- महाभारत उद्योग पर्व में सनत्सुजात पर्व के अंतर्गत 44वें अध्याय में 'सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1] -
विषय सूची
धृतराष्ट्र के प्रश्नों का सनत्सुजात द्वारा उत्तर
धृतराष्ट्र ने कहा- सनत्सुजात जी! आप जिस सर्वोत्तम और सर्वरूपा ब्रह्म सम्बन्धिनी विद्या का उपदेश कर रहे हैं, कामी पुरुषों के लिये वह अत्यन्त दुर्लभ है। कुमार! मेरा तो यह कहना है कि आप इस उत्कृष्ट विषय का पुन: प्रतिपादन करें।
सनत्सुजात ने कहा- राजन! तुम जो मुझसे बारंबार प्रश्न करते समय अत्यन्त हर्षित हो उठते हो, सो इस प्रकार जल्दबाजी करने से ब्रह्म की उपलब्धि नहीं होती। बुद्धि में मन के लय हो जाने पर सब वृत्तियों का विरोध करने वाली जो स्थिति है, उसका नाम है ब्रह्मविद्या और वह ब्रह्मचर्य का पालन करने से ही उपलब्ध होती है।
धृतराष्ट्र ने कहा- जो कर्मों द्वारा आरम्भ होने योग्य नहीं है तथा कार्य के समय में भी जो इस आत्मा में ही रहती है, उस अनन्त ब्रह्म से सम्बन्ध रखने वाली इस सनातन विद्या को यदि आप ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त होने योग्य बता रहे हैं तो मुझ जैसे लोग ब्रह्म सम्बन्धी अमृतत्त्व[2]को कैसे पा सकते हैं?
सनत्सुजात जी बोले- अब मैं [3] अव्यक्त ब्रह्म से सम्बन्ध रखने वाली उस पुरातन विद्या का वर्णन करूंगा, जो मनुष्यों को बुद्धि और ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त होती है, जिसे पाकर विद्वान पुरुष इस मरणधर्मा शरीर को सदा के लिये त्याग देते हैं तथा जो वृद्ध गुरुजनों में नित्य विद्यमान रहती है।
धृतराष्ट्र ने कहा- ब्रह्मन! यदि वह ब्रह्मविद्या ब्रह्मचर्य के द्वारा ही सुगमता से जानी जा सकती है तो पहले मुझे यही बताइये कि ब्रह्मचर्य का पालन कैसे होता है?
सनत्सुजातजी बोले- जो लोग आचार्य के आश्रम में प्रवेश कर अपनी सेवा से उनके अन्तरंग भक्त हो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वे यहाँ शास्त्राकार हो जाते हैं और देह-त्याग के पश्चात परम योगरूप परमात्मा को प्राप्त होते हैं।
इस जगत में जो लोग वर्तमान स्थिति में रहते हुए ही सम्पूर्ण कामनाओं को जीत लेते हैं और ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करने के लिये ही नाना प्रकार के द्वन्द्वों को सहन करते हैं, वे सत्त्वगुण में स्थित हो यहाँ ही मूंज से सींक की भाँति इस देह से आत्मा को [4]) पृथक कर लेते हैं। भारत! यद्यपि माता और पिता- ये ही दोनों इस शरीर को जन्म देते हैं, तथापि आचार्य के उपदेश से जो जन्म प्राप्त होता है, वह परम पवित्र और अजर-अमर है। जो परमार्थ तत्त्व के उपदेश से सत्य को प्रकट करके अमरत्व प्रदान करते हुए ब्राह्मणादि वर्णों की रक्षा करते हैं, उन आचार्य को पिता-माता ही समझना चाहिये तथा उनके किये हुए उपकार का स्मरण करके कभी उनसे द्रोह नहीं करना चाहिये। ब्रह्मचारी शिष्य को चाहिये कि वह नित्य गुरु को प्रणाम करे, बाहर-भीतर से पवित्र हो प्रमाद छोड़कर स्वाध्याय में मन लगावे, अभिमान न करे, मन में क्रोध को स्थान न दे। यह ब्रह्मचर्य का पहला चरण है।
