कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन

श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को कौरवसभा में भीष्म द्वारा दुर्योंधन को कहे गये वचन सुनाने के बाद, अब श्रीकृष्ण द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के कहे गये महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन कर रहे हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 148वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योंधन को समझाना

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। भीष्‍मजी की बात समाप्‍त होने पर प्रवचन करने में समर्थ द्रोणाचार्य ने राजाओं के बीच में दुर्योधन से इस प्रकार कहा- तात! जैसे प्रतीप पुत्र शान्तनु इस कुल की भलाई में ही लगे रहे, जैसे देवव्रत भीष्‍म इस कुल की वृद्धि के लिए ही यहाँ स्थित हैं, उसी प्रकार सत्‍यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय राजा पाण्‍डु भी रहे हैं। वे कुरुकुल के राजा होते हुए भी सदा धर्म में ही मन लगाये रहते थे। वे उत्‍तम व्रत के पालक तथा चित्‍त को एकाग्र रखने वाले थे। कुरुवंश की वृद्धि करने वाले पाण्‍डु ने अपने बड़े भाई बुद्धिमान धृतराष्‍ट्र को तथा छोटे भाई विदुर को अपना राज्‍य धरोहर रूप से दिया। राजन! कुरुकुल रत्‍न पाण्‍डु ने अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले धृतराष्‍ट्र को सिंहासन पर बिठाकर स्‍वयं अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वन को प्रस्‍थान किया था।

तदनन्‍तर पुरुषसिंह विदुर सेवक की भाँति नीचे खडे़ होकर चंवर डुलाते हुए विनीत भाव से धृतराष्‍ट्र की सेवा में रहने लगे। तात! तदनन्‍तर सारी प्रजा जैसे राजा पाण्‍डु के अनुगत रहती थी, उसी प्रकार विधिपूर्वक राजा धृतराष्‍ट्र के अधीन रहने लगी। इस प्रकार शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले पाण्‍डु विदुर‍ सहित धृतराष्‍ट्र को अपना राज्‍य सौंपकर सारी पृथ्‍वी पर विचरने लगे। सत्‍यप्रतिज्ञ विदुर कोष को संभालने, दान देने, भृत्‍यवर्ग की देख-भाल करने तथा सबके भरण-पोषण के कार्य में संलग्‍न रहते थे। शत्रु नगरी को जीतने वाले महातेजस्‍वी भीष्‍म संधि-विग्रह के कार्य में संयुक्‍त हो राजाओं से सेवा और कर आदि लेने का काम संभालते थे। महाबली राजा धृतराष्‍ट्र केवल सिंहासन पर बैठे रहते और महात्‍मा विदुर सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे। उन्‍हीं के वंश में उत्‍पन्‍न होकर तुम इस कुल में फूट क्‍यों डालते हो? राजन! भाइयों के साथ मिलकर मनोवांच्छित भोगों का उपभोग करो। नृपश्रेष्‍ठ मैं दीनता से या धन पाने के लिये किसी प्रकार कोई बात नहीं कहता हूँ। मैं भीष्‍म का दिया हुआ पाना चाहता हूं, तुम्‍हारा दिया नहीं। जनेश्‍वर! मैं तुमसे कोई जिविका का साधन प्राप्‍त करने की इच्‍छा नहीं करूंगा। जहाँ भीष्‍म हैं, वहीं द्रोण हैं। जो भीष्‍म कहते हैं, उसका पालन करो। शत्रुसूदन! तुम पाण्‍डवों का आधा राज्‍य दे दो। तात! मेरा यह आचार्यत्व तुम्‍हारे और पाण्‍डवों के लिये सदा समान है। मेरे लिये जैसा अश्‍वत्‍थामा है वैसा ही श्‍वेत घोडों वाला अर्जुन भी है। अधिक बकवाद करने से क्‍या लाभ? जहाँ धर्म है, उसी पक्ष की विजय निश्चित है।

