- भीष्म और परशुरामजी के बीच वार्तालाप के बाद, दोनों युद्ध हेतु तैयार होकर कुरुक्षेत्र में जाते हैं जहाँ दोनों के बीच युद्ध प्रारम्भ होता है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में अम्बोपाख्यान पर्व के अंतर्गत 179वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
परशुराम के युद्ध हेतु तैयारी का भीष्म द्वारा वर्णन करना
भीष्मजी कहते हैं- राजन! तब मैं युद्ध के लिये खडे़ हुए परशुरामजी से मुस्कराता हुआ-सा बोला- ‘ब्रह्मन! मैं रथ पर बैठा हूँ और आप भूमि पर खडे़ हैं। ऐसी दशा में मैं आपके साथ युद्ध नहीं कर सकता। ‘महाबाहो! वीरवर राम! यदि आप समरभूमि में मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं तो रथ पर आरूढ़ होइये और कवच भी बांध लीजिये।' तब परशुरामजी समरांगण में किंचित मुस्कराते हुए मुझसे बोले- ‘कुरुनन्दन भीष्म! मेरे लिये तो पृथ्वी ही रथ है, चारों वेद ही उत्तम अश्वों के समान मेरे वाहन हैं, वायुदेव ही सारथि हैं और वेदमाताएं (गायत्री, सावित्रि और सरस्वती) ही कवच हैं। इन सबसे आवृत एवं सुरक्षित होकर मैं रणक्षेत्र में युद्ध करूंगा।' गान्धारीनन्दन! ऐसा कहते हुए सत्यपराक्रमी परशुरामजी ने मुझे सब ओर से अपने बाणों के महान समुदाय द्वारा आवृत कर लिया। उस समय मैंने देखा, जमदग्निनन्दन परशुराम सम्पूर्ण श्रेष्ठ आयुधों से सुशोभित, तेजस्वी एवं अदभुत दिखायी देने वाले रथ में बैठे हैं। उसका विस्तार एक नगर के समान था। उस पुण्यरथ का निर्माण उन्होंने अपने मानसिक संकल्प से किया था। उसमें दिव्य अश्व जुते हुए थे। वह स्वर्णभूषित रथ सब प्रकार से सुसज्जित था। महाबाहो! परशुरामजी ने एक सुन्दर कवच धारण कर रखा था, जिसमें चन्द्रमा और सूर्य के चिह्न बने हुए थे। उन्होंने हाथ में धनुष लेकर पीठ पर तरकस बांध रखा था और अंगुलियों की रक्षा के लिये गोह के चर्म के बने हुए दस्ताने पहन रखे थे। उस समय युद्ध के इच्छुक परशुरामजी के प्रिय सखा वेदवेत्ता अकृतव्रण ने उनके सारथि का कार्य सम्पन्न किया।
भीष्म द्वारा परशुरामजी से आशीर्वाद माँगना
भृगुनन्दन राम ‘आओ’ कहकर बार-बार मुझे पुकारते और युद्ध के लिये मेरा आह्वान करते हुए मेरे मन को हर्ष और उत्साह-सा प्रदान कर रहे थे। उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी, अजेय, महाबली और क्षत्रिय विनाशक परशुराम अकेले ही युद्ध के लिये खडे़ थे। अत: मैं भी अकेला ही उनका सामना करने के लिये गया। जब वे तीन बार मेरे ऊपर बाणों का प्रहार कर चुके, तब मैं घोड़ों को रोककर और धनुष रखकर रथ से उतर गया और उन ब्राह्मण शिरोमणि मुनिप्रवर परशुरामजी का समादर करने के लिये पैदल ही उनके पास गया। जाकर विधिपूर्वक उन्हें प्रणाम करने के पश्चात यह उत्तम वचन बोला- ‘भगवन परशुराम! आप मेरे समान अथवा मुझसे भी अधिक शक्तिशाली हैं। मेरे धर्मात्मा गुरु हैं। मैं इस रणक्षेत्र में आपके साथ युद्ध करूंगा अत: आप मुझे विजय के लिये आशीर्वाद दें।'
परशुरामजी ने कहा- कुरुश्रेष्ठ! अपनी उन्नति के चाहने वाले प्रत्येक योद्धा को ऐसा ही करना चाहिये। महाबाहो! अपने से विशिष्ट गुरुजनों के साथ युद्ध करने वाले राजाओं का यही धर्म है। प्रजानाथ! यदि तुम इस प्रकार मेरे समीप नहीं आते तो मैं तुम्हें शाप दे देता। कुरुनन्दन! तुम धैर्य धारण करके इस रणक्षेत्र में प्रयत्न पूर्वक युद्ध करो। मैं तो तुम्हें विजयसूचक आशीर्वाद नहीं दे सकता क्योंकि इस समय मैं तुम्हें पराजित करने के लिये खड़ा हूँ। जाओ, धर्मपूर्वक युद्ध करो। तुम्हारे इस शिष्टाचार से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तब मैं उन्हें नमस्कार करके शीघ्र ही रथ पर जा बैठा और उस युद्ध भूमि में मैंने पुन: अपने सुवर्णजटित शंख को बजाया।
भीष्म तथा परशुरामजी के बीच युद्ध का वर्णन
