धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन

महाभारत उद्योग पर्व में संजययान पर्व के अंतर्गत बाईसवें अध्याय में 'धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन' नामक कथा वर्णित है, जो इस प्रकार है[1]-

संजय को पाण्डवों के पास भेजना

धृतराष्ट्र ने कहा- संजय! लोग कहते हैं कि पाण्डव उपप्लव्य नामक स्थान में आ गये हैं। तुम वहाँ जाकर उनका समाचार जानो! अजातशत्रु युधिष्ठिर से आदर पूर्वक मिलकर कहना, सौभाग्य की बात है कि आप सन्नद्ध होकर अपने योग्य स्थान पर आ पहुँचे हैं। संजय! सब पाण्डवों से कहना कि हम लोग सकुशल हैं। पाण्डव लोग मिथ्या से दूर रहने वाले, परोपकारी तथा साधु पुरुष हैं। वे वनवास का कष्ट भोगने योग्य नहीं थे, तो भी उन्होंने वनवास का नियम पूरा कर लिया है। इतने पर भी हमारे ऊपर उनका क्रोध शीघ्र ही शान्त हो गया है।

संजय से पांडवों की प्रशंसा

धृतराष्ट्र कहते हैं- संजय! मैंने कभी कहीं पाण्डवों में थोड़ी-सी भी मिथ्यावृति नहीं देखी है। पाण्डवों ने अपने पराक्रम से प्राप्त हुई सारी सम्पत्ति मेरे ही अधीन कर दी थी। मैंने सदा ढूंढते रहने पर भी कुन्ती के पुत्रों का कोई ऐसा दोष नहीं देखा है, जिससे उनकी निन्दा करूं। वे सदा धर्म अर्थ के लिए ही कर्म करते हैं, कामनावश मानसिक प्रीति और स्त्री-पुत्रादि प्रिय वस्तुओं में नहीं फंसते हैं- काम-भोग में आसक्त होकर धर्म का परित्याग नहीं करते हैं। पाण्डव घाम-शीत, भूख-प्यास, निद्रा-तन्द्रा, क्रोध-हर्ष तथा प्रमाद को धैर्य एवं विवेकपूर्ण बुद्धि के द्वारा जीतकर धर्म और अर्थ के लिये ही प्रयत्नशील बने रहते हैं। वे समय पड़ने पर मित्रों को उनकी सहायता के लिये धन देते हैं। दीर्घकालिक प्रभाव से भी उनकी मैत्री क्षीण नहीं होती है। कुन्ती के पुत्र यथायोग्य सबका सदा सत्कार करने वाले हैं।[1]

दुर्योधन का पाण्डवों के प्रति द्वेषभाव

अजमीढवंशी हम कौरवों के पक्ष में पापी, बेईमान तथा मन्द बुद्धि दुर्योधन एवं अत्यन्त क्षुद्र स्वभाव वाले कर्ण को छोड़कर दूसरा कोई भी उनसे द्वेष रखने वाला नहीं है। संजय! मेरा पुत्र दुर्योधन काल के अधीन हो गया है क्योंकि उसकी बुद्धि राग से दूषित है। वह मूर्ख अत्यन्त तेजस्वी महात्मा पाण्डवों के स्वत्व को दबा लेने की चेष्ठा कर रहा है। केवल दुर्योधन और कर्ण ही सुख और प्रियजनों से बिछुड़े हुए महामना पाण्डवों के मन में क्रोध उत्पन्न करते रहते हैं। दुर्योधन आरम्भ में ही पराक्रम दिखाने वाला है[2], क्योंकि वह सुख में ही पलकर बड़ा हुआ है। वह इतना मूर्ख है कि पाण्डवों के जीते जी उनका भाग हर लेना सरल समझता है। इतना ही नहीं, वह इस कुकर्म को उत्तम कर्म भी मानने लगा है।