विदुर द्वारा द्रोणाचार्य से निवेदन करना

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- महाराज! अमित-तेजस्‍वी द्रोणाचार्य के इस प्रकार कहने पर सत्‍यप्रतिज्ञ धर्मज्ञ विदुर ने ज्‍येष्‍ठ पिता भीष्‍म की ओर घूमकर उनके मुँह की ओर देखते हुए इस प्रकार कहा। विदुर बोले- देवव्रतजी! मेरी यह बात सुनिये। यह कौरववंश नष्‍ट हो चला था, जिसका आपने पुन: उद्धार किया था। मैं भी उसी वंश की रक्षा के लिये विलाप कर रहा हूँ परंतु न जाने क्‍यों आप मेरे कथन की उपेक्षा कर रहें हैं मैं पूछता हूँ, यह कुलांगार दुर्योधन इस कुल का कौन है? जिसके लोभ के वशीभूत होने पर भी आप उसकी बुद्धि का अनुसरण कर रहे हैं। लोभ ने इसकी विवेकशक्ति हर ली है। इसकी बुद्धि दू‍षित हो गयी है तथा यह पूरा अन्याय बन गया है।[1] यह शास्‍त्र की आज्ञा का तो उल्‍लंघन करता ही है। धर्म और अर्थ पर दृष्टि रखने वाले अपने पिता की भी बात नहीं मानता है। निश्‍चय ही एकमात्र दुर्योधन के कारण ये समस्‍त कौरव नष्‍ट हो रहे हैं। महाराज! ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे इनका नाश न हो। महामते! जैसे चित्रकार किसी चित्र को बनाकर एक जगह रख देता है, उसी प्रकार आपने मुझको और धृतराष्‍ट्र को पहले से ही निकम्‍मा बनाकर रख दिया है। महाबाहो! जैसे प्रजा‍पति प्रजा की सृष्टि करके पुन: उसका संहार करते हैं, उसी प्रकार आप भी अपने कुल का विनाश देखकर उसकी उपेक्षा न कीजिये। यदि इन दिनों विनाशकाल उपस्थित होने के कारण आपकी बुद्धि नष्‍ट हो गयी हो तो मेरे और धृतराष्‍ट्र के साथ वन में पधारिये। अथवा जिसकी बुद्धि सदा छल-कपट में लगी रहती है उस परम दुर्बद्धि धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन को शीघ्र ही बाँधकर पाण्‍डवों द्वारा सुरक्षित इस राज्‍य का शासन कीजिये। नृपश्रेष्‍ठ! प्रसन्‍न होइये। पाण्‍डव,कौरवों तथा अमित-तेजस्‍वी राजाओं का महान विनाश दृष्टिगोचर हो रहा है। ऐसा कहकर दी‍नचित्‍त विदुरजी चुप हो गये और विशेष चिन्‍ता में मग्‍न होकर उस समय बार-बार लंबी साँसें खींचने लगे।

