- महाभारत उद्योग पर्व में प्रजागर पर्व के अंतर्गत 36वें अध्याय में 'विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाने' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र का विदुर से प्रश्न पूछना
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर! धर्म और अर्थ के अनुष्ठान में परायण एवं बहुश्रुत देवता भी उत्तम कुल में उत्पन्न पुरुषों की इच्छा करते हैं। इसिलये मैं तुमसे यह प्रश्न करता हूँ कि महान (उत्तम) कुलीन कौन हैं?
विदुर का धृतराष्ट्र को समझाना
विदुर जी बोले- राजन! जिनमें तप, इन्द्रिय संयम, वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ, पवित्र विवाह, सदा अन्नदान और सदाचार- ये सात गुण वर्तमान हैं, उन्हें महान (उत्तम) कुलीन कहते हैं। जिनका सदाचार शिथिल नहीं होता, जो अपने दोषों से माता-पिता को कष्ट नहीं पहुँचाते, प्रसन्न चित्त से धर्म का आचरण करते हैं तथा असत्य का परित्याग कर अपने कुल की विशेष कीर्ति चाहते हैं, वे ही महान कुलीन हैं। यज्ञ न होने से, निन्दित कुल में विवाह करने से, वेद का त्याग और धर्म का उल्लघंन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं। देवताओं के धन का नाश, ब्राह्मण के धन का अपहरण और ब्राह्मणों की मर्यादा का उल्लघंन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं। भारत! ब्राह्मणों के अनादर और निन्दा से तथा धरोहर रखी हुई वस्तु को छिपा लेने से अच्छे कुल भी निन्दनीय हो जाते हैं। गौओं, मनुष्यों और धन से सम्पन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे अच्छे कुलों की गणना में नहीं आ सकते। थोडे़ धन वाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान यश प्राप्त करते हैं।[1]
विदुर द्वारा सदाचार की महत्ता को समझाना
विदुर जी कहते हैं- राजन! सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये; धन तो आता और जाता रहता है। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता; किंतु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये। जो कुल सदाचार से हीन हैं, गौओं, पशुओं, घोड़ों तथा हरी-भरी खेती से सम्पन्न होने पर भी उन्नति नहीं कर पाते। हमारे कुल में कोई बैर करने वाला न हो, दूसरों के धन का अपहरण करने वाला राजा अथवा मन्त्री न हो और मित्र द्रोही, कपटी तथा असत्यवादी न हो। इसी प्रकार माता-पिता, देवता और अतिथियों को भोजन कराने से पहले भोजन करने वाला भी न हो। हम लोगों में से जो ब्राह्मणों की हत्या करे, ब्राह्मणों के साथ द्वेष करे तथा पितरों को पिण्डदान एवं तर्पण न करे, वह हमारी सभा में प्रवेश न करें। तृण का आसन, पृथ्वी, जल और चौथी मीठी वाणी सज्जनों के घर में इन चार चीजों की कभी कमी नहीं होती। महाप्राज्ञ राजन! पुण्यकर्म करने वाले धर्मात्मा पुरुषों के यहाँ ये[2] बड़ी श्रद्धा के साथ सत्कार के लिये उपस्थित की जाती हैं। नृपवर! रथ छोटा-सा होने पर भी भार ढो सकता है, किंतु दूसरे काठ बड़े-बड़े होने पर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार उत्तम कुल में उत्पन्न उत्साही पुरुष भार सह सकते हैं, दूसरे मनुष्य वैसे नहीं होते। जिसके कोप से भयभीत होना पड़े तथा शंकित होकर जिसकी सेवा की जाय, वह मित्र नहीं है। मित्र तो वही है, जिस पर पिता की भाँति विश्वास किया जा सके; दूसरे तो साथी मात्र हैं। पहले से कोई सम्बन्ध न होने पर भी जो मित्रता का बर्ताव करे, वही बन्धु, वही मित्र, वही सहारा और वही आश्रय है। जिसका चित्त चंचल है, जो वृद्धों की सेवा नहीं करता, उस अनिश्चितमति पुरुष के लिये मित्रों का संग्रह स्थायी नहीं होता। जैसे सूखे सरोवर के ऊपर ही हंस मंडराकर रह जाते हैं, उसके भीतर नहीं प्रवेश करते, उसी प्रकार जिसका चित्त चंचल है, जो अज्ञानी और