब नरेश शुद्ध, उदार, लज्जाशील, श्रेष्ठ, पवित्र कुलों में उत्पन्न और एक-दूसरे के सहायक हैं। आप इन सबकी महान भय से रक्षा कीजिये। आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे ये भूपाल परस्पर मिलकर तथा एक साथ खा-पीकर कुशलपूर्वक अपने-अपने घर को वापस लौटें। शत्रुओं को संताप देने वाले भरतकुलभूषण! ये राजा लोग उत्तम वस्त्र और सुंदर हार पहनकर अमर्ष और बैर को मन से निकालकर यहाँ से सत्कारपूर्वक विदा हों। भरतश्रेष्ठ! अब आपकी आयु भी क्षीण हो चली है; इस बुढ़ापे में आपका पांडवों के ऊपर वैसा ही स्नेह बना रहे, जैसा पहले था; अत: संधि कर लीजिये। भरतर्षभ! पांडव बाल्यावस्था में ही पिता से बिछुड़ गए थे। आपने ही उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया; अत: उनका और अपने पुत्रों का न्यायपूर्वक पालन कीजिये।[5]

भरतभूषण! आपको ही पांडवों की सदा रक्षा करनी चाहिये। विशेषत: संकट के अवसर पर तो आपके लिए उनकी रक्षा अत्यंत आवश्यक है ही। कहीं ऐसा न हो कि पांडवों से बैर बाँधने के कारण आपके धर्म और अर्थ दोनों नष्ट हो जायें। राजन! पांडवों ने आपको प्रणाम करके प्रसन्न करते हुए यह संदेश कहलाया है- 'तात! आपकी आज्ञा से अनुचरों सहित हमने भारी दुख सहन किया है। बारह वर्षों तक हमनें निर्जन वन में निवास किया है और तेरहवाँ वर्ष जनसमुदाय से भरे हुए नगर में अज्ञात रहकर बिताया है। तात! आप हमारे ज्येष्ठ पिता हैं, अत: हमारे विषय में की हुई अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहेंगे अर्थात वनवास से लौटने पर हमारा राज्य हमें प्रसन्नतापूर्वक लौटा देंगे- ऐसा निश्चय करके ही हमने वनवास और अज्ञातवास की शर्त को कभी नहीं तोड़ा है, इस बात को हमारे साथ रहे हुए ब्राह्मण लोग जानते हैं। भरतवंशशिरोमणे! हम उस प्रतिज्ञा पर दृढ़तापूर्वक स्थित रहे हैं; अत: आप भी हमारे साथ की हुई अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहें। राजन! हमने सदा क्लेश उठाया है; अब हमें हमारा राज्यभाग प्राप्त होना चाहिये। आप धर्म और अर्थ के ज्ञाता हैं; अत: हम लोगों की रक्षा कीजिये। आप में गुरुत्व देखकर, आप गुरुजन हैं, यह विचार करके आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए हम बहुत-से क्लेश चुपचाप सहते जा रहे हैं; अब आप भी हमारे ऊपर माता-पिता की भाँति स्नेहपूर्ण बर्ताव कीजिये। भारत! गुरुजनों के प्रति शिष्य एवं पुत्रों का जो बर्ताव होना चाहिये, हम आपके प्रति उसी का पालन करते हैं। आप भी हम लोगों पर गुरुजनोंचित स्नेह रखते हुए तद्‌नुरूप बर्ताव कीजिये। हम पुत्रगण यदि कुमार्ग पर जा रहे हों तो पिता के नाते आपका कर्तव्य है कि हमें सन्मार्ग में स्थापित करें। इसलिए आप स्वयं धर्म के सुंदर मार्ग पर स्थित होइए और हमें भी धर्म के मार्ग पर ही लाइये'।