गान्धारी द्वारा दुर्योधन के अपराधों का वर्णन करना

तदनन्‍तर राजा सुबल की पुत्री गान्धारी अपने कुल के विनाश से भयभीत हो क्रूरस्‍वभाव वाले पाप‍बुद्धि पुत्र दुर्योधन के समस्‍त राजाओं के समक्ष क्रोधपूर्वक यह धर्म और अर्थ से युक्‍त बचन बोली। जो-जो राजा, ब्रह्मर्षि तथा अन्‍य सभासद इस राजसभा के भीतर आये हैं, वे सब लोग मन्‍त्री और सेवकों सहित तुझ पापी दुर्योधन के अपराधों को सुनें। मैं वर्णन करती हूँ। 'हमारे यहाँ परम्‍परा से चला आने वाला कुलधर्म यही है कि यह कुरुराज्‍य पूर्व-पूर्व अधिकारी के क्रम से उपभोग में आवें अर्थात्‌ पहले पिता के अधिकार में रहे, फिर पुत्र के, पिता के जीते-जी पुत्र का राज्‍य का अधिकारी नहीं हो सकता परन्‍तु अत्‍यन्‍त क्रूर कर्म करने वाले पापबुद्धि दुर्योधन! तू अपने अन्‍याय से इस कौरव राज्‍य का विनाश कर रहा है। इस राज्‍य पर अधिकारी के रूप में परम बुद्धिमान धृतराष्‍ट्र और उनके छोटे भाई दूरदर्शी विदुर स्‍थापित किये गये थे। दुर्योधन! इन दोनों का उल्‍लघंन करके तू आज मोहवश अपना प्रभुत्‍व कैसे जमाना चाहता है? राजा धृतराष्‍ट्र और विदुर- ये दोनों महानुभाव भी भीष्‍म के जीते-जी पराधीन ही रहेंगे भीष्‍म के रहते इन्‍हें राज्‍य लेने का कोई अधिकार नहीं है परंतु धर्मज्ञ होने के कारण ये नरश्रेष्‍ठ महात्‍मा गंगानन्‍दन राज्‍य लेने की इच्‍छा ही नहीं रखते हैं। वास्‍तव में यह दुर्धर्ष राज्‍य महाराज पाण्‍डु का है। उन्‍हीं के पुत्र इसके अधिकारी हो सकते हैं, दूसरे नहीं। अत: यह सारा राज्‍य पाण्‍डवों का है क्‍योंकि बाप-दादों का राज्‍य पुत्र-पोत्रों के पास ही जाता है। कुरुकुल के श्रेष्‍ठ पुरुष सत्‍यप्रतिज्ञ एवं बुद्धिमान महात्‍मा देवव्रत जो कुछ कहते हैं, उसे राज्‍य और स्‍वधर्म का पालन करने वाले हम सब लोगों को बिना काट-छांट किये पूर्णरूप से मान लेना चाहिये। अथवा इन महान व्रतधारी भीष्‍मजी की आज्ञा से यह राजा धृतराष्‍ट्र तथा विदुर भी इस विषय में कुछ कह सकते हैं उसका पालन करना चाहिये। कौरवों के इस न्‍यायत: प्राप्‍त राज्‍य का धर्मपुत्र तथा शान्‍तनुनन्‍दन भीष्‍म से कर्तव्‍य की शिक्षा लेते युधिष्ठिर ही शासन करें और वे राजा धृतराष्‍ट्र रहें।

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 148 श्लोक 1-20

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महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
विराट की सभा में श्रीकृष्ण का भाषण | विराट की सभा में बलराम का भाषण | सात्यकि के वीरोचित उद्गार | द्रुपद की सम्मति | श्रीकृष्ण का द्वारका गमन | विराट और द्रुपद के संदेश | द्रुपद का पुरोहित को दौत्य कर्म के लिए अनुमति | पुरोहित का हस्तिनापुर प्रस्थान | श्रीकृष्ण का दुर्योधन और अर्जुन को सहायता देना | शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होना | इन्द्र द्वारा त्रिशिरा वध | वृत्तासुर की उत्पत्ति | वृत्तासुर और इन्द्र का युद्ध | देवताओं का विष्णु जी की शरण में जाना | इंद्र-वृत्तासुर संधि | इन्द्र द्वारा वृत्तासुर का वध | इंद्र का ब्रह्महत्या के भय से जल में छिपना | नहुष का इंद्र के पद पर अभिषिक्त होना | नहुष का काम-भोग में आसक्त होना | इंद्राणी को बृहस्पति का आश्वासन | देवता-नहुष संवाद | बृहस्पति द्वारा इंद्राणी की रक्षा | नहुष का इन्द्राणी को काल अवधि देना | इंद्र का ब्रह्म हत्या से उद्धार | शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना | उपश्रुति देवी की मदद से इंद्र-इंद्राणी की भेंट | इंद्राणी के अनुरोध पर नहुष का ऋषियों को अपना वाहन बनाना | बृहस्पति और अग्नि का संवाद | बृहस्पति द्वारा अग्नि और इंद्र का स्तवन | बृहस्पति एवं लोकपालों की इंद्र से वार्तालाप | अगस्त्य का इन्द्र से नहुष के पतन का वृत्तांत बताना | इंद्र का स्वर्ग में राज्य पालन | शल्य का युधिष्ठिर आश्वासन देना | युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाओं का संक्षिप्त वर्णन

संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण | भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा | कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन | धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना | धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन | धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश | संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना | युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना | संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना | युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना | संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना | संजय को युधिष्ठिर का उत्तर | संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना | संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश | युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश | अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश | संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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