गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना

गरुड़ द्वारा गालव से पश्चिम दिशा के बारे में बताना और कहना कि यह जल के स्वामी दिक्पाल वरुण को सदा ही अत्यंत प्रिय है। यही उनका आश्रय और उत्पति स्थान है। द्विजश्रेष्ठ! दिन के पश्चात् सूर्यदेव इसी दिशा में स्वयं अपनी किरणों का विसर्जन करते हैं और इसी दिशा में नागराज अनंत का निवास तथा आदि-अंत से रहित भगवान विष्णु का सर्वोत्कृष्ट स्थान है। गरुड़ कहते है कि गालव तुम्हें इस दिशा में जाना है तो चलो नहीं तो मैं तुम्हें उत्तर दिशा के बारे में बताता हूँ जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 111वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

गरुड़ द्वारा गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना

गरुड़ कहते हैं- गालव! इस मार्ग से जाने पर मनुष्य का पाप से उद्धार हो जाता है और वह कल्याणमय स्वर्गीय सुखों का उपभोग करता है अत: इस उत्तारण[2] के बल से इस दिशा को उत्तर दिशा कहते हैं। गालव! यह उत्तर दिशा उत्कृष्ट सुवर्ण आदि निधियों की अधिष्ठान है इसलिए भी इसका नाम उत्तर है। यह उत्तर मार्ग पश्चिम और पूर्व दिशाओं का मध्यवर्ती बताया गया है। द्विजश्रेष्ठ! इस गौरवशालिनी दिशा में ऐसे लोगों का वास नहीं है, जो सौम्य स्वभाव के न हो, जिन्होंने अपने मन को वश में न किया हो तथा जो धर्म का पालन न करते हों। इसी दिशा में बदरिकाश्रम तीर्थ है, जहाँ सच्चिदानंद स्वरूप श्रीनारायण, विजयशील नरश्रेष्ठ नर और सनातन ब्रह्माजी निवास करते हैं। उत्तर में ही हिमालय के शिखर पर प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी अंतर्यामी भगवान महेश्वर भगवती उमा के साथ नित्य निवास करते हैं। वे भगवान नर और नारायण के सिवा और किसी की दृष्टि में नहीं आते। समस्त मुनिगण, गंधर्व, यक्ष, सिद्ध अथवा देवताओं सहित इन्द्र भी उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं। यहाँ सहस्रों नेत्रों, सहस्रों चरणों और सहस्रों मस्तकों वाले एकमात्र अविनाशी श्रीमान भगवान विष्णु ही उन मायाविशिष्ट महेश्वर का साक्षात्कार करते हैं। उत्तर दिशा में ही चंद्रमा का द्विजराज के पद पर अभिषेक हुआ था।

वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ गालव! यहीं आकाश से गिरती हुई गंगा को महादेवजी ने अपने मस्तक पर धारण किया और उन्हें मनुष्यलोक में छोड़ दिया। यहीं पार्वतीदेवी ने भगवान महेश्वर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर रूप में तपस्या की थी और इसी दिशा में महादेवजी को मोहित करने के लिए काम प्रकट हुआ। फिर उसके ऊपर भगवन शंकर का क्रोध हुआ। उस अवसर पर गिरिराज हिमालय और उमा भी वहाँ विद्यमान थीं इस प्रकार ये सब लोग वहाँ एक ही समय में प्रकाशित हुए। गालव! इसी दिशा में कैलास पर्वत पर राक्षस,यक्ष और गन्धर्वों का आधिपत्य करने के लिए धनदाता कुबेर का अभिषेक हुआ था। उत्तर दिशा में ही रमणीय चैत्ररथवन और वैखानस ऋषियों का आश्रम है। द्विजश्रेष्ठ! यहीं मंदाकिनी नदी और मंदराचल हैं। इसी दिशा में राक्षसगण सौगंधिक वन की रक्षा करते हैं। यहीं हरी-हरी घासों से सुशोभित कदलीवन है और यहीं कल्पवृक्ष शोभा पाते हैं। गालव! इसी दिशा में सदा संयम नियम का पालन करने वाले स्वच्छंदचारी सिद्धों के इच्छानुसार भोगों से सम्पन्न एवं मनोनुकूल विमान विचरते हैं। इसी दिशा में अरुंधतिदेवी और सप्तऋषि प्रकाशित होते हैं। इसी में स्वाती नक्षत्र का निवास है और यहीं उसका उदय होता है। इसी दिशा में ब्रह्माजी यज्ञानुष्ठान में प्रवृत होकर नियमित रूप से निवास करते हैं। नक्षत्र, चंद्रमा तथा सूर्य भी सदा इसी में परिभ्रमण करते हैं।