भरतश्रेष्ठ! आपके पुत्र पांडवों ने इस सभा के लिए भी यह संदेश दिया है- 'आप समस्त सभासद्गण धर्म के ज्ञाता हैं। आपके रहते हुए यहाँ कोई अयोग्य कार्य हो, यह उचित नहीं है। जहाँ सभासदों के देखते-देखते अधर्म के द्वारा धर्म का और मिथ्या के द्वारा सत्य का गला घोंटा जाता हो, वहाँ वे सभासद नष्ट हुए माने जाते हैं। जिस सभा में अधर्म से विद्ध हुआ धर्म प्रवेश करता है और सभासद्गण उस अधर्मरूपी कांटे को काटकर निकाल नहीं देते हैं, वहाँ उस काटें से सभासद ही विद्ध होते हैं अर्थात उन्हें ही अधर्म से लिप्त होना पड़ता है। जैसे नदी अपने तट पर उगे हुए वृक्षों को गिराकर नष्ट कर देती है, उसी प्रकार वह अधर्मविद्ध धर्म ही उन सभासदों का नाश कर डालता है।' भरतश्रेष्ठ! जो पांडव सदा धर्म की ओर ही दृष्टि रखते हैं और उसी का विचार करके चुपचाप बैठे हैं, वे जो आपसे राज्य लौटा देने का अनुरोध करते हैं, वह सत्य, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है। जनेश्वर! आपसे पांडवों का राज्य लौटा देने के सिवा दूसरी कौन-सी बात यहाँ कही जा सकती है। इस सभा में जो भूमिपाल बैठे हैं, वे धर्म और अर्थ का विचार करके स्वयं बतावें, मैं ठीक कहता हूँ या नहीं। पुरुषरत्न! आप इन क्षत्रियों को मौत के फंदे से छुड़ाइये।[6]

भरतश्रेष्ठ! शांत हो जाइए, क्रोध के वशीभूत न होइये। परंतप! पांडवों को यथोचित्त पैतृक राज्यभाग देकर अपने पुत्रों के साथ सफल मनोरथ हो मनोवांछित भोग भोगिये। नरेश्वर! आप जानते हैं कि अजातशत्रु युधिष्ठिर सदा सत्पुरुषों के धर्म पर स्थित हैं। उनका पुत्रों सहित आपके प्रति जो बर्ताव है, उससे भी आप अपरिचित नहीं हैं। आप लोगों ने उन्हें लाक्षागृह की आग में जलवाया तथा राज्य और देश से निकाल दिया; तो भी वे पुन: आपकी ही शरण में आए हैं। पुत्रों सहित आपने ही युधिष्ठिर को यहाँ से निकालकर इंद्रप्रस्थ का निवासी बनाया। वहाँ रहकर उन्होंने समस्त राजाओं को अपने वश में किया और उन्हें आपका मुखापेक्षी बना दिया। राजन! तो भी युधिष्ठिर ने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। ऐसे साधु बर्ताव वाले युधिष्ठिर के राज्य तथा धन-धान्य का अपहरण कर लेने की इच्छा से सुबलपुत्र शकुनि ने जूए के बहाने अपना महान कपटजाल फैलाया। उस दयनीय अवस्था में पहुँचकर अपनी महारानी कृष्णा को सभा में तिरस्कारपूर्वक लायी गयी देखकर भी महामना युधिष्ठिर अपने क्षत्रिय धर्म से विचलित नहीं हुए। भारत! मैं तो आपका और पांडवों का भी कल्याण ही चाहता हूँ। राजन! आप समस्त प्रजा को धर्म, अर्थ और सुख से वंचित न कीजिये। इस समय आप अनर्थ को ही अर्थ और अर्थ को ही अपने लिए अनर्थ मान रहे हैं। प्रजानाथ! आपके पुत्र लोभ में अत्यंत आसक्त हो गए हैं, उन्हें काबू में लाइये। राजन! शत्रुओं का दमन करने वाले कुंती के पुत्र आपकी सेवा के लिए भी तैयार हैं और युद्ध के लिए भी प्रस्तुत हैं। परंतप! जो आपके लिए विशेष हितकर जान पड़े, उसी मार्ग का अवलंबन कीजिये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण के उस कथन का समस्त राजाओं ने हृदय से आदर किया। वहाँ उसके उत्तर में कोई भी कुछ कहने के लिए अग्रसर न हो सका।[7]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 95 श्लोक 1-17
  2. प्रकट और गुप्त रूप से
  3. असद्व्यवहार
  4. पांडवों और कौरवों
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 95 श्लोक 18-38
  6. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 95 श्लोक 39-53
  7. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 95 श्लोक 54-63

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भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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