राजन! भरतनन्दन! तदनन्तर एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से मेरा तथा परशुरामजी का युद्ध बहुत दिनों तक चलता रहा। उस रणभूमि में उन्होंने ही पहले मेरे ऊपर गीध की पांखों से सुशोभित तथा मुडे़ हुए पर्ववाले नौ सौ साठ बाणों द्वारा प्रहार किया।[1] राजन! उन्होंने मेरे चारों घोड़ों तथा सारथि को भी अवरुद्ध कर दिया तो भी मैं पूर्ववत कवच धारण किये उस समरभूमि में डटा रहा। तत्पश्चात देवताओं और विशेषत: ब्राह्मणों को नमस्कार कर मैं रणभूमि में खडे़ हुए परशुरामजी से मुस्कराता हुआ-सा बोला- ‘ब्रह्मन! यद्यपि आप अपनी मर्यादा छोड़ बैठे हैं तो भी मैंने सदा आपके आचार्यत्व का सम्मान किया है। धर्मसंग्रह-के विषय में मेरा जो दृढ़ विचार हैं, उसे आप पुन: सुन लीजिये।
‘विप्रवर! आपके शरीर में जो वेद हैं, जो आपका महान ब्राह्मणत्व है तथा आपने जो बड़ी भारी तपस्या की है, उन सबके ऊपर मैं बाणों का प्रहार नहीं करता हूँ। ‘राम! आपने जिस क्षत्रिय धर्म का आश्रय लिया है, मैं उसी पर प्रहार करूंगा क्योंकि ब्राह्मण हथियार उठाते ही क्षत्रिय भाव को प्राप्त कर लेता है। ‘अब आप मेरे धनुष की शक्ति और मेरी भुजाओं का बल देखिये। वीर! मैं अपने बाण से आपके धनुष को अभी काट देता हूँ।' भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर मैंने उनके ऊपर तेज धार वाले एक भल्ल नामक बाण का प्रहार किया और उसके द्वारा उनके धनुष की कोटि[2] को काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। इसी प्रकार परशुरामजी के रथ की ओर मैंने गीध की पांख और झुकी हुई गांठ वाले सौ बाण चलाये। वे बाण वायु द्वारा उड़ाये हुए सर्पों की भाँति परशुरामजी के शरीर में धंसकर खून बहाते हुए चल दिये। राजन! उस समय उनके सारे अंग लहू-लुहान हो गये। जैसे मेरु पर्वत वर्षाकाल में गेरू आदि धातुओं से मिश्रित जल की धार बहाता है, उसी प्रकार उस रणभूमि में अपने अंगों से रक्त की धारा बहाते हुए परशुरामजी शोभा पाने लगे।
राजन! जैसे वसन्त ॠतु में लाल फूलों के गुच्छों से अलंकृत अशोक और खिला हुआ पलाश सुशोभित होता है, परशुरामजी की भी वैसी ही शोभा हुई। तब क्रोध में भरे हुए परशुरामजी ने दूसरा धनुष लेकर सोने की पांखों से सुशोभित अत्यन्त तीखे बाणों की वर्षा आरम्भ की। वे नाना प्रकार के भयंकर बाण मुझ पर चोट करके मेरे मर्म स्थानों का भेदन करने लगे। उनका वेग महान था। वे सर्प, अग्नि और विष के समान जान पड़ते थे। उन्होंने मुझे कम्पित कर दिया। तब मैंने पुन: अपने आप को स्थिर करके कुपित होकर उस युद्ध में परशुरामजी पर सैकड़ों बाण बरसाये। वे बाण अग्नि, सूर्य तथा विषधर सर्पों के समान भयंकर एवं तीक्ष्ण थे। उनसे पीड़ित होकर परशुरामजी अचेत-से हो गये। भारत! तब मैं दया से द्रवित होकर स्वयं ही अपने आप में धैर्य लाकर युद्ध और क्षत्रिय धर्म को धिक्कार देने लगा। राजन! उस समय शोक के वेग से व्याकुल हो मैं बार-बार इस प्रकार कहने लगा- ‘अहो! मुझ क्षत्रिय ने यह बड़ा भारी पाप कर डाला, जो कि धर्मात्मा एवं ब्राह्मण गुरु को इस प्रकार बाणों से पीड़ित किया।' भारत! उसके बाद से मैंने परशुरामजी पर फिर प्रहार नहीं किया। इधर सहस्र किरणों वाले भगवान सूर्य इस पृथ्वी को तपाकर दिन का अन्त होने पर अस्त हो गये इसलिये वह युद्ध बंद हो गया।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 179 श्लोक 1-20
- ↑ अग्रभाग
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 179 श्लोक 21-39
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| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
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| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
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| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
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| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
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