इन्द्रियों का गुलाम है, अर्थ उसको त्याग देते हैं। दुष्ट पुरुषों का स्वभाव मेघ के समान चंचल होता है, वे सहसा क्रोध कर बैठते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं। जो मित्रों से सत्कार पाकर और उनकी सहायता से कृतकार्य होकर भी उनके नहीं होते, ऐसे कृतघ्नों के मरने पर उनका मांस मांसभोजी जन्तु भी नहीं खाते। धन हो या न हो, मित्रों से कुछ भी न मांगते हुए उनका सत्कार तो करे ही। मित्रों के सार-असार की परीक्षा न करे। संताप[3] से रूप नष्ट होता है, संताप से बल नष्ट होता है, संताप से ज्ञान नष्ट होता है और संताप से मनुष्य रोग को प्राप्त होता है। अभीष्ट वस्तु शोक करने से नहीं मिलती; उससे तो केवल शरीर संतप्त होता है और शत्रु प्रसन्न होते हैं। इसलिये आप मन में शोक न करें। मनुष्य बार-बार मरता और जन्म लेता है, बार-बार क्षय और वृद्धि को प्राप्त होता है, बार-बार स्वयं दूसरे से याचना करता है और दूसरे उससे याचना करते हैं तथा बारंबार वह दूसरों के लिये शोक करता है और दूसरे उसके लिये शोक करते हैं।[4] सुख-दु:ख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन-मरण- ये क्रमश: सबको प्राप्त होते हैं; इसलिये धीर पुरुष को इनके लिये हर्ष और शोक नहीं करना चाहिये। ये छ: इन्द्रियां बहुत ही चंचल हैं; इनमें से जो-जो इन्द्रिय जिस-जिस विषय की ओर बढ़ती है, वहाँ-वहाँ बुद्धि उसी प्रकार क्षीण होती है, जैसे फूटे घड़े से पानी सदा चू जाता है।[5]
धृतराष्ट्र का भय प्रकट करना
धृतराष्ट्र ने कहा- विदुर! सूक्ष्म धर्म से बंधे हुए, शिखा से सुशोभित होने वाले राजा युधिष्ठिर के साथ मैंने मिथ्या व्यवहार किया है; अत: वे युद्ध करके मेरे मूर्ख पुत्रों का नाश कर डालेंगे। महामते! यह सब कुछ सदा ही भय से उद्विग्न है, मेरा यह मन भी भय से उद्विग्न है; इसलिये जो उद्वेग-शून्य और शान्त पद (मार्ग) हो, वही मुझे बताओ।[5]
विदुर जी द्वारा शांति का उपाय बताना
विदुर जी बोले- पापशून्य नरेश! विद्या, तप, इन्द्रिय-निग्रह और लोभ त्याग के सिवा और कोई आपके लिये शान्ति का उपाय मैं नहीं देखता। बुद्धि से मनुष्य अपने भय को दूर करता है, तपस्या से महत्पद को प्राप्त होता है, गुरुशुश्रूषा से ज्ञान और योग से शान्ति पाता है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले मनुष्य दान के पुण्य का आश्रय नहीं लेते, वेद के पुण्य का भी आश्रय नहीं लेते; किंतु निष्काम-भाव से राग-द्वेष से रहित हो इस लोक में विचरते रहते हैं। सम्यक अध्ययन, न्यायोचित युद्ध, पुण्यकर्म और अच्छी तरह की हुई तपस्या के अन्त में सुख की वृद्धि होती है। राजन! आपस में फूट रखने वाले लोग अच्छे बिछौनों से युक्त पलंग पाकर भी कभी सुख की नींद नहीं सो पाते; उन्हें स्त्रियों के पास रहकर तथा सूत-मागधों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता नहीं होती। जो परस्पर भेदभाव रखते हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते। वे सुख भी नहीं पाते। उन्हें गौरव नहीं प्राप्त होता तथा उन्हें शांति की वार्ता भी नहीं सुहाती। हित की बात भी कही जाय तो उन्हें अच्छी नहीं लगती। उनके योगक्षेम की भी सिद्धि नहीं हो पाती। राजन! भेद-भाव वाले पुरुषों की विनाश के सिवा और कोई गति नहीं है। जैसे गौओं से दूध, ब्राह्मण में तप और युवती स्त्रियों में चंचलता का होना अधिक सम्भव है, उसी प्रकार अपने जातिबन्धुओं से भय होना भी सम्भव ही है। नित्य सींचकर बढ़ायी हुई पतली लताएं बहुत होने के कारण वर्षों तक नाना प्रकार के झोंके सहती हैं; यही बात सत्पुरुषों के विषय में भी समझनी चाहिये[6] भरतश्रेष्ठ धृतराष्ट्र! जलती हुई लकड़ियां अलग-अलग होने पर धुआँ फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्वलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जातिबंधु