पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

दुर्योधन से प्रेरित होकर कौरव सेना रण के लिये कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान करती हैं, यहाँ युधिष्ठिर ने भी अपनी सेना को युद्ध के लिये जाने की आज्ञा दे दी हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में अम्बोपाख्‍यान पर्व के अंतर्गत 196वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]


पाण्डव सेना का युद्ध के लिये प्रस्थान

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! इसी प्रकार कुन्तीनन्दन धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने भी धृष्टद्युम्न आदि वीरों को युद्ध के लिये जाने की आज्ञा दी। चेदि, काशि और करूष देशों के अधिनायक दृढ़ पराक्रमी शत्रुनाशक सेनापति धृष्‍टकेतु को भी प्रस्थान करने का आदेश दिया। विराट, द्रुपद, सात्यकि, शिखण्‍डी, महाधनुर्धर पाञ्चालवीर युधामन्यु और उत्तमौजा को भी राजा का आदेश प्राप्त हुआ। वे महाधनुर्धर शूरवीर विचित्र कवच और तपाये हुए सोने के कुण्‍डल धारण किये वेदी पर घी की आहुति से प्रज्वलित हुए अग्निदेव के समान तथा आकाश में प्रकाशित होने वाले ग्रहों की भाँति शोभा पा रहे थे। तदनन्तर योग्यतानुसार सम्पूर्ण सेना का समादर करके नरश्रेष्‍ठ राजा युधिष्ठिर ने उन सैनिकों को प्रस्थान करने की आज्ञा दी और सेना तथा सवारियों सहित उन महामना नरेशों को उत्तमोत्तम खाने-पीने की वस्तुएं देने की आज्ञा दी। उनके साथ जो भी हाथी, घोडे़, मनुष्‍य और शिल्पजीवी पुरुष थे, उन सबके लिये भोजन प्रस्तुत करने का आदेश दिया।

पाण्‍डुनन्दन युधिष्ठिर ने धृष्टद्युम्न को आगे करके अभिमन्यु, बृहन्त तथा द्रौपदी के पांचों पुत्र- इन सबको प्रथम सेनादल के साथ भेजा। भीमसेन, सात्यकि तथा पाण्‍डुनन्दन अर्जुन को युधिष्ठिर ने द्वितीय सैन्य समूह का नेता बनाकर भेजा। वहाँ हर्ष में भरे हुए कुछ योद्धा सवारियों पर युद्ध की सामग्री चढा़ते, कुछ इधर-उधर जाते और कुछ लोग कार्यवश दौड़-धूप करते थे। उन सबका कोलाहल मानो स्वर्गलोक को छूने लगा। तत्पश्‍चात राजा विराट और द्रुपद को साथ ले अन्य भूपालों सहित स्वयं राजा युधिष्ठिर चले। भयंकर धनुर्धरों से भरी हुई और धृष्‍टद्युम्न के द्वारा सुरक्षित होकर कहीं ठहरती और कहीं आगे बढ़ती हुई वह पाण्‍डव सेना कहीं निश्‍चल और कहीं प्रवाहशील जल से भरी गंगा के समान दिखायी देती थी।

थोड़ी दूर जाकर बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्‍ट्र के पुत्रों के बौद्धिक निश्चय में भ्रम उत्पन्न करने के लिये अपनी सेना का दुबारा संगठन किया। पाण्‍डु पुत्र युधिष्ठिर ने द्रौपदी के महाधनुर्धर पुत्र, अभिमन्यु, नकुल, सहदेव, समस्त प्रभद्रक वीर, दस हजार घुड़सवार, दो हजार हाथीसवार, दस हजार पैदल तथा पांच सौ रथी- इनके प्रथम दुर्धर्ष दल को भीमसेन की अध्‍यक्षता में दे दिया। बीच के दल में राजा ने विराट, जयत्सेन तथा पाञ्चालदेशीय महारथी युधामन्यु और उत्तमौजा को रखा। हाथों में गदा और धनुष धारण किये से दोनों वीर (युधामन्यु-उत्तमौजा) बड़े पराक्रमी और मनस्वी थे। उस समय इन सबके मध्‍यभाग में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन सेना के पीछे-पीछे जा रहे थे। उस समय जो योद्धा पहले कभी युद्ध कर चुके थे, वे आवेश में भरे हुए थे। उनमें बीस हजार घोडे़ ऐसे थे जिनकी पीठ पर शौर्यसम्पन्न वीर बैठे हुए थे। इन घुड़सवारों के साथ पांच हजार गजारोही तथा बहुत से रथी भी थे।