गरुड़ द्वारा उत्तर दिशा का महत्त्व बताना

द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशा में धाम नाम से प्रसिद्ध सत्यवादी महात्मा मुनि श्रीगंगा महाद्वार की रक्षा करते हैं। उनकी मूर्ति, आकृति तथा संचित तपस्या का परिणाम किसी को ज्ञात नहीं होता है। गालव! वे सहस्रों युगांतकाल तक की आयु इच्छानुसार भोगते हैं।[1] द्विजश्रेष्ठ! मनुष्य ज्यों-ज्यों गंगा महाद्वार से आगे बढ़ता है, वैसे-ही-वैसे वहाँ की हिमराशि में गलता जाता है। विप्रवर गालव! साक्षात भगवान नारायण तथा विजयशील अविनाशी महात्मा नर को छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य पहले कभी गंगामहाद्वार से आगे नहीं गया है। इसी दिशा में कैलास पर्वत है, जो कुबेर का स्थान बताया गया है। यहीं विद्युत्प्रभा नाम से प्रसिद्ध दस अप्सराएँ उत्पन्न हुई थीं। ब्रह्मण! त्रिलोकी को नापते समय भगवान विष्णु ने इसी दिशा में अपना चरण रखा था। उत्तर दिशा में भगवान विष्णु का वह चरणचिह्न [3] आज भी मौजूद है। द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मर्षे! उत्तर दिशा के ही उशीरबीज नामक स्थान में, जहाँ सुवर्णमय सरोवर है, राजा मरुत्त ने यज्ञ किया था। इसी दिशा में ब्रह्मर्षि महात्मा जीमूत के समक्ष हिमालय की पवित्र एवं निर्मल स्वर्णनिधि[4] प्रकट हुई थी। उस सम्पूर्ण विशाल धनराशि को उन्होंने ब्राह्मणों में बाँट कर उसका सदुपयोग किया और ब्राह्मणों से यह वर मांगा कि यह धन मेरे नाम से प्रसिद्ध हो। इस कारण वह धन 'जैमूत' नाम से प्रसिद्ध हुआ। विप्रवर गालव! यहाँ प्रतिदिन सबेरे और संध्या के समय सभी दिक्पाल एकत्र हो उच्च स्वर से यह पूछते हैं कि किसको क्या काम है? द्विजश्रेष्ठ! इन सब कारणों से तथा अन्यान्य गुणों के कारण यह दिशा उत्कृष्ट है और समस्त शुभ कर्मों के लिए भी यही उत्तम मानी गयी है। इसलिए इसे उत्तर कहते हैं। तात! इस प्रकार मैंने क्रमश: चारों दिशाओं का तुम्हारे सामने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। कहो, किस दिशा में चलना चाहते हो? द्विजश्रेष्ठ! मैं तुम्हें सम्पूर्ण पृथ्वी तथा समस्त दिशाओं का दर्शन कराने के लिए उद्यत हूँ; अत: तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ।[5]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 111 श्लोक 1-17
  2. संसार सागर से पार उतारने
  3. हरी की पैड़ी
  4. सोने की खान
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 111 श्लोक 18-28

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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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