जो शिष्य की वृत्ति के क्रम से ही जीवन-निर्वाह करता हुआ पवित्र हो विद्या प्राप्त करता है, उसका यह नियम भी ब्रह्मचर्य व्रत का पहला ही पाद कहलाता है। अपने प्राण और धन लगाकर भी मन, वाणी तथा कर्म से आचार्य का प्रिय करे, यह दूसरा पाद कहलाता है।[1]
गुरु के प्रति शिष्य के कर्तव्यों का वर्णन
गुरु के प्रति शिष्य का जैसा श्रद्धा और सम्मानपूर्ण बर्ताव हो, वैसा ही गुरु की पत्नी और पुत्र के साथ भी होना चाहिये। यह भी ब्रह्मचर्य का द्वितीय पाद ही कहलाता है। आचार्य ने जो अपना उपकार किया, उसे ध्यान में रखकर तथा उससे जो प्रयोजन सिद्ध हुआ, उसका भी विचार करके मन-ही-मन प्रसन्न होकर शिष्य आचार्य के प्रति जो ऐसा भाव रखता है कि इन्होंने मुझे बड़ी उन्नत अवस्था में पहुँचा दिया यह ब्रह्मचर्य का तीसरा पाद है।
आचार्य के उपकार का बदला चुकाये बिना अर्थात गुरुदक्षिणा आदि के द्वारा उन्हें संतुष्ट किये बिना विद्वान शिष्य वहाँ से अन्यत्र न जाये। दक्षिणा देकर या गुरु की सेवा करके कभी मन में ऐसा विचार न लावे कि मैं गुरु का उपकार कर रहा हूँ तथा मुँह से भी कभी ऐसी बात न निकाले। यह ब्रह्मचर्य का चौथा पाद है।
सनातनी विद्या के कुछ अंश को तथा उसके मर्म को तो मनुष्य समय के योग से प्राप्त करता है, कुछ अंश को गुरु के सम्बन्ध से तथा कुछ अंश को अपने उत्साह के सम्बन्ध से और कुछ अंश को परस्पर शास्त्र के विचार से प्राप्त करता है। पूर्वोक्त धर्मादि बारह गुण जिसके स्वरूप हैं तथा और भी जो धर्म के अंग एवं सामर्थ्य हैं, वे भी जिसके स्वरूप हैं, वह ब्रह्मचर्य आचार्य के सम्बन्ध से प्राप्त वेदार्थ के ज्ञान से सफल होता है, ऐसा कहा जाता है। इस तरह ब्रह्मचर्य पालन में प्रवृत्त हुए ब्रह्मचारी को चाहिये कि जो कुछ भी धन[5] भिक्षा में प्राप्त हो, उसे आचार्य को अर्पण कर दे। ऐसा करने से वह शिष्य सत्पुरुषों के अनेक गुणों से युक्त आचार को प्राप्त होता है। गुरु पुत्र के प्रति भी उसकी यही भावना रहनी चाहिये। ऐसी वृत्ति से गुरु गृह में रहने वाले शिष्य की इस संसार में सब प्रकार से उन्नति होती है।
वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके बहुत से पुत्र और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। सम्पूर्ण दिशा-विदिशाएं उसके लिये सुख की वर्षा करती हैं तथा उसके निकट बहुत-से दूसरे लोग ब्रह्मचर्य पालन के लिये निवास करते हैं। इस ब्रह्मचर्य के पालन से ही देवताओं ने देवत्व प्राप्त किया और महान सौभाग्यशाली मनीषी ऋषियों ने ब्रह्मलोक को प्राप्त किया। इसी के प्रभाव से गन्धर्वों और अप्सराओं को दिव्य रूप प्राप्त हुआ। इस ब्रह्मचर्य के ही प्रताप से सूर्यदेव समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ होते हैं। रस भेदरूप चिन्तामणि से याचना करने वालों को जैसे उनके अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य भी मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करने वाला है। ऐसा समझकर ये ऋषि देवता आदि ब्रह्मचर्य के पालन से वैसे भाव को प्राप्त हुए।