धनुष, बाण, खड्ग और गदा धारण करने वाले जो पैदल सैनिक थे, वे सहस्रों की संख्‍या में सेना के आगे और पीछे चलते थे। जिस सैन्य-समुद्र में स्वयं राजा युधिष्ठिर थे, उसमें बहुत-से भूमिपाल उन्हें चारों ओर से घेरकर चलते थे। भारत! उसमें एक हजार हाथीसवार, दस हजार घुड़सवार, एक हजार रथी और कई सहस्र पैदल सैनिक थे। नृपश्रेष्‍ठ! अपनी विशाल सेना के साथ चेकितान तथा चेदिराज धृष्‍टकेतु भी उन्हीं के साथ जा रहे थे।[1] वृष्णिवंश के प्रमुख महारथी महान धनुर्धर बलवान सात्यकि एक लाख रथियों से घिरकर गर्जना करते हुए आगे बढ़ रहे थे। क्षत्रदेव और ब्रह्मदेव ये दोनों पुरुषरत्न रथ पर बैठकर सेना के पिछले भाग की रक्षा करते हुए पीछे-पीछे जा रहे थे। इनके सिवा और भी बहुत-से छकडे़, दुकानें, वेशभूषा के सामान, सवारियां, सामान ढोने की गाडी, एक सहस्र हाथी, अनेक अयुत घोडे़, अन्य छोटी-मोटी वस्तुएं, स्त्रियां, कृश और दुर्बल मनुष्‍य, कोश-संग्रह और उनके ढोने वाले लोग तथा कोष्ठागार आदि सब कुछ संग्रह करके राजा युधिष्ठिर धीरे-धीरे गजसेना के साथ यात्रा कर रहे थे।[2]

उनके पीछे सुचित्त के पुत्र रणदुर्मद सत्यधृति, श्रेणिमान, वसुदान तथा काशिराज के सामर्थ्‍यशाली पुत्र जा रहे थे। इन सबका अनुगमन करने वाले बीस हजार रथी, घुंघरुओं से सुशोभित दस करोड़ घोडे़, ईषादण्‍ड के समान दांत वाले, प्रहारकुशल, अच्छी जाति में उत्पन्न, मदस्त्रावी और मेघों की घटा के समान चलने वाले बीस हजार हाथी थे। भारत! इनके सिवा, युद्ध में महात्मा युधिष्ठिर के पास निजी तौर पर सत्तर हजार हाथी और थे, जो जल बरसान वाले बादलों की भाँति अपने गण्‍डस्थल से मद की धारा बहाते थे। वे सबके सब जंगम पर्वतों की भाँति राजा युधिष्ठिर का अनुसरण कर रहे थे। इस प्रकार बुद्धिमान कुन्ती के पुत्र के पास भयंकर एवं विशाल सेना थी, जिसका आश्रय लेकर वे धृतराष्‍ट्र के पुत्र दुर्योधन से लोहा ले रहे थे। इन सबके अतिरिक्त पीछे-पीछे लाखों पैदल मनुष्‍य तथा उनकी सहस्रों सेनाएं गर्जना करती हुई आगे बढ़ रही थीं। उस समय उस रणक्षेत्र में लाखों मनुष्‍य हर्ष और उत्साह में भरकर हजारों भेरियों तथा शंखों की ध्‍वनि कर रहे थे।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 196 श्लोक 1-23
  2. 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 196 श्लोक 24-35

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महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
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संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण | भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा | कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन | धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना | धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन | धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश | संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना | युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना | संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना | युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना | संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना | संजय को युधिष्ठिर का उत्तर | संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना | संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश | युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश | अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश | संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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