भी आपस में फूट होने पर दु:ख उठाते हैं और एकता होने पर सुखी रहते हैं। धृतराष्ट्र! जो लोग ब्राह्मणों, स्त्रियों, जाति वालों और गौओं-पर ही शूरता प्रकट करते हैं, वे डंठल से पके हुए फलों की भाँति नीचे गिरते हैं। यदि वृक्ष अकेला है तो वह बलवान, दृढ़मूल तथा बहुत बड़ा होने पर भी एक ही क्षण में आंधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है। किंतु जो बहुत-से वृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में खड़े हैं, वे एक-दूसरे के सहारे बड़ी-से-बड़ी आंधी को भी सह सकते हैं।[5]
इसी प्रकार समस्त गुणों से सम्पन्न मनुष्य को भी अकेले होने पर शत्रु अपनी शक्ति के अंदर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को वायु। किंतु परस्पर मेल होने से और एक से दूसरे को सहारा मिलने से जाति वाले लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं, जैसे तालाब में कमल। ब्राह्मण, गौ, कुटुम्बी, बालक, स्त्री, अन्नदाता और शरणागत- ये अवध्य होते हैं। राजन! आपका कल्याण हो, मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है; क्योंकि रोगी तो मुर्दे के समान है। महाराज! जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से सम्बद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्जनों द्वारा पान करने योग्य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते- उस क्रोध को आप पी जाइये और शांत होइये। रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुखी रहते हैं; वे न तो धन संबंधी भोगों का और न सुख का ही अनुभव करते हैं। राजन! पहले जूए में द्रौपदी को जीती गयी देखकर मैंने आपसे कहा था- ‘आप द्यूतक्रीड़ा में आसक्त दुर्योधन को रोकिये, विद्वान लोग इस प्रवञ्चना के लिये मना करते हैं।' किंतु आपने मेरा कहना नहीं माना। वह बल नहीं, जिसका मृदुल स्वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्म धर्म का शीघ्र ही सेवन करना चाहिये। क्रूरतापूर्वक उपर्जित लक्ष्मी नश्वर होती है, यदि वह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र-पौत्रों तक स्थिर रहती है। राजन! आपके पुत्र पाण्डवों की रक्षा करें और पाण्डु के पुत्र आपके पुत्रों की रक्षा करें। सभी कौरव एक-दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझे। सबका एक ही कर्तव्य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्यतीत करें। अजमीढकुलनंदन! इस समय आप ही कौरवों के आधार-स्तम्भ हैं, कुरुवंश आपके ही अधीन है। तात! कुंती के पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्ट पा चुके हैं; इस समय उनका पालन करके अपने यश की रक्षा कीजिये। कुरुराज! आप पाण्डवों से संधि कर लें, जिससे शत्रुओं को आपका छिद्र देखने का अवसर न मिले। नरदेव! समस्त पाण्डव सत्य पर डटे हुए हैं; अब आप अपने पुत्र दुर्योधन को रोकिये।[7]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 14-29
- ↑ उपर्युक्त वस्तुएं
- ↑ शोक
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 30-46
- ↑ 5.0 5.1 5.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 47-63
- ↑ वे दुर्बल होने पर भी सामूहिक शक्ति से बलवान हो जाते हैं
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 64-74
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| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
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| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
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| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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