- अम्बा भीष्म से शाल्व के पास जाने की आज्ञा माँगती हैं और भीष्म उन्हें आज्ञा दे देते हैं। उसके बाद अम्बा शाल्व के पास जाती हैं और उनसे कहती हैं कि 'महाबाहो! मैं तुम्हारे पास ही आयी हूँ। मुझे अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण करो', तब शाल्व मुस्कराते हुए उनसे कहते हैं कि ‘सुन्दरी! तुम पहले ही दूसरे की हो चुकी हो अत: तुम्हारी जैसी स्त्री के साथ विवाह करने की मेरी इच्छा नहीं हैं। मैं तुम्हारा परित्याग करता हूँ। यह सुनकर दु:खी अम्बा वहाँ से चली जाती हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में अम्बोपाख्यान पर्व के अंतर्गत 175वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
अम्बा का शाल्व के पास जाना
भीष्मजी कहते हैं- नरेश्वर! तब मैंने माता गन्धवी काली से आज्ञा ले मन्त्रियों, ॠत्विजों तथा पुरोहितों से पूछकर बड़ी राजकुमारी अम्बा को जाने की आज्ञा दे दी। आज्ञा पाकर राजकन्या अम्बा वृद्ध ब्राह्मणों के संरक्षण में रहकर शाल्वराज के नगर की ओर गयी। उसके साथ उसकी धाय भी थी। उस मार्ग को लांघकर वह राजा के यहाँ पहुँच गयी और शाल्वराज से मिलकर इस प्रकार बोली- ‘महाबाहो! महामते! मैं तुम्हारे पास ही आयी हूँ। ‘राजन! मैं सदा तुम्हारे प्रिय और हित में तत्पर रहने वाली हूँ। मुझे अपनाकर आनन्दित करो। नरेश्वर! मुझे धर्मानुसार ग्रहण करके धर्म के लिये ही अपने चरणों में स्थान दो। मैंने मन-ही-मन सदा तुम्हारा ही चिन्तन किया है और तुमने भी एकान्त में मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव किया था।'
शाल्व का अम्बा से भीष्म के पास जाने को कहना
प्रजानाथ! अम्बा की बात सुनकर शाल्वराज ने मुस्कराते हुए कहा- ‘सुन्दरी! तुम पहले ही दूसरे की हो चुकी हो अत: तुम्हारी जैसी स्त्री के साथ विवाह करने की मेरी इच्छा नहीं हैं। ‘भद्रे! तुम पुन: वहाँ भीष्म के ही पास जाओ। भीष्म ने तुम्हें बलपूर्वक पकड़ लिया था, अत: अब तुम्हें मैं अपनी पत्नी बनाना नहीं चाहता। ‘भीष्म ने उस महायुद्ध में समस्त भूपालों को हराकर तुम्हें जीता और तुम्हें उठाकर वे अपने साथ ले गये। तुम उस समय उनके साथ प्रसन्न थीं। ‘वरवर्णिनि! जो पहले और की हो चुकी हो, ऐसी स्त्री को मैं अपनी पत्नी बनाऊं, यह मेरी इच्छा नहीं है। जिस नारी पर पहले किसी दूसरे पुरुष का अधिकार हो गया हो, उसे सारी बातों को ठीक-ठीक जानने वाला मेरे-जैसा राजा जो दूसरों को धर्म का उपदेश करता है, कैसे अपने घर में प्रविष्ट करायेगा। भद्रे! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। तुम्हारा यह समय यहाँ व्यर्थ न बीते।'
अम्बा का शाल्व से निवेदन करना
राजन! यह सुनकर कामदेव के बाणों से पीड़ित हुई अम्बा शाल्वराज से बोली- ‘भूपाल! तुम किसी तरह भी ऐसी बात मुंह से न निकालो। शत्रुसूदन! मैं भीष्म के साथ प्रसन्नतापूर्वक नहीं गयी थी। उन्होंने समस्त राजाओं को खदेड़कर बलपूर्वक मेरा अपहरण किया था और मैं रोती हुई ही उनके साथ गयी थी। ‘शाल्वराज! मैं निरपराध अबला हूँ। तुम्हारे प्रति अनुरक्त हूँ। मुझे स्वीकार करो क्योंकि भक्तों का परित्याग किसी भी धर्म में अच्छा नहीं बताया गया है। ‘युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले गंगानन्दन भीष्म से पूछकर, उनकी आज्ञा लेकर अत्यन्त उत्कण्ठा के साथ मैं यहाँ आयी हुं। ‘राजन! महाबाहु भीष्म मुझे नहीं चाहते। उनका यह आयोजन अपने भाई के विवाह के लिये था, ऐसा मैंने सुना है। ‘नरेश्वर! भीष्म जिन मेरी दो बहिनों-अम्बिका और अम्बालिका को हरकर ले गये थे, उन्हें उन्होंने अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य को ब्याह दिया है। ‘पुरुषसिंह शाल्वराज! मैं अपना मस्तक छूकर कहती हूँ तुम्हारे सिवा दूसरे किसी वर का मैं किसी प्रकार भी चिन्तन नहीं करती हूँ। ‘राजेन्द्र शाल्व! मुझ पर किसी भी दूसरे पुरुष का पहले कभी अधिकार नहीं रहा है। मैं स्वेच्छापूर्वक पहले-पहल तुम्हारी ही सेवा में उपस्थित हुई हूँ। यह मैं सत्य कहती हूँ और इस सत्य के द्वारा ही इस शरीर की शपथ खाती हुं। ‘विशाल नेत्रों वाले महाराज! मैंने आज से पहले किसी दूसरे पुरुष को अपना पति नहीं समझा है। मैं तुम्हारी कृपा की अभिलाषा रखती हूँ। स्वयं ही अपनी सेवा में उपस्थित हुई मुझ कुमारी कन्या को धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये।'[1] भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार अनुनय-विनय करती हुई काशिराज की उस कन्या को शाल्व ने उसी प्रकार त्याग दिया, जैसे सर्प पुरानी केंचुल को छोड़ देता है। भरमभूषण! इस तरह नाना प्रकार के वचनों द्वारा बार-बार याचना करने पर भी शाल्वराज ने उस कन्या की बातों पर विश्वास नहीं किया।
शाल्व द्वारा अम्बा का त्याग करना
तब काशिराज की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा क्रोध एवं दु:ख से व्याप्त हो नेत्रों से आंसू बहाती हुई अश्रुगद्गद वाणी में बोली- ‘राजन! यदि मेरी कही बात निश्चित रूप से सत्य हो तो तुम से परित्यक्त होने पर मैं जहां-जहाँ जाऊं, वहां-वहाँ साधु पुरुष मुझे सहारा देने वाले हों।' कुरुनन्दन! राजकन्या अम्बा करुण स्वर से विलाप करती हुई इसी प्रकार कितनी ही बातें कहती रही परंतु शाल्वराज ने उसे सर्वथा त्याग दिया। शाल्व ने बारंबार उससे कहा- ‘सुश्रोणि! तुम जाओ, चली जाओ, मैं भीष्म से डरता हूँ। तुम भीष्म के द्वारा ग्रहण की हुई हो।' अदूरदर्शी शाल्व के ऐसा कहने पर अम्बा कुररी की भाँति दीनभाव से रुदन करती हुई उस नगर से निकल गयी।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
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| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
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| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
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| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
| कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना
| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
| कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना
| कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश
| कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण
| कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण
| परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन
| कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
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| विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह
| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
| दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना
| नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन
| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
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| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
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| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
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| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
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| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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