राजन! जो इस ब्रह्मचर्य का आश्रय लेता है, वह ब्रह्मचारी यम-नियमादि तप का आचरण करता हुआ अपने सम्पूर्ण शरीर को भी पवित्र बना लेता है तथा इससे विद्वान पुरुष निश्चय ही अबोध बालक की भाँति राग-द्वेष से शून्य हो जाता है और अन्त समय में वह मृत्यु को भी जीत लेता है। राजन! सकाम पुरुष अपने पुण्य कर्मों के द्वारा नाशवान लोकों को ही प्राप्त करते हैं; किंतु जो ब्रह्म को जानने वाला विद्वान है, वही उस ज्ञान के द्वारा सर्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है। मोक्ष के लिये ज्ञान के सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है।[6]
परमात्मा के रूप का वर्णन
धृतराष्ट्र बोले- विद्वान पुरुष यहाँ सत्य स्वरूप परमात्मा के जिस अमृत एवं अविनाशी परमपद का साक्षात्कार करते हैं, उसका रूप कैसा है? क्या वह सफेद-सा, लाल-सा, काजल-सा, काला या सुवर्ण जैसे पीले रंग का प्रतीत होता है?
सनत्सुजात ने कहा- यद्यपि श्वेत, लाल, काले, लोहे के सदृश अथवा सूर्य के समान प्रकाशमान अनेकों प्रकार के रूप प्रतीत होते है, तथापि ब्रह्म का वास्तविक रूप न पृथ्वी में है, न आकाश में। समुद्र का जल भी उस रूप को नहीं धारण करता। इस ब्रह्म का वह रूप न तारों में है, न बिजली के आश्रित है और न बादलों में ही दिखायी देता है। इसी प्रकार वायु, देवगण, चन्द्रमा और सूर्य में भी वह नहीं देखा जाता। राजन! ऋग्वेद की ऋचाओं में, यजुर्वेद के मन्त्रों में, अथर्ववेद के सूक्तों में तथा विशुद्ध सामवेद में भी वह नहीं दृष्टिगोचर होता। रथन्तर और बार्हद्रथ नामक साम में तथा महान व्रत में भी उसका दर्शन नहीं होता; क्योंकि वह ब्रह्म नित्य है। ब्रह्म के उस स्वरूप का कोई पार नहीं पा सकता। वह अज्ञान रूप अन्धकार से सर्वथा अतीत हैं।
महाप्रलय में सबका अन्त करने वाला काल भी उसी में लीन हो जाता है। वह रूप उस्तरे की धार के समान अत्यन्त सूक्ष्म और पर्वतों से भी महान है[7] वही सबका आधार है, वही अमृत है, वही लोक, वही यश तथा वही ब्रह्म है। सम्पूर्ण भूत उसी से प्रकट हुए और उसी में लीन होते हैं। विद्वान कहते हैं, कार्यरूप जगत वाणी का विकार-मात्र है; किंतु जिसमें यह सम्पूर्ण जगत प्रतिष्ठित है, वह ब्रह्म रोग, शोक और पाप से रहित है और उसका महान यश सर्वत्र फैला हुआ है। उन नित्य कारणस्वरूप ब्रह्म को जो जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं अर्थात मुक्त हो जाते हैं।[8]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-12
- ↑ मोक्ष
- ↑ सच्चिदानन्दन
- ↑ विवेक द्वारा
- ↑ जीवन निर्वाह योग्य वस्तुएं
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 44 श्लोक 13-24
- ↑ अर्थात वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर और महान-से भी महान है
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 44 श्लोक 25-31
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| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
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| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
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| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
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