धृतराष्ट्र द्वारा पांडवों की सामर्थ्य का वर्णन

धृतराष्ट्र कहते हैं- संजय! अर्जुन, भगवान श्रीकृष्ण, भीमसेन, सात्यकि, नकुल, सहदेव और सम्पूर्ण सृञ्जयवंशी वीर जिनके पीछे चलते हैं, उन युधिष्ठिर को युद्ध के पहले ही उनका राज्य भाग दे देने में भलाई है। गाण्डीवधारी सव्यसाची अर्जुन रथ में बैठकर अकेले ही सारी पृथ्वी को जीत सकते हैं। इसी प्रकार विजयशील एवं दुर्धर्ष महात्मा श्रीकृष्ण भी तीनों लोकों को जीतकर उनके अधिपति हो सकते हैं। जो समस्त लोकों में एकमात्र सर्वश्रेष्ठ वीर हैं, जो मेघ गर्जना के समान गम्भीर शब्द करने वाले तथा टिड्डियों के दल की भाँति तीव्र वेग से चलने वाले बाणसमूहों की वर्षा करते हैं, उन वीरवर अर्जुन के सामने कौन मनुष्य ठहर सकता है?[1]

गाण्डीव धनुष धारण करके एकमात्र रथ पर आरूढ़ हो सव्यसाची अर्जुन ने केवल उत्तर दिशा पर विजय पायी थी, अपितु उत्तर कुरुदेश को भी जीत लिया था और उन सबकी धन-सम्पाति जीतकर ले आये थे। उन्होंने द्रविडों को भी जीतकर अपनी सेना का अनुगामी बनाया था। गाण्डीव धनुष धारण करने वाले पाण्डुपुत्र सव्यसाची अर्जुन वे ही हैं, जिन्होंने खाण्डव वन में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं पर विजय पायी थी और पाण्डवों के यश तथा सम्मान की वृृृद्धि करते हुए अग्निदेव को वह वन उपहार के रूप में अर्पित किया था। गदाधारियों में इस भूतल पर भीमसेन के समान दूसरा कोई नहीं है और न उनके जैसा कोई हाथी पर सवार ही है। रथ में बैठकर युद्ध करने की कला में भी वे अर्जुन से कम नहीं बताये जाते हैं और बाहुबल में तो वे दस हजार हाथियों के समान शक्तिशाली हैं। अस्त्र-विद्या में उन्हें अच्छी शिक्षा मिली है। वे बड़े वेगशाली वीर हैं। उनके साथ मेरे पुत्रों ने वैर ठान रखा है और वे सदा अत्यन्त अमर्ष में भरे रहते हैं; अतः युद्ध हुआ तो भीमसेन मेरे क्षुद्र स्वभाव वाले पुत्रों को वेगपूर्वक [3] जलाकर भस्म कर देंगे। साक्षात इन्द्र भी उन्हें युद्ध में बलपूर्वक परास्त नहीं कर सकते। माद्रीनन्दन नकुल और सहदेव भी शुद्धचित्त और बलवान है। अस्त्र संचालन में उनके हाथों की फुर्ती देखने ही योग्य है। स्वयं अर्जुन ने अपने उन दोनों भाइयों को युद्ध की अच्छी शिक्षा दी है। जैसे दो बाज पक्षियों के समुदाय को (सर्वथा) नष्ट कर देते हैं। उसी प्रकार वे दोनों भाई शत्रुओं से भिड़कर उन्हें जीवित नहीं छोड़ सकते। यह ठीक है कि हमारी सेना सब प्रकार से परिपूर्ण है तथापि मेरा यह विश्वास है कि वह पाण्डवों का सामना पड़ने पर नहीं के बाराबर है।[4]

अन्यान्य पांडव-पक्षी राजाओं का वर्णन

धृतराष्ट्र कहते हैं- संजय! पाण्डवों के पक्ष में धृष्टद्युम्न नाम से प्रसिद्ध एक बलवान योद्धा है, जो सोमकवंश का श्रेष्ठ राजकुमार है। मैंने सुना है उसने पाण्डवों के लिये मन्त्रियों सहित अपने शरीर को निछावर कर दिया है। जिन अजातशुत्रु युधिष्ठिर के अगुवा नेता अथवा वृष्णिवंश के सिंह भगवान श्रीकृष्ण हैं, उनका वेग दूसरा कौन सह सकता है? मस्तस्य देश के राजा विराट भी अपने पुत्रों के साथ पाण्डवों की सहायता के लिए सदा उद्यत रहते हैं। मैंने सुना है कि वे युधिष्ठिर के बड़े भक्त हैं। कारण यह है कि अज्ञातवास के समय युधिष्ठिर के साथ एक वर्ष रहे हैं और युधिष्ठिर के द्वारा उनके गोधन की रक्षा हुई है। अवस्था में वृद्ध होने पर भी वे युद्ध में नौजवान से जान पड़ते हैं। केकय देश से निकाले हुए पांच भाई केकय राजकुमार महान धनुर्धर एवं रथी वीर हैं। वे पाण्डवों के सहयोग से केकय देश के राजाओं से पुनः अपना राज्य लेना चाहते हैं, इसलिये उनकी ओर से युद्ध करने की इच्छा रखकर उन्हीं के साथ रह रहे हैं। मैं यह भी सुनता हूँ कि राजाओं में जितने वीर हैं, वे सब पाण्डवों की सहायता के लिये आकर उनकी छावनी में रहते हैं। वे सब-के-सब शौर्यसम्पन्न, युधिष्ठिर के प्रति भक्ति रखने वाले, प्रसन्नचित्त एवं धर्मराज के आश्रित हैं।[4]

पर्वतों पर रहने वाले, दुर्गम भूमि में निवास करने वाले एवं समतल भूमि के निवासी योद्धा, जो कुल और जाति की दृष्टि से बहुत शुद्ध हैं, वे तथा म्लेच्छ भी नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र एवं बल-पराक्रम से सम्पन्न हो पाण्डवों की सहायता के लिये आये हैं और उनके शिविर में निवास करते हैं। पाण्डय देश के महामना राजा, जो संसार के सुविख्यात वीर, अनुपम पराक्रम और तेज से समपन्न तथा युद्ध में देवराज इन्द्र के समान हैं, पाण्डवों की सहायता के लिये बहुत-से प्रमुख योद्धाओं के साथ पधारे हैं। जिसने द्रोणाचार्य, अर्जुन, श्रीकृष्ण, कृपाचार्य तथा भीष्म से भी अस्त्र विद्या सीखी है तथा जिस एकमात्र वीर को श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न के समान पराक्रमी बताया जाता है, वह सात्यकि भी, सुनता हूँ, पाण्डवों की सहायता के लिये आकर टिका हुआ है।[5] चेदि और करूष देश के भूपाल सब प्रकार की तैयारी से संगठित होकर आये थे। उन सब के बीच में चेदिराज शिशुपाल अपनी दिव्य शोभा से तपते हुए सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। युद्ध में उसके वेग को रोकना असम्भव था। धनुष की प्रत्यञ्चा खींचने वाले भूमण्डल के सभी योद्धाओं में शिशुपाल एक श्रेष्ठतम वीर था। यह सब समझकर भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ चेदि देशीय क्षत्रियों के सम्पूर्ण उत्साह को नष्ट करके हठपूर्वक बड़े वेग से शिशुपाल को मार डाला। करूषराज आदि सब नरेश जिसका सम्मान बढ़ाते थे, उस शिशुपाल की ओर दृष्टिपात करके पाण्डवों के यश और मान की बृद्धि के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने उसे पहले ही मार डाला। सुग्रीव आदि घोड़ों से जुते हुए रथ पर आरूढ़ होने वाले श्रीकृष्ण को असह्य मानकर चेदिराज शिशुपाल के सिवा दूसरे भूपाल उसी प्रकार पलायन कर गये, जैसे सिंह को देखते ही जंगल के क्षुद्र पशु भाग जाते हैं। जिसने द्वैरथ-युद्ध में विजय की आशा रखकर भगवान श्रीकृष्ण का विरोधी हो बड़े वेग से उन पर धावा किया, वह शिशुपाल श्रीकृष्ण के हाथ से मारा जाकर प्राण शून्य हो सदा के लिये इस प्रकार धरती पर सो गया, मानो कनेर का वृक्ष हवा के वेग से उखडकर धराशायी हो गया हो।
संजय! पाण्डवों के लिए किये हुए श्रीकृष्ण के उस पराक्रम का वृतान्त मेरे गुप्तचरों ने मुझे बताया था। गावल्गणे! श्रीहरि के उन वीरोचित कर्मों को बारंबार याद करके मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। जिनके अग्रगामी वृष्णिसिंह भगवान वासुदेव हैं, उन पाण्डवों का आक्रमण कभी भी दूसरा कोई शत्रु नहीं सह सकता। श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों एक रथ पर एकत्र हो गये हैं, यह सुनकर तो मेरा हृृदय भय से काँप उठता है।[6]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-11
  2. अन्त तक उसे निभा नहीं सकता;
  3. अपनी कोपाग्नि से
  4. 4.0 4.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 22 श्लोक 12-21
  5. युधिष्ठिर के राजसूयज्ञ में
  6. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 22 श्लोक 22-32

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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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