संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना

संजय धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताते हुए कहते हैं कि एक ओर सम्पूर्ण जगत हो और दूसरी ओर अकेले भगवान श्रीकृष्‍ण हों तो सारभूत बल की दृष्टि से वे भगवान जनार्दन ही सम्पूर्ण जगत से बढ़कर सिद्ध होंगे। अब संजय धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताते हैं। जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में यानसंधि पर्व के अंतर्गत अध्याय 69 में निम्न प्रकार हुआ है।[1]

धृतराष्‍ट्र के पूछने पर संजय द्वारा तत्त्वज्ञान बताना

धृतराष्‍ट्र ने पूछा- संजय! मधुवंशी भगवान श्रीकृष्‍ण समस्त लोकों के महान ईश्‍वर हैं, इस बात को तुम कैसे जानते हो? और मैं इन्हें इस रूप में क्यों नही जानता? इसका रहस्य मुझे बताओ।

संजय ने कहा- राजन! सुनिये, आपको तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं है और मेरी ज्ञानदृष्टि कभी लुप्त नहीं होती हैं। जो मनुष्‍य तत्त्वज्ञान से शून्य है और जिसकी बुद्धि अज्ञानान्धकार से विनष्‍ट हो चुकी है, वह श्रीकृष्‍ण के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता। तात! मैं ज्ञानदृष्टि से ही प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश करने वाले त्रियुगस्वरूप भगवान मधुसूदन को, जो सबके कर्ता हैं, परंतु किसी के कार्य नहीं है, जानता हूँ।

धृतराष्‍ट्र ने पूछा- संजय! भगवान श्रीकृष्ण में जो तुम्हारी नित्य भक्ति है, उसका स्वरूप क्या है? जिससे तुम त्रियुगस्वरूप भगवान मधुसूदन के तत्त्व को जानते हो।

संजय ने कहा- महाराज! आपका कल्याण हो। मैं कभी माया[2] का सेवन नहीं करता। व्यर्थ[3] धर्म का आचरण नहीं करता। भगवान की भक्ति से मेरा अन्त:करण शुद्ध हो गया है; अत: मैं शास्त्र के वचनों से भगवान श्रीकृष्‍ण के स्वरूप को यथावत जानता हूँ।[1]

धृतराष्ट्र व गांधारी द्वारा दुर्योधन को समझाना

यह सुनकर धृतराष्‍ट्र ने दुर्योधन से कहा- बेटा दुर्योधन! संजय हम लोगों का विश्‍वास पात्र है। इसकी बातों पर श्रद्धा करके तुम सम्पूर्ण इन्द्रियों के प्रेरक जनार्दन भगवान श्रीकृष्‍ण का आश्रय लो; उन्हीं की शरण में जाओ। दुर्योधन बोला- पिताजी! माना कि देवकीनन्दन श्रीकृष्‍ण साक्षात भगवान हैं और वे इच्छा करते ही सम्पूर्ण लोकों का संहार कर डालेंगे, तथापि वे अपने को अर्जुन का मित्र बताते हैं; अत: अब मैं उनकी शरण में नही जाऊंगा। तब धृतराष्‍ट्र ने गान्धारी से कहा- गान्धारी! तुम्हारा दुर्बुद्धि, दुरात्मा, ईर्ष्‍यालु और अभिमानी पुत्र श्रेष्‍ठ पुरुषों की आज्ञा का उल्लघंन करके नरक की ओर जा रहा है।

गान्धारी बोली- दुष्‍टात्मा दुर्योधन! तू ऐश्वर्य की इच्छा रखकर अपने बडे़-बूढो़ की आज्ञा का उल्लघंन करता है! अरे मुर्ख! इस ऐश्वर्य, जीवन, पिता और मुझ माता को भी त्यागकर शुत्रओं की प्रसन्नता और मेरा शोक बढा़ता हुआ जब तू भीमसेन के हाथों मारा जायगा, उस समय तुझे पिता की बातें याद आयेंगी।[1]

व्यास जी द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना

तदनन्तर व्यास जी ने कहा- राजा धृतराष्‍ट्र! मेरी बातों पर ध्‍यान दो। वास्तव में तुम श्रीकृष्‍ण के प्रिय हो, तभी तो तुम्हें संजय- जैसा दूत मिला है, जो तुम्हें कल्याण-साधन में लगायेगा। यह संजय पुराणपुरुष भगवान श्रीकृष्‍ण को जानता है और उनका जो परमतत्त्व है, वह भी इसे ज्ञात है। यदि तुम एकाग्रचित्त होकर इसकी बातें सुनोगे तो यह तुम्हें महान भय से मुक्त कर देगा। विचित्रवीर्यकुमार! जो मनुष्‍य अपने धन से संतुष्‍ट नहीं है और काम आदि विविध प्रकार के बन्धनों से बंधकर हर्ष और क्रोध के वशीभूत हो रहे हैं, वे काममोहित पुरुष अंधों के नेतृत्व में चलने वाले अंधों की भाँति अपने कर्मों द्वारा प्रेरित होकर बारंबार यमराज के वश में आते हैं। यह ज्ञानमार्ग एकमात्र परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला है। जिस पर मनीषी[4] पुरुष चलते हैं, उस मार्ग को देख या जान लेने पर मनुष्‍य जन्म-मृत्यु रूप संसार को लांघ जाता है और वह महात्मा पुरुष कभी इस संसार में आसक्त नहीं होता है।[1]

धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय द्वारा कृष्णप्राप्ति का साधन बताना

धृतराष्‍ट्र बोले- वत्स संजय! तुम मुझे वह निर्भय मार्ग बताओ, जिससे चलकर मैं सम्पूर्ण इन्द्रियों के स्वामी परम मोक्षस्वरूप भगवान श्रीकृष्‍ण को प्राप्त कर सकूं।

संजय ने कहा- महाराज! जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है, वह कभी नित्यसिद्ध परमात्मा भगवान श्रीकृष्‍ण को नहीं पा सकता। अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में किये बिना दूसरा कोई कर्म उन परमात्मा की प्राप्ति का उपाय नहीं हो सकता। विषयों की ओर दौड़ने वाली इन्द्रियों की भोगकामनाओं का पूर्ण सावधानी के साथ त्याग कर देना, प्रमाद से दूर रहना तथा किसी भी प्राणी की हिंसा न करना- ये तीन निश्‍चय ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में कारण हैं। राजन! आप आलस्य छोड़कर इन्द्रियों के संयम में तत्पर हो जाइये और अपनी बुद्धि को जैसे भी सम्भव हो, नियन्त्रण में रखिये, जिससे वह अपने लक्ष्‍य से भ्रष्‍ट न हो। इन्द्रियों को दृढ़तापूर्वक संयम में रखना चाहिये। विद्वान ब्राह्मण इसी को ज्ञान मानते हैं। यह ज्ञान ही वह मार्ग है, जिससे मनीषी पुरुष चलते हैं। राजन! मनुष्‍य अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त किये बिना भगवान श्रीकृष्‍ण को नहीं पा सकते। जिसने शास्त्रज्ञान और योग के प्रभाव से अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर रखा है, वही तत्त्वज्ञान पाकर प्रसन्न होता है।[5]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-15
  2. छल-कपट
  3. पाखण्‍डपूर्ण
  4. ज्ञानी
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 69 श्लोक 16-21

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सेनोद्योग पर्व
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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
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उलूकदूतागमनपर्व
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