विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन

महाभारत उद्योग पर्व में प्रजागर पर्व के अंतर्गत 40वें अध्याय में 'विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-


विदुर जी द्वारा राजा धृतराष्ट्र को धर्म की महत्ता बतलाना

विदुर जी कहते है राजा धृतराष्ट्र जो सज्‍जन पुरुषों से आदर पाकर आसक्ति रहित हो अपनी शक्ति के अनुसार [2]अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्‍ठ पुरुष को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है; क्‍योंकि संत जिस पर प्रसन्‍न होते हैं, वह सदा सुखी रहता है। जो अधर्म से उपार्जित महान धनराशि को भी उसकी ओर आकृष्‍ट हुए बिना ही त्‍याग देता है, जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुल को छोड़ता है, उसी प्रकार वह दु:खों से मुक्‍त हो सुखपूर्वक शयन करता है। झूठ बोलकर उन्‍नति करना, राजा के पास तक चुगली करना, गुरु जन पर भी झूठा दोषारोपण करने का आग्रह करना- ये तीन कार्य ब्रह्म हत्‍या के समान हैं। गुणों में दोष देखना एकदम मृत्यु के समान है, निंदा करना लक्ष्‍मी का वध है तथा सेवा का अभाव, उतावलापन और आत्‍म-प्रशंसा- ये तीन विद्या के शत्रु हैं। आलस्‍य, मद-मोह, चंचलता, गोष्‍टी, उद्दण्‍डता, अभिमान और स्‍वार्थ त्‍याग का अभाव- ये सात विद्यार्थियों के लिये सदा ही दोष माने गये हैं। सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ से मिले? विद्या चा‍हने-वाले के लिये सुख नहीं है; सुख की चाह हो तो विद्या को छोड़ें और विद्या चाहे तो सुख का त्‍याग करें। ईंधन से आग की, नदियों से समुद्र की, समस्‍त प्राणियों से मृत्‍यु की और पुरुषों से कुलटा स्‍त्री की कभी तृप्ति नहीं होती। आशा धैर्य को, यमराज समृद्धि को, क्रोध लक्ष्‍मी को, कृपणता यश को और सार-संभाल का अभाव पशुओं को नष्‍ट कर देता है, परंतु राजन! ब्राह्मण यदि अकेला ही क्रुद्ध हो जाय तो सम्‍पूर्ण राष्‍ट्र का नाश कर देता है। बकरियाँ, काँसे का पात्र, चाँदी, मधु, धनुष, पक्षी,वेदवेत्ता ब्राह्मण, बूढ़ा कुटम्‍बी और विपत्तिग्रस्‍त कुलीन पुरुष- ये सब आपके घर में सदा मौजूद रहे है।

विदुर जी कहते है कि भरत! मनुजी ने कहा है कि देवता, ब्राह्मण तथा अतिथियों की पूजा के लिये बकरी, बैल, चंदन, वीणा, दर्पण, मधु, घी, जल, ताँबे के बर्तन, शंग, शालग्राम और गोगेचन- ये सब वस्‍तुएं घर पर रखनी चाहिये। तात! अब मैं तुम्‍हें यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोपरि पुण्‍यजनक बात बता रहा हूँ- कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिये भी कभी धर्म का त्‍याग न करें। धर्म नित्‍य है, किंतु सुख-दु:ख अनित्‍य है। जीव नित्‍य है, पर इसका कारण अनित्‍य है। आप अनित्‍य को छोड़कर नित्‍य में स्थित हो जाइये और संतोष धारण कीजिये; क्‍योंकि संतोष ही सबसे बड़ा लाभ है। धन-धान्‍यादि से परिपूर्ण पृथ्वी का शासन करके अंत में समस्‍त राज्‍य और विपुल भोगों को यहीं छोड़कर यमराज के वश में गये हुए बड़े-बड़े बलवान एवं महानुभाव राजाओं की ओर दृष्टि डालिये। राजन! जिसको बड़े कष्‍ट से पाला-पोसा था, वही पुत्र जब मर जाता है, तब मनुष्‍य उसे उठाकर तुरंत अपने घर से बाहर कर देते हैं। पहले तो उसके लिये बाल छितराये करुणा भरे स्‍वर में विलाप करते हैं, फिर साधारण काठ की भाँति उसे जलती चिता में झोंक देते हैं। मरे हुए मनुष्‍य का धन दूसरे लोग भोगते हैं, उसके शरीर की धातुओं को पक्षी खाते हैं या आग जलाती है। यह मनुष्‍य पुण्‍य-पाप से बंधा हुआ इन्‍हीं दोनों के साथ परलोक में गमन करता है।[1] तात बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उस प्रेत को उसके जाति वाले, सुहृद और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं। अग्नि में डाले हुए उस पुरुष के पीछे तो केवल उसका अपना किया हुआ बुरा या भला कर्म ही जाता है। इसलिये पुरुष को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्‍नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे। इस लोक और परलोक से ऊपर और नीचे तक सर्वत्र अज्ञानरूप महान अंधकार फैला हुआ है। वह इन्द्रियों को महान मोह में डालने वाला है।[3]

विदुरजी कहते है- राजन आप इसको जान लीजिये, जिससे यह आपका स्‍पर्श न कर सके। मेरी इस बात को सुनकर यदि आप सब ठीक-ठीक समझ सकेंगे तो इस मनुष्‍य लोक में आपको महान यश प्राप्‍त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा। यह जीवात्‍मा एक नदी है। इसमें पुण्‍य ही तीर्थ है। सत्‍यस्‍वरूप परमात्‍मा से इसका उद्गम हुआ है। धैर्य ही इसके‍ किनारे हैं तथा दया ही इसकी लहरें है। पुण्‍य कर्म करने वाला मनुष्‍य इसमें स्‍नान करके पवित्र होता है क्‍योंकि लोभ रहित आत्‍मा सदा पवित्र ही है। काम-क्रोधादि रूप ग्राह से भरी, पांच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्‍म-मरण रूप दुर्गम प्रवाह को धैर्य की नौका बनाकर पार कीजिये। जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्‍था में बड़े अपने बंधु-को आदर-सत्‍कार से प्रसन्‍न करके उससे कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य के विषय में प्रश्‍न करता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। शिश्‍न और उदर की धैर्य से रक्षा करे, अर्थात कामवेग और भूख की ज्‍वाला को धैर्यपूर्वक सहे। इसी प्रकार हाथ-पैर की नेत्रों से, नेत्र और कानों की मन से तथा मन और वाणी की सत्‍कर्मों से रक्षा करे।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-16
  2. न्‍यायपूर्वक
  3. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 40 श्लोक 17-32

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दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

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