होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप

अम्बा द्वारा महात्माओं के आश्रम जाना और उनसे तपस्यवी होने का उपदेश माँगना, जिससे वहाँ के तापसो उन्हें समझाते हैं और कहते हैं कि तुम यहाँ से अपने पिता के पास चली जाओ, तब अम्बा बोली- 'तापसो! अब मेरे लिये पुन: काशिनगर में पिता के पास लौट जाना असम्भव हैं क्योंकि वहाँ मुझे बन्धु-बान्धवों में अपमानित होकर रहना पड़ेगा इसलिये मैं वहाँ नहीं जा सकती।' फिर राजर्षि होत्रवाहन तथा अकृतव्रण उस आश्रम में आते हैं और अम्बा को परशुराम के पास जाने की सलाह देते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में अम्बोपाख्‍यान पर्व के अंतर्गत 176वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

तपस्वी धर्मात्माओ द्वारा अम्बा को समझाना

भीष्‍मजी कहते हैं- राजन! तदनन्तर वे सब धर्मात्मा तपस्वी उस कन्या के विषय में‍ चिन्ता करते हुए यह सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये? उस समय वे उसके लिये कुछ करने को उद्यत थे। कुछ तपस्वी यह कहने लगे कि इस राज्यकन्या को इसके पिता के घर पहुँचा दिया जाय। कुछ तापसों ने मुझे उलाहना देने का निश्‍चय किया। कुछ लोग यह सम्मति प्रकट करने लगे कि चलकर शाल्वराज को बाध्‍य करना चाहिये कि वह इसे स्वीकार कर ले और कुछ लोगों ने यह निश्‍चय प्र‍कट किया था कि ऐसा होना सम्भव नहीं है क्योंकि उसने इस कन्या को कोरा उत्तर देकर ग्रहण करने से इन्कार कर दिया है। ‘भद्रे! ऐसी स्थिति में मनीषी तापस क्या कर सकते हैं?’ ऐसा कहकर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले सभी तापस उस राजकन्या से फिर बोले- ‘भद्रे! घर त्यागकर संन्यासियों जैसे धर्माचरण में संलग्न होने की आवश्‍यकता नहीं है। तुम हमारा हितकर वचन सुनो, तुम्हारा कल्याण हो। यहाँ से पिता के घर को ही चली जाओ। इसके बाद जो आवश्‍यक कार्य होगा, उसे तुम्हारे पिता काशिराज सोचे-समझेंगे। कल्याणि! तुम वहाँ सर्वगुण सम्पन्न होकर सुख से रह सकोगी। ‘भद्रे! तुम्हारे लिये पिता का आश्रय लेना जैसा न्याय संगत है, वैसा दूसरा कोई सहारा नहीं है। वरवर्णिनि! नारी के लिये पति अथवा पिता ही गति [2] है। ‘सुख की परिस्थिति में नारी के लिये पति आश्रय होता है और संकटकाल में उसके लिये पिता का आश्रय लेना उत्तम है। विशेषत: तुम सुकुमारी हो, अत: तुम्हारे लिये यह प्रव्रज्या[3] अत्यन्त दु:खसाध्‍य है। ‘भामिनी! एक तो तुम राजकुमारी और दूसरे स्वभावत: सुकुमारी हो, अत: सुन्दरी! यहाँ आश्रम में तुम्हारे रहने से अनेक दोष प्रकट हो सकते हैं। पिता के घर में वे दोष नहीं प्राप्त होंगे।' तदनन्तर दूसरे तापसों ने उस तपस्विनी से कहा- ‘इस निर्जन गहन वन में तुम्हें अकेली देख कितने ही राजा तुमसे प्रणय-प्रार्थना करेंगे, अत: तुम इस प्रकार तपस्या करने का विचार न करो।'

अम्बा द्वारा तपस्या में अनुरक्त होना

अम्बा बोली- तापसो! अब मेरे लिये पुन: काशिनगर में पिता के पास लौट जाना असम्भव हैं क्योंकि वहाँ मुझे बन्धु-बान्धवों में अपमानित होकर रहना पड़ेगा। तापसो! मैं बाल्यावस्था में पिता के घर रह चुकी हूँ। आपका कल्याण हो। अब मैं वहाँ नहीं जाऊंगी, जहाँ मेरे पिता होंगे। मैं आप तपस्वी जनों द्वारा सुरक्षित होकर यहाँ तपस्या करने की ही इच्छा रखती हूँ। तापसश्रेष्‍ठ महर्षियो! मैं तपस्या इसलिये करना चाहती हूं, जिससे परलोक में भी मुझे इस प्रकार महान संकट एवं दुर्भाग्य का सामना न करना पड़े। अत: मैं तपस्या ही करूंगी।

होत्रवाहन तथा तपस्वी धर्मात्माओ का संवाद

भीष्‍मजी कहते हैं- इस प्रकार वे ब्राह्मण जब यथावत चिन्ता में मग्न हो रहे थे, उसी समय तपस्वी रा‍जर्षि होत्रवाहन उस वन में आ पहुँचे। तब उन सब तापसों ने स्वागत, कुशल-प्रश्‍न, आसन-समर्पण और जल-दान आदि अतिथि-सत्कार के उपचारों-द्वारा राजा होत्रवाहन का समादर किया। जब वे आसन पर बैठकर विश्राम कर चु‍के, उस समय उनके सुनते हुए ही वे वनवासी तपस्वी पुन: उस कन्या के विषय में बातचीत करने लगे। भारत! अम्बा और काशिराज की वह चर्चा सुनकर महातेजस्वी राजर्षि होत्रवाहन का चित्त उद्विग्न हो उठा।

होत्रवाहन द्वारा अम्बा को सांत्वना देना

पुर्वोक्त रूप से दीनता पूर्वक अपना दु:ख निवेदन करने वाली राजकन्या अम्बा की बातें सुनकर महातपस्वी, महात्मा राजर्षि होत्रवाहन दया से द्रवित हो गये। वे अम्बा के नाना थे। राजन! वे कांपते हुए उठे और उस राजकन्या को गोद में बिठाकर उसे सान्त्वना देने लगे। उन्होंने उस पर सं‍कट आने की सारी बातें आरम्भ से ही पूछी और अम्बा ने भी जो कुछ जैसे-जैसे हुआ था, वह सारा वृत्तान्त उनसे विस्तारपूर्वक बताया।[1] तब उन महातपस्वी राजर्षि ने दु:ख और शोक से संतप्त हो मन-ही-मन आवश्‍यक कर्तव्य का निश्‍चय किया। और अत्यन्त दुखी हो कांपते हुए ही उन्होंने उस दु:खिनी कन्या से इस प्रकार कहा- ‘भद्रे! यदि तू पिता के घर नहीं जाना चाहती हो तो न जा। मैं तेरी मां का पिता हूँ। ‘बेटी! मैं तेरा दु:ख दूर करूंगा, तू मेरे पास रह। वत्से! तेरे मन में बड़ा संताप है, तभी तो इस प्रकार सूखी जा रही है।[4]

होत्रवाहन द्वारा अम्बा को परशुराम के पास जाने की सलाह देना

‘तू मेरे कहने से तपस्या परायण जमदग्निनन्दन परशुरामजी के पास जा। वे तेरे महान दु:ख और शोक को अवश्‍य दूर करेंगे। 'यदि भीष्‍म उनकी बात नहीं मानेंगे तो वे युद्ध में उन्हें मार डालेंगे। भार्गवश्रेष्‍ठ परशुराम प्रलयकाल की अग्नि के समान तेजस्वी हैं। तू उन्हीं की शरण में जा। ‘वे महातपस्वी राम तुझे न्यायाचित मार्ग पर प्रतिष्ठित करेंगे।’ यह सुनकर अम्बा बारंबार आंसू बहाती हुई अपने नाना होत्रवाहन को मस्तक झुकाकर प्रणाम करके मधुर स्वर में इस प्रकार बोली- ‘नानाजी! मैं आपकी आज्ञा से वहाँ अवश्‍य जाऊंगी। ‘परंतु मैं आज उन विश्‍वविख्‍यात श्रेष्‍ठ महात्मा का दर्शन कैसे कर सकूंगी और वे भृगुनन्दन परशुरामजी मेरे इस दु:सह दु:ख का नाश किस प्रकार करेंगे? मैं यह सब जानना चाहती हूं, जिससे वहाँ जा सकूं।' होत्रवाहन बोले- भद्रे! जमदग्निनन्दन परशुराम एक महान वन में उग्र तपस्या कर रहे हैं। वे महान शक्तिशाली और सत्यप्रतिज्ञ हैं। तुझे अवश्‍य ही उनका दर्शन प्राप्त होगा। परशुरामजी सदा पर्वतश्रेष्‍ठ महेन्द्र पर रहा करते हैं। वहाँ वेदवेत्ता महर्षि, गन्धर्व तथा अप्सराओं का भी निवास है। बेटी! तेरा कल्याण हो। तू वहीं जा और उन दृढ़वर्ती तपोवृद्ध महात्मा को अभिवादन करके पहले उनसे मेरी बात कहना। भद्रे! तत्पश्‍चात तेरे मन में जो अभीष्‍ट कार्य है वह सब उनसे निवेदन करना। मेरा नाम लेने पर परशुरामजी तेरा सब कार्य करेंगे। वत्से! सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्‍ठ जमदग्निनन्दन वीरवर परशुराम मेरे सखा और प्रेमी सुहृद हैं।

राजा होत्रवाहन तथा अकृतव्रण संवाद

राजा होत्रवाहन जब राजकन्या अम्बा से इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय परशुरामजी के प्रिय सेवक अकृतव्रण वहाँ प्रकट हुए। उन्हें देखते ही वे सहस्रों मुनि तथा सृंजयवंशी वयोवृद्ध राजा होत्रवाहन सभी उठकर खडे़ हो गये। भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर उनका आदर-सत्कार किया गया फिर वे वनवासी महर्षि एक दूसरे की ओर देखते हुए एक साथ उन्हें घेरकर बैठे। राजेन्द्र! तत्पश्‍चात वे सब लोग प्रेम और हर्ष के साथ दिव्य, धन्य एवं मनोरम वार्तालाप करने लगे। बातचीत समाप्त होने पर राजर्षि महात्मा होत्रवाहन ने महर्षियों में श्रेष्‍ठ परशुरामजी के विषय में अकृतव्रण से पूछा- ‘महाबाहु अकृतव्रण! इस समय वेदवेत्ताओं में श्रेष्‍ठ और प्रतापी जमदग्निनन्दन परशुरामजी का दर्शन कहाँ हो सकता है?’ अकृतव्रण ने कहा- राजन! परशुरामजी तो सदा आप की ही चर्चा किया करते हैं। उनका कहना है कि सृंजयवंशी राजर्षि होत्रवाहन मेरे प्रिय सखा हैं।[4] मेरा विश्‍वास है कि कल सबेरे तक परशुरामजी यहाँ उपस्थित हो जायंगे। वे आपसे ही मिलने के लिये आ रहे हैं। अत: आप यहीं उनका दर्शन कीजियेगा। राजर्षे! मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह कन्या किस लिये वन में आयी है? यह किसकी पुत्री है और आपकी क्या लगती है?

होत्रवाहन बोले- प्रभो! यह मेरी दौहित्री[5]है। अनघ! काशिराज की परमप्रिय ज्येष्‍ठ पुत्री अपनी दो छोटी बहिनों के साथ स्वयंवर में उपस्थित हुई थी। उनमें से यही अम्बा नाम से विख्‍यात काशिराज की ज्येष्‍ठ पुत्री है। तपोधन! इसकी दोनों छोटी बहिनें अम्बिका और अम्बालिका कहलाती हैं। ब्रह्मर्षे! काशीपुरी में इन्हीं कन्याओं के लिये भूमण्‍डल का समस्त क्षत्रिय समुदाय एकत्र हुआ था। उस अवसर पर वहाँ महान स्वयंरोत्सव का आयोजन किया गया था। कहते हैं उस अवसर पर महातेजस्वी और महापराक्रमी शान्तुनन्दन भीष्‍म सब राजाओं को जीतकर इन तीनों कन्याओं को हर लाये। भरतनन्दन भीष्‍म का हृदय इन कन्याओं के प्रति सर्वथा शुद्ध था। वे समस्त भूपालों को परास्त करके कन्याओं को साथ लिये हस्तिनापुर में आये। वहाँ आकर शक्तिशाली भीष्‍म ने सत्यवती को ये कन्याएं सौंप दीं और इनके साथ अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य का विवाह करने की आज्ञा दे दी। द्विजश्रेष्‍ठ! वहाँ वैवाहिक आयोजन आरम्भ हुआ देख यह कन्या मन्त्रियों के बीच में गंगानन्दन भीष्‍म से बोली- ‘धर्मज्ञ! मैंने मन-ही-मन वीरवर शाल्वराज को अपना पति चुन लिया है अत: मेरा मन अन्यत्र अनुरक्त होने के कारण आपको अपने भाई के साथ मेरा विवाह नहीं करना चाहिये।' अम्बा का यह वचन सुनकर भीष्‍म ने मन्त्रियों के साथ सलाह करके माता सत्यवती की सम्मति प्राप्त करके एक निश्‍चय पर पहुँचकर इस कन्या को छोड़ दिया। भीष्‍म की आज्ञा पाकर यह कन्या मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो सौभ विमान के स्वामी शाल्व के यहाँ गयी और वहाँ उस समय इस प्रकार बोली-‘नृपश्रेष्‍ठ! भीष्‍म ने मुझे छोड़ दिया है क्योंकि पूर्वकाल में मैंने अपने मन से आपको ही पति चुन लिया था, अत: आप मुझे धर्मपालन का अवसर दे।' शाल्वराज को इसके चरित्र पर संदेह हुआ अत: उसने इसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। इस कारण तपस्या में अत्यन्त अनुरक्त होकर यह इस तपोवन में आयी है। इसके कुल का परिचय प्राप्त होने से मैंने इसे पहचाना है। यह अपने इस दु:ख की प्राप्ति में भीष्‍म को ही कारण मानती है।

अम्बा बोली- भगवन! जैसा कि मेरी माता के पिता सृंजयवंशी महाराज होत्रवाहन ने कहा है, ठीक ऐसी ही मेरी परिस्थिति है। तपोधन! महामुने! लज्जा और अपमान के भय से अपने नगर को जाने के लिये मेरे मन में उत्साह नहीं है। भगवन! द्विजश्रेष्‍ठ! अब भगवान परशुराम मुझसे जो कुछ कहेंगे, वही मेरे लिये सर्वोत्तम कर्तव्य होगा यही मैंने निश्‍चय किया है।[6]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 176 श्लोक 1-21
  2. आश्रय
  3. गृहत्याग
  4. 4.0 4.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 176 श्लोक 22-41
  5. पुत्री की पुत्री
  6. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 176 श्लोक 42-59

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सैन्यनिर्याणपर्व
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उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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