कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना

जब भोजन करने के पश्चात् श्रीकृष्ण विश्राम करते हैं तब विदुर उन्हें कौरव सभा में जाने का अनौचित्य बताते हुए कहते हैं कि- 'जनार्दन! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को यह दृढ़ विश्वास है कि देवताओं सहित इन्द्र भी इस समय युद्ध के द्वारा हमारी इस सेना को परास्त नहीं कर सकते। जो इस प्रकार निश्चय किए बैठे हैं, उनके प्रति आपका युक्तियुक्त एवं सार्थक वचन भी निरर्थक एवं असफल हो जाएगा।' अब कृष्ण विदुर को कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 93 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

श्रीकृष्ण का विदुर को कौरव-पांडवों में संधिस्थापन के प्रयत्न का औचित्य बताना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विदुर का यह प्रेम और विनय से युक्त वचन सुनकर पुरुषोत्तम भगवान मधुसूदन ने यह बात कही। श्रीभगवान बोले- 'विदुर जी! एक महान बुद्धिमान पुरुष जैसी बात कह सकता है, विद्वान पुरुष जैसी सलाह दे सकता है, आप-जैसे हितैषी पुरुष के लिए मेरे-जैसे सुहृद से जैसी बात कहनी उचित है और आपके मुख से जैसा धर्म और अर्थ से युक्त सत्य वचन निकलना चाहिए, आपने माता-पिता के समान स्नेहपूर्वक वैसी ही बात मुझसे कही है। आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वही सत्य, समायोचित और युक्तिसंगत है। तथापि विदुर जी! यहाँ मेरे आने का जो कारण है, उसे सावधान होकर सुनिए।

'विदुर जी! मैं धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की दुष्टता और क्षत्रिय योद्धाओं के बैर भाव इन- सब बातों को जानकर ही आज कौरवों के पास आया हूँ। अश्व, रथ और हाथियों सहित यह सारी पृथ्वी विनष्ट होना चाहती है। जो इसे मृत्युपाश से छुड़ाने का प्रयत्न करेगा, उसे ही उत्तम धर्म प्राप्त होगा। मनुष्य यदि अपनी शक्ति पर किसी धर्मकार्य को करने का प्रयत्न करते हुए भी उसमें सफलता न प्राप्त कर सके, तो भी उसे उसका पुण्य तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है। इस विषय में मुझे संदेह नहीं है। इसी प्रकार यदि मनुष्य मन से पाप का चिंतन करते हुए भी उसमें रुचि न होने के कारण उसे क्रिया द्वारा संपादित न करे, तो उसे उस पाप का फल नहीं मिलता है। ऐसा धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं। अत: विदुर जी! मैं युद्ध में मर मिटने को उद्यत हुए कौरवों तथा सृंजयों में संधि कराने का निश्चलभाव से प्रयत्न करूंगा। यह अत्यंत भयंकर आपत्ति कर्ण और दुर्योधन द्वारा ही उपस्थित की गयी है, क्योंकि ये सभी नरेश इन्हीं दोनों का अनुसरण करते हैं। अत: इस विपत्ति का प्रादुर्भाव कौरव पक्ष में ही हुआ है। जो किसी व्यसन या विपत्ति में पड़कर क्लेश उठाते हुए मित्र को यथाशक्ति समझा-बुझाकर उसका उद्धार नहीं करता है, उसे विद्वान पुरुष निर्दय एवं क्रूर मानते हैं। जो अपने मित्र को उसकी चोटी पकड़कर भी बुरे कार्य से हटाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करता है, वह किसी की निंदा का पात्र नहीं होता है। अत: विदुर जी! दुर्योधन और उसके मंत्रियों को मेरी शुभ, हितकर, युक्तियुक्त तथा धर्म और अर्थ के अनुकूल बात अवश्य माननी चाहिए। मैं तो निष्कपट भाव से धृतराष्ट्र के पुत्रों, पांडवों तथा भूमंडल के सभी क्षत्रियों के हित का ही प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार हितसाधन के लिए प्रयत्न करने पर भी यदि दुर्योधन मुझ पर शंका करेगा तो मेरे मन को तो प्रसन्नता ही होगी और मैं अपने कर्तव्य के भार से उऋण हो जाऊंगा।

भगवान जनार्दन कहते हैं- विदुर जी! भाई-बंधुओं में परस्पर फूट होने का अवसर आने पर जो मित्र सर्वथा प्रयत्न करके उनमें मेल कराने के लिए मध्यस्थता नहीं करता, उसे विद्वान पुरुष मित्र नहीं मानते हैं। संसार के पापी, मूढ़ और शत्रुभाव रखने वाले लोग मेरे विषय में यह न कहें कि श्रीकृष्ण ने समर्थ होते हुए भी क्रोध से भरे हुए कौरव-पांडवों को युद्ध से नहीं रोका इसलिए भी मैं संधि कराने का प्रयत्न करूंगा।[1] मैं दोनों पक्षों का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ही यहाँ आया हूँ। इसके लिए पूरा प्रयत्न कर लेने पर मैं लोगों में निंदा का पात्र नहीं बनूँगा। यदि मूर्ख दुर्योधन मेरे कष्टनिवारक एवं धर्म तथा अर्थ के अनुकूल वचनों को सुनकर भी उन्हें ग्रहण नहीं करेगा तो उसे दुर्भाग्य के अधीन होना पड़ेगा। महात्मन! यदि मैं पांडवों के स्वार्थ में बाधा न आने देकर कौरवों तथा पांडवों में यथायोग्य संधि करा सकूँगा तो मेरे द्वारा यह महान पुण्यकर्म बन जाएगा और कौरव भी मृत्यु के पाश से मुक्त हो जाएँगे। मैं शांति के लिए विद्वानों द्वारा अनुमोदित धर्म और अर्थ के अनुकूल हिंसा रहित बात कहूँगा। यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मेरी बात पर ध्यान देंगे तो उसे अवश्य मानेंगे तथा कौरव भी मुझे वास्तव में शांतिस्थापन के लिए ही आया हुआ जान मेरा आदर करेंगे। जैसे क्रोध में भरे हुए सिंह के सामने दूसरे पशु नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार यदि मैं कुपित हो जाऊँ तो ये समस्त राजा लोग एक साथ मिलकर भी मेरा सामना करने में समर्थ न होंगे।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! यदुकुल को सुख देने वाले वृष्णिवंशविभूषण श्रीकृष्ण विदुर जी से उपर्युक्त बात कहकर स्पर्शमात्र से सुख देने वाली शय्या पर सो गए।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 93 श्लोक 1-16
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 93 श्लोक 17-22

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सेनोद्योग पर्व
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संजययान पर्व
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प्रजागर पर्व
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सनत्सुजात पर